Share Me
आकाश में अठखेलियां करते देखो बादल
ज्यों मां से हाथ छुड़ाकर भागे देखो बादल
डांट पड़ी तो रो दिये,मां का आंचल भीगा
शरारती-से,जाने कहां गये ज़रा देखो बादल
Share Me
Write a comment
More Articles
कितनी मनोहारी है जि़न्दगी
प्रतिदित प्रात नये रंग-रूप में खिलती है जि़न्दगी
हरी-भरी वाटिका-सी देखो रोज़ महकती है जि़न्दगी
कभी फूल खिेले, कभी फूल झरे, रंगों से धरा सजी
ज़रा आंख खोलकर देख, कितनी मनोहारी है जि़न्दगी
Share Me
अस्त होते सूर्य को नमन करें
हार के बाद भी जीत मिलती है
चलो आज हम अस्त होते सूर्य को नमन करें
घूमकर आयेगा, तब रोशनी देगा ही, मनन करें
हार के बाद भी जीत मिलती है यह जान लें,
न डर, बस लक्ष्य साध कर, मन से यत्न करें
Share Me
उड़ती चिड़िया के पर न गिनूं मैं
आप अब तक मेरी कविताएँ पढ़कर जान ही चुके होंगे कि मेरी विपरीत बुद्धि है। एक चित्र आया कावय रचना के लिए। आपको इस चित्र में किसके दर्शन हुए? मेरे सभी मित्रों को, किसी को विरहिणी नायिका दिखी, किसी को राधा, किसी को मीरा, किसी को बाट जोहती प्रेमिका आदि-आदि-इत्यादि। किन्तु मुझे जैसा यह चित्र प्रतीत हुआ, रचना आपके सामने है।
************-******************
फ़ोटू हो गई हो
मेरे सैयां
तो ये ताम-झाम हटवा दे।
इक कुर्सी-मेज़ ला दे।
उड़ती चिड़िया के पर न गिनूं मैं
फ़्रिज से
थोड़ा शीतल जल पिलवा दे।
कब तक नुमाईश करेगा मेरी,
आप आधुनिक बन बैठा है
मुझको भी नयी ड्रैस सिलवा दे।
अब खाना-वाना
न बनता मुझसे
स्वीगी से मंगवा दे।
Share Me
कुछ और नाम न रख लें
समाचार पत्र
कभी मोहल्ले की
रौनक हुआ करते थे।
एक आप लेते थे
एक पड़ोसियों से
मांगकर पढ़ा करते थे।
पूरे घर की
माँग हुआ करते थे।
दिनों-दिन
बातचीत का
आधार हुआ करते थे,
चैपाल और काॅफ़ी हाउस में
काफ़ी से ज़्यादा गर्म
चर्चा का आधार हुआ करते थे।
विश्वास का
नाम हुआ करते थे।
ज्ञान-विज्ञान की
खान हुआ करते थे।
नित नये काॅलम
पूरे परिवार के
मनोरंजन का
आधार हुआ करते थे।
-
मानों
युग बदल गया।
अब
समाचार पत्रों में
सब मिलता है
बस
समाचार नहीं मिलते।
कोई मुद्दे,
कोई भाव नहीं मिलते।
पृष्ठ घटते गये
विज्ञापन बढ़ते गये।
चार पन्नों को
उलट-पुलटकर
पलभर में रख देते हैं।
चित्र बड़े हो रहे हैं
पर कुछ बोलते नहीें।
बस
डराते हैं
धमकाते हैं
और चले जाते हैं।
कहानियाँ रह गईं
सत्य कहीं बिखर गया।
अन्त में लिखा रहता है
अनेक जगह
इन समाचारों/विचारों का
हमारा कोई दायित्व नहीं।
तो फिर
इनका
कुछ और नाम न रख लें।
Share Me
यादों का पिटारा
इस डिब्बे को देखकर
यादों का पिटारा खुल गया।
भूली-बिसरी चिट्ठियों के अक्षर
मस्तिष्क पटल पर
उलझने लगे।
हरे, पीले, नीले रंग
आंखों के सामने चमकने लगे।
तीन पैसे का पोस्ट कार्ड
पांच पैसे का अन्तर्देशीय,
और
बहुत महत्वपूर्ण हुआ करता था
बन्द लिफ़ाफ़ा
जिस पर डाकघर से खरीदकर
पचास पैसे का
डाक टिकट चिपकाया करते थे।
पत्र लिखने से पहले
कितना समय लग जाता था
यह निर्णय करने में
कि कार्ड प्रयोग करें
अन्तर्देशीय या लिफ़ाफ़ा।
तीन पैसे और पचास पैसे में
लाख रुपये का अन्तर
लगता था
और साथ ही
लिखने की लम्बाई
संदेश की सच्चाई
जीवन की खटाई।
वृक्षों पर लटके ,
सड़क के किनारे खड़े
ये छोटे-छोटे लाल डब्बे
सामाजिकता का
एक तार हुआ करते थे
अपनों से अपनी बात करने का,
दूरियों को पाटने का
आधार हुआ करते थे
द्वार से जब सरकता था पत्र
किसी अपने की आहट का
एहसास हुआ करते थे।
Share Me
अपने भीतर झांक
नदी-तट पर बैठ
करें हम प्रलाप
हो रहा दूषित जल
क्या कर रही सरकार।
भूल गये हम
जब हमने
पिकनिक यहां मनाई थी
कुछ पन्नियां, कुछ बोतलें
यहीं जल में बहाईं थीं
कचरा-वचरा, बचा-खुचा
छोड़ वहीं पर
मस्ती में
हम घर लौटे थे।
साफ़-सफ़ाई पर
किश्तीवाले को
हमने खूब सुनाई थी।
फिर अगले दिन
नदियों की दुर्दशा पर
एक अच्छी कविता-कहानी
बनाई थी।
Share Me
मेंहदी के रंगों की तरह
जीवन के रंग भी अद्भुत हैं।
हरी मेंहदी
लाल रंग छोड़ जाती है।
ढलते-ढलते गुलाबी होकर
मिट जाती है
लेकिन अक्सर
हाथों के किसी कोने में
कुछ निशान छोड़ जाती है
जो देर तक बने रहते हैं
स्मृतियों के घेरे में
यादों के, रिश्तों के,
सम्बन्धों के,
अपने-परायों के
प्रेम-प्यार के
जो उम्र के साथ
ढलते हैं, बदलते हैं
और अन्त में
कितने तो मिट जाते हैं
मेंहदी के रंगों की तरह।
जैसे हम नहीं जानते
जीवन में
कब हरीतिमा होगी,
कब पतझड़-सा पीलापन
और कब छायेगी फूलों की लाली।
Share Me
और हम यूं ही लिखने बैठ जाते हैं कविता
आज ताज
स्वयं अपने साये में
बैठा है
डूबते सूरज की चपेट में।
शायद पलट रहा है
अपने ही इतिहास को।
निहारता है
अपनी प्रतिच्छाया,
कब, किसने,
क्यों निर्माण किया था मेरा।
एक कब्र थी, एक कब्रगाह।
प्रदर्शन था
सत्ता का, मोह का, धन का
अधिकार का
और शायद प्रेम का।
अथाह जलराशि में
न जाने क्या-क्या समाहित।
डूबता है मन, डूबते हैं भाव
काल के साथ
बदलते हैं अर्थ।
और हम यूं ही
लिखने बैठ जाते हैं कविता,
प्रेम की, विरह की, श्रृंगार की
और वेदना की।
Share Me
शोर भीतर की आहटों को
बाहर का शोर
भीतर की आहटों को
अक्सर चुप करवा देता है
और हम
अपने भीतर की आवाज़ों-आहटों को
अनसुना कर
आगे निकल जाते हैं,
अक्सर, गलत राहों पर।
मन के भीतर भी एक शोर है,
खलबली है, द्वंद्व है,
वाद-विवाद, वितंडावाद है
जिसकी हम अक्सर
उपेक्षा कर जाते हैं।
अपने-आप को सुनना ही नहीं चाहते।
कहीं डरते हैं
क्योंकि सच तो वहीं है
और हम
सच का सामना करने से
डरते हैं।
अपने-आप से डरते हैं
क्योंकि
जब भीतर की आवाज़ें
सन्नाटें का चीरती हुई
बाहर निकलेंगी
तब कुछ तो अनघट घटेगा
और हम
उससे ही बचना चाहते हैं
इसीलिए से डरते हैं।