Share Me
आजकल
मेरी कृतियां मुझसे ही उलझने लगी हैं।
लौट-लौटकर सवाल पूछने लगी हैं।
दायरे तोड़कर बाहर निकलने लगी हैं।
हाथ से कलम फिसलने लगी है।
मैं बांधती हूं इक आस में,
वे चौखट लांघकर
बाहर का रास्ता देखने में लगी हैं।
आजकल मेरी ही कृतियां,
मुझे एक अधूरापन जताती हैं ।
कभी आकार का उलाहना मिलता है,
कभी रूप-रंग का,
कभी शब्दों का अभाव खलता है।
अक्सर भावों की
उथल-पुथल हो जाया करती है।
भाव और होते हैं,
आकार और ले लेती हैं,
अनचाही-अनजानी-अनपहचानी कृतियां
पटल पर मनमानी करने लगती हैं।
टूटती हैं, बिखरती हैं,
बनती हैं, मिटती हैं,
रंग बदरंग होने लगते हैं।
आजकल मेरी ही कृतियां
मुझसे ही दूरियां करने में लगी हैं।
मुझे ही उलाहना देने में लगी हैं।
Share Me
Write a comment
More Articles
अच्छी नींद लेने के लिए
अच्छी नींद लेने के लिए बस एक सरकारी कुर्सी चाहिए
कुछ चाय-नाश्ता और कमरे में एक ए सी होना चाहिए
फ़ाईलों को बनाईये तकिया, पैर मेज़ पर ज़रा टिकाईये
काम तो होता रहेगा, टालने का तरीका आना चाहिए
Share Me
न मैं जानूं न तुम जानो फिर भी अच्छे लगते हो
न मैं जानूं न तुम जानो फिर भी अच्छे लगते हो
न तुम बोले न मैं, मुस्कानों में क्यों बातें करते हो
अनजाने-अनपहचाने रिश्ते अपनों से अच्छे लगते हैं
कदम ठिठकते, दहलीज रोकती, यूं ही मन चंचल करते हो
Share Me
इरादे नेक हों तो
सिर उठाकर जीने का
मज़ा ही कुछ और है।
बाधाओं को तोड़कर
राहें बनाने का
मज़ा ही कुछ और है।
इरादे नेक हों तो
बड़े-बड़े पर्वत ढह जाते हैं
इस धरा और पाषाणों को भेदकर
गगन को देखने का
मज़ा ही कुछ और है।
बहुत कुछ सिखा जाता है यह अंकुरण
सुविधाओं में तो
सभी पनप लेते हैं
अपनी हिम्मत से
अपनी राहें बनाने मज़ा ही कुछ और है।
Share Me
सूरज को रोककर मैंने पूछा
सूरज को रोककर
मैंने पूछा
चलोगे मेरे साथ ?
-
हँस दिया सूरज
मैं तो चलता ही चलता हूँ।
तुम अपनी बोलो
चलोगे मेरे साथ ?
-
कभी रुका नहीं
कभी थका नहीं।
तुम अपनी बोलो
चलोगे मेरे साथ ?
-
दिन-रात घूमता हूँ
सबके हाल पूछता हूँ।
तुम अपनी बोलो
चलोगे मेरे साथ ?
-
रंगीनियों को सहेजता हूँ।
रंगों को बिखेरता हूँ।
तुम अपनी बोलो
चलोगे मेरे साथ ?
-
चँदा-तारे मेरे साथी
कौन तुम्हारे साथ ?
तुम अपनी बोलो
चलोगे मेरे साथ ?
-
बादल-वर्षा, आंधी-तूफ़ान
ग्रीष्म-शिशिर सब मेरे साथी।
तुम अपनी बोलो
चलोगे मेरे साथ ?
-
विस्तार गगन का
किसने नापा।
तुम अपनी बोलो
चलोगे मेरे साथ ?
Share Me
तुमसे ही करते हैं तुम्हारी शिकायत
क्षणिक आवेश में कुछ भी कह देते हैं
शब्द तुम्हारे लौटते नहीं, सह लेते हैं
तुमसे ही करते हैं तुम्हारी शिकायत
इस मूर्खता को आप क्या कहते हैं
Share Me
मैं बहुत बातें करता हूं
मम्मी मुझको गुस्सा करतीं
पापा भी हैं डांट पिलाते
मैं बहुत बातें करता हूं
कहते-कहते हैं थक जाते
चिड़िया चीं-चीं-ची-चीं करती
कौआ कां-कां-कां-कां करता
टाॅमी दिन भर भौं-भौं करता
उनको क्यों नहीं कुछ भी कहते
Share Me
भटकन है
दर्द बहुत है पर क्यों बतलाएँ तुमको
प्रश्न बहुत हैं पर कौन सुलझाए उनको
बात करते हैं तब उलाहने ही मिलते हैं
भटकन है पर कोई न राह दिखाए हमको
Share Me
कोई तो आयेगा
भावनाओं का वेग
किसी त्वरित नदी की तरह
अविरल गति से
सीमाओं को तोड़ता
तीर से टकराता
कंकड़-पत्थर से जूझता
इक आस में
कोई तो आयेगा
थाम लेगा गति
सहज-सहज।
.
जीवन बीता जाता है
इसी प्रतीक्षा में
और कितनी प्रतीक्षा
और कितना धैर्य !!!!
Share Me
मन में बजे सरगम
मस्ती में मनमौजी मन
पायल बजती छन-छनछन
पैरों की अनबन
बूँदों की थिरकन
हाथों से छल-छल
जल में
बनते भंवर-भंवर
हल्की-हल्की छुअन
बूँदों की रागिनी
मन में बजती सरगम।
Share Me
हिन्दी के प्रति
शिक्षा
अब ज्ञान के लिये नहीं
लाभ के लिए
अर्जित की जाती है,
और हिन्दी में
न तो ज्ञान दिखाई देता है
और न ही लाभ।
बस बोलचाल की
भाषा बनकर रह गई है,
कहीं अंग्रेज़ी हिन्दी में
और कहीं हिन्दी
अंग्रेज़ी में ढल गई है।
कुछ पुरस्कारों, दिवसों,
कार्यक्रमों की मोहताज
बन कर रह गई है।
बात तो बहुत करते हैं हम
हिन्दी चाहिए, हिन्दी चाहिए
किन्तु
कभी आन्दोलन नहीं करते
दसवीं के बाद
क्यों नहीं
अनिवार्य पढ़ाई जाती है हिन्दी।
प्रदूषित भाषा को
चुपचाप पचा जाते हैं हम।
सरलता के नाम पर
कुछ भी डकार जाते हैं हम।
गूगल अनुवादक लगाकर
हिन्दी लेखक होने का
गर्व पालते हैं हम।
प्रचार करते हैं
वैज्ञानिक भाषा होने का,
किन्तु लेखन और उच्चारण के
बीच के सम्बन्ध को
तोड़ जाते हैं हम।
कंधों पर उठाये घूम रहे हैं
अवधूत की तरह।
दफ़ना देते हैं
अपराधी की तरह।
और बेताल की तरह,
हर बार
वृक्ष पर लटक जाते हैं
कुछ प्रश्न अनुत्तरित।
हर वर्ष, इसी दिन
चादर बिछाकर
जितनी उगाही हो सके
कर लेते हैं
फिर वृक्ष पर टंग जाता है बेताल
अगली उगाही की प्रतीक्षा में।