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न चूड़ियां देखो, न मेंहदी
न साज-श्रृंगार।
बस, आंखों में लरजते
कुछ सपने देखो।
कुछ पीछे छूट गये ,
कुछ बनते, कुछ सजते
कुछ वादे कुछ यादें।
आधी ज़िन्दगी
इधर थी, आधी उधर है।
पर, सपनों की गठरी
इक ही है।
कुछ बांध लिए, कुछ छिन लिए
कुछ पैबन्द लगे, कुछ गांठ पड़ी
कुछ बिखर गये , कुछ नये बुने
कुछ नये बने।
फिर भी सपने हैं, हैं तो, अपने हैं
कोई देख नहीं पायेगा
इस गठरी को, मन में है।
सपने हैं, जैसे भी हैं
हैं तो बस अपने हैं।
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ये औरतें
हर औरत के भीतर एक औरत है
और उसके भीतर एक और औरत।
यह बात स्वयं औरत भी नहीं जानती
कि उसके भीतर
कितनी लम्बी कड़ी है इन औरतों की।
धुरी पर घूमती चरखी है वह
जिसके चारों ओर
आदमी ही आदमी हैं
और वह घूमती है
हर आदमी के रिश्ते में।
वह दिखती है केवल
एक औरत-सी,
सजी-धजी, सुन्दर , रंगीन
शेष सब औरतें
उसके चारों ओर
टहलती रहती हैं,
उसके भीतर सुप्त रहती हैं।
कब कितनी औरतें जाग उठती हैं
और कब कितनी मर जाती हैं
रोज़ पैदा होती हैं कितनी नई औरतें
उसके भीतर
यह तो वह स्वयं भी नहीं जानती।
लेकिन,
ये औरतें संगठित नहीं हैं
लड़ती-मरती हैं,
अपने-आप में ही
अपने ही अन्दर।
कुछ जन्म लेते ही
दम तोड़ देती हैं
और कुछ को
वह स्वयं ही, रोज़, हर रोज़
मारती है,
वह स्वयं यह भी नहीं जानती।
औरत के भीतर सुप्त रहें
भीतर ही भीतर लड़ती-मरती रहें
जब तक ये औरतें,
सिलसिला सही रहता है।
इनका जागना, संगठित होना
खतरनाक होता है समाज के लिए
और, खतरनाक होता है
आदमी के लिए।
जन्म से लेकर मरण तक
मरती-मारती औरतें
सुख से मरती हैं।
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एक किरण लेकर चला हूँ
रोशनियों को चुराकर चला हूँ,
सिर पर उठाकर चला हूँ।
जब जहां अवसर मिलेगा
रोश्नियां बिखेरने का
वादा करके चला हूँ।
अंधेरों की आदत बनने लगी है,
उनसे दो-दो हाथ करने चला हूँ।
जानता हूं, है कठिन मार्ग
पर अकेल ही अकेले चला हूँ।
दूर-दूर तक
न राहें हैं, न आसमां, न जमीं,
सब तलाशने चला हूं।
ठोकरों की तो आदत हो गई है,
राहों को समतल बनाने चला हूँ।
कोई तो मिलेगा राहों में,
जो संग-संग चलेगा,
साथ उम्मीद की, हौंसलों की भी
एक किरण लेकर चला हूँ।
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इंसानियत के मीत
अपने भीतर झांककर इंसानियत को जीत
कर सके तो कर अपनी हैवानियत पर जीत
पूजा, अर्चना, आराधना का अर्थ है बस यही
कर ऐसे कर्म बनें सब इंसानियत के मीत
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बचपन-बचपन खेलें
हमने फ़ोन बनाया
न बिल आया
न हैंग हुआ।
न पैसे लगे
न टैंग हुआ।
न टूटे-फ़ूटे,
न सिग्नल की चिन्ता
न चार्ज किया।
न लड़ाई
न बहस-बसाई।
जब तक
चाहे बात करो
कोई न रोके
कोई न टोके।
हम भी लें लें
तुम भी ले लो
आओ आओ
बचपन-बचपन खेलें।
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गरीबी हटाओ देश बढ़ाओ
पिछले बहत्तर साल से
देश में
योजनाओं की भरमार है
धन अपार है।
मन्दिर-मस्जिद की लड़ाई में
धन की भरमार है।
चुनावों में अरबों-खरबों लुट गये
वादों की, इरादों की ,
किस्से-कहानियों की दरकार है।
खेलों के मैदान पर
अरबों-खरबों का
खिलवाड़ है।
रोज़ पढ़ती हूं अखबार
देर-देर तक सुनती हूं समाचार।
गरीबी हटेगी, गरीबी हटेगी
सुनते-सुनते सालों निकल गये।
सुना है देश
विकासशील से विकसित देश
बनने जा रहा है।
किन्तु अब भी
गरीब और गरीबी के नाम पर
खूब बिकते हैं वादे।
वातानूकूलित भवनों में
बन्द बोतलों का पानी पीकर
काजू-मूंगफ़ली टूंगकर
गरीबी की बात करते हैं।
किसकी गरीबी,
किसके लिए योजनाएं
और किसे घर
आज तक पता नहीं लग पाया।
किसके खुले खाते
और किसे मिली सहायता
आज तक कोई बता नहीं पाया।
फिर वे
अपनी गरीबी का प्रचार करते हैं।
हम उनकी फ़कीरी से प्रभावित
बस उनकी ही बात करते हैं।
और इस चित्र को देखकर
आहें भरते हैं।
क्योंकि न वे कुछ करते हैं।
और न हम कुछ करते हैं।
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रोशनी की एक लकीर
राहें कितनी भी सूनी हों
अंधेरे कितने भी गहराते हों
वक्त के किसी कोने से
रोशनी की एक लकीर
कभी न कभी,
ज़रूर निकलती ही है।
फिर वह एक रेखा हो,
चांद का टुकड़ा
अथवा चमकता सूरज।
इसलिए कभी भी
निराश न होना
अपने जीवन के सूनेपन से
अथवा अंधेरों से
और साथ ही
ज़रूरत से ज़्यादा रोशनी से भी ।
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पीछे मुड़कर क्या देखना
जीवन के उतार-चढ़ाव को
समझाती हैं ये सीढ़ियां
दुख-सुख के पल आते-जाते हैं
ये समझा जाती हैं ये सीढ़ियां
जीवन में
कुछ गहराते अंधेरे हैं
और कुछ होती हैं रोशनियां
हिम्मत करें
तो अंधेरे को बेधकर
रोशनी का मार्ग
दिखाती हैं ये सीढ़ियां
जो बीत गया
सो बीत गया
पीछे मुड़कर क्या देखना
आगे की राह
दिखाती हैं ये सीढि़यां
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कौन किसी का होता है
पत्थर संग्रहालयों में सुरक्षित हैं जीवन सड़कों पर रोता है
अरबों-खरबों से खेल रहे हम रुपया हवा हो रहा होता है
किसकी मूरत, किसकी सूरत, न पहचानी, बस नाम दे रहे
बस शोर मचाए बैठे हैं, यहाँ अब कौन किसी का होता है
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बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ
इधर बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ
अभियान ज़ोरों पर है।
विज्ञापनों में भरपूर छाया है
जिसे देखो वही आगे आया है।
भ्रूण हत्याओं के विरूद्ध नारे लग रहे हैं
लोग इस हेतु
घरों से निकलकर सड़कों पर आ रहे हैं,
मोमबत्तियां जला रहे हैं।
लेकिन क्या सच में ही
बदली है हमारी मानसिकता !
प्रत्येक नवजात के चेहरे पर
बालक की ही छवि दिखाई देती है
बालिका तो कहीं
दूर दूर तक नज़र नहीं आती है।
इस चित्र में एक मासूम की यह छवि
किसी की दृष्टि में चमकता सितारा है
तो कहीं मसीहा और जग का तारणहार।
कहीं आंखों का तारा है तो कहीं राजदुलारा।
एक साधारण बालिका की चाह तो
हमने कब की त्याग दी है
अब हम लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा
की भी बात नहीं करते।
कभी लक्ष्मीबाई की चर्चा हुआ करती थी
अब तो हम उसको भी याद नहीं करते।
पी. टी. उषा, मैरी काम, सान्या, बिछेन्द्री पाल
को तो हम जानते ही नहीं
कि कहें
कि ईश्वर इन जैसी संतान देना।
कोई उपमाएं, प्रतीक नहीं हैं हमारे पास
अपनी बेटियों के जन्म की खुशी मनाने के लिए।
शायद आपको लग रहा होगा
मैं विषय-भ्रम में हूं।
जी नहीं,
इस नवजात को मैं भी देख रही हूं
एक चमकते सितारे की तरह
रोशनी से भरपूर।
किन्तु मैं यह नहीं समझ पा रही हूं
कि इस चित्र में सबको
एक नवजात बालक की ही प्रतीति
क्यों है
बालिका की क्यों नहीं।
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आँख मूंद सपनों में जीने लगती हूँ
खिड़की से सूनी राहों को तकती हूँ
उन राहों पर मन ही मन चलती हूँ
भटकन है, ठहराव है, झंझावात हैं
आँख मूंद सपनों में जीने लगती हूँ।