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कितनी बार,
हम समझ ही नहीं पाते,
कि परम्पराओं में जी रहे हैं,
या रूढ़ियों में।
.
दादी की परम्पराएं,
मां के लिए रूढ़ियां थीं,
और मां की परम्पराएं
मुझे रूढ़ियां लगती हैं।
.
हमारी पिछली पीढ़ियां
विरासत में हमें दे जाती हैं,
न जाने कितने अमूल्य विचार,
परम्पराएं, संस्कृति और व्यवहार,
कुछ पुराने यादगार पल।
इस धरोहर को
कभी हम सम्हाल पाते हैं,
और कभी नहीं।
कभी सार्थक लगती हैं,
तो कभी अर्थहीन।
गठरियां बांधकर
रख देते हैं
किसी बन्द कमरे में,
कभी ज़रूरत पड़ी तो देखेंगे,
और भूल जाते हैं।
.
ऐसे ही पीढ़ी-दर-पीढ़ी
सौंपी जाती है विरासत,
किसी की समझ आती है
किसी की नहीं।
किन्तु यह परम्परा
कभी टूटती नहीं,
चाहे गठरियों
या बन्द कमरों में ही रहें,
इतना ही बहुत है।
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कूड़े-कचरे में बचपन बिखरा है
आंखें बोलती हैं
कहां पढ़ पाते हैं हम
कुछ किस्से खोलती हैं
कहां समझ पाते हैं हम
किसी की मानवता जागी
किसी की ममता उठ बैठी
पल भर के लिए
मन हुआ द्रवित
भूख से बिलखते बच्चे
बेसहारा अनाथ
चल आज इनको रोटी डालें
दो कपड़े पुराने साथ।
फिर भूल गये हम
इनका कोई सपना होगा
या इनका कोई अपना होगा,
कहां रहे, क्या कह रहे
क्यों ऐसे हाल में है
हमारी एक पीढ़ी
कूड़े-कचरे में बचपन बिखरा है
किस पर डालें दोष
किस पर जड़ दें आरोप
इस चर्चा में दिन बीत गया !!
सांझ हुई
अपनी आंखों के सपने जागे
मित्रों की महफ़िल जमी
कुछ गीत बजे, कुछ जाम भरे
सौ-सौ पकवान सजे
जूठन से पंडाल भरा
अनायास मन भर आया
दया-भाव मन पर छाया
उन आंखों का सपना भागा आया
जूठन के ढेर बनाये
उन आंखों में सपने जगाये
भर-भर उनको खूब खिलाये
एक सुन्दर-सा चित्र बनाया
फे़सबुक पर खूब सजाया
चर्चा का माहौल बनाया
अगले चुनाव में खड़े हो रहे हम
आप सबको अभी से करते हैं नमन
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अपने कदम बढ़ाना
किसी के कदमों के छूटे निशान न कभी देखना
अपने कदम बढ़ाना अपनी राह आप ही देखना
शिखर तक पहुंचने के लिए बस चाहत ज़रूरी है
अपनी हिम्मत लेकर जायेगी शिखर तक देखना
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धरा पर उतर
चांद को छू ले
एक बार,
फिर धरा पर उतर,
पांव रख।
आज मैं साथ तेरे
कल अकेले
तुझे आप ही
सारी सीढि़यां नापनी होंगी।
जीवन में सीढि़यां चढ़
सहज-सहज
चांद आप ही
तेरे लिए
धरा पर उतर आयेगा।
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कड़वाहटों को बो रहे हैं हम
गत-आगत के मोह में आज को खो रहे हैं हम
जो मिला या न मिला इस आस को ढो रहे हैं हम
यहां-वहां, कहां-कहां, किस-किसके पास क्या है
इसी कशमकश में कड़वाहटों को बो रहे हैं हम
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दर्दे दिल के निशान
काश! मेरा मन रेत का कोई बसेरा होता।
सागर तट पर बिखरे कणों का घनेरा होता।
दर्दे दिल के निशान मिटा देतीं लहरें, हवाएं,
सागर तल से उगता हर नया सवेरा होता।
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विनम्रता कहां तक
आंधी आई घटा छाई विनम्र घास झुकी, मुस्काई
वृक्षों ने आंधी से लड़ने की आकांक्षा जतलाई
झुकी घास सदा ही तो पैरों तले रौंदी जाती रही
धराशायी वृक्षों ने अपनी जड़ों से फिर एक उंचाई पाई
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सबकी ही तो हार हुई है
जब भी तकरार हुई है
सबकी ही तो हार हुई है।
इन राहों पर अब जीत कहां
बस मार-मारकर ही तो बात हुई है।
हाथ मिलाने निकले थे,
क्यों मारा-मारी की बात हुई है।
बात-बात में हो गई हाथापाई,
न जाने क्यों
हाथ मिलाने की न बात हुई है।
समझ-बूझ से चले है दुनिया,
गोला-बारी से तो
इंसानियत बरबाद हुई है।
जब भी युद्धों का बिगुल बजा है,
पूरी दुनिया आक्रांत हुई है।
समझ सकें तो समझें हम,
आयुधों पर लगते हैं अरबों-खरबों,
और इधर अक्सर
भुखमरी-गरीबी पर बात हुई है।
महामारी से त्रस्त है दुनिया
औषधियां खोजने की बात हुई है।
चल मिल-जुलकर बात करें।
तुम भी जीओ, हम भी जी लें।
मार-काट से चले न दुनिया,
इतना जानें, तब आगे बढ़े है दुनिया।
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शोर भीतर की आहटों को
बाहर का शोर
भीतर की आहटों को
अक्सर चुप करवा देता है
और हम
अपने भीतर की आवाज़ों-आहटों को
अनसुना कर
आगे निकल जाते हैं,
अक्सर, गलत राहों पर।
मन के भीतर भी एक शोर है,
खलबली है, द्वंद्व है,
वाद-विवाद, वितंडावाद है
जिसकी हम अक्सर
उपेक्षा कर जाते हैं।
अपने-आप को सुनना ही नहीं चाहते।
कहीं डरते हैं
क्योंकि सच तो वहीं है
और हम
सच का सामना करने से
डरते हैं।
अपने-आप से डरते हैं
क्योंकि
जब भीतर की आवाज़ें
सन्नाटें का चीरती हुई
बाहर निकलेंगी
तब कुछ तो अनघट घटेगा
और हम
उससे ही बचना चाहते हैं
इसीलिए से डरते हैं।
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दोहरी मानसिकता
अपने पाँव पर आप हथौड़ी मारना मुहावरा तो सुना ही होगा आपने। महिलाओं के जीवन पर पूरा फ़िट होता है। इसी अर्थ को ध्वनित करते और भी बहुत से मुहावरे हैं, अभी याद नहीं आ रहे। जैसे अपने लिए कुँआ खोदना अथवा अपने लिए गढ्ढा खोदना आदि-आदि। जो कुठाराघात, हथौड़ा अपने विरुद्ध उठे कदमों पर उठाना चाहिए, अपने साथ हो रहे अन्याय पर उठाना चाहिए, मृत परम्पराओं, शोषण प्रधान रीति-रिवाज़ों पर उठाना चाहिए, वे अपने पर ही चलाती रहती हैं और फिर अपने लिए कहती हैं: वाह-वाह, वाह-वाह-वाह!!
महिलाएँ सारा जीवन यही करती हैं। वे तय ही नहीं कर पातीं कि उन्हें जीवन में क्या चाहिए और कितना और किसके लिए चाहिए।
संस्कार, रीति-रिवाज़, परम्पराएँ, व्रतोपवास, पूजा-अर्चना, अर्थात भारतीयता, भारतीय संस्कृति उनके भीतर बोलती है। किन्तु पढ़ना भी है, नौकरी भी करनी है, स्वभाव में व रहन-सहन में पुरातनता नहीं दिखनी चाहिए। किन्तु इतनी आधुनिकता भी न दिखे कि लोग अंगुलियां उठाने लगें। अन्यान्य गतिविधियों में भी आजकल पांरगत होना आवश्यक है। घर-गृहस्थी, परिवार तो उनका दायित्व रहता ही है। आत्मनिर्भर होना आवश्यक है। किन्तु इतना आत्मनिर्भर भी न हो जायें कि पुरुष, पति अथवा परिवार पर हावी होने लगें। गाड़ी चलाना भी सीखना चाहिए। उनके जीवन की सार्थकता सभी रिश्तों को ओढ़कर चलने और उनकी सफ़लता में है, वही उनका व्यक्तित्व है और इससे ही समाज उनके व्यक्तित्व को पारिभाषित करता है।
उनमें संस्कारों के प्रति गहरी आस्था रहती है। वे रीति-रिवाज़ों का पालन भी करना चाहती हैं और उन्हें बदलना भी चाहती हैं।
बहुत पहले की बात है जब समाचार पत्रों में वैवाहिक विज्ञापनों का बहुत महत्व हुआ करता था। उस समय लड़कों की ओर से लड़कियों के लिए प्रकाशित होने वाले विज्ञापनों की भाषा कुछ इस तरह की हुआ करती थी, ‘‘आवश्यकता है एक संस्कारी, पारिवारिक, घरेलू लड़की की , जो घर का काम-काज जानती हो। अनुपम सुन्दरी,गोरा रंग, आकर्षक, पतली, कान्वैंट से पढ़ी, लड़का विदेश में सैटलड्। देश-विदेश में फैला व्यवसाय, लड़की माहौल के अनुसार एडजैस्ट हो सके।’’
मुझे यह विज्ञापन अधूरा लगता था। तब मैंने पहले दिये गये विवरण के अतिरिक्त लिखा था, ‘‘ आवश्यकता है एक लड़की की, ..................... जो किटी, क्लब के योग्य हो, करवाचैथ का व्रत रखना जानती हो, मेंहदी लगाना, लाल साड़ी पहनना, मांग में सिंदूर और और इस तरह के सभी कार्यक्रम जानती हो। आवश्यकता पड़ने पर साड़ी को सूट, मिनी स्कर्ट बनाना जानती हो, और मिनी स्कर्ट को स्विमिंग सूट बनाना जानती हो। साग-मक्की की रोटी बनाना और चिकन खाना जानती हो, भरतनाट्यम में पाॅप और कथक में बैले करना जानती हो।’’ क्योंकि विदेशों में भारतीय संस्कृति का प्रदर्शन महिलाओं के ही माध्यम से उनके पति करते हैं।
यद्यपि इस तरह के विज्ञापन बहुत ही पुरानी बात है किन्तु इस तरह के भाव आज भी हमारे समाज में जीवन्त हैं।
मैं जानती हो आप कहेंगे कि यह तो अतिशयोक्ति है अथवा अपमानजनक है। किन्तु इन शब्दों का प्रयोग चाहे न हो किन्तु चाहतें तो ऐसी ही होती हैं और जीवन के इस दोहरेपन को स्वीकार करते हुए हम अपने ही हाथ में हथौड़ा लिए रहते हैं।
किन्तु इस दोहरेपन के लिए न समाज दोषी है और न पुरुष-समाज। महिलाएं स्वयं ही अपनी जीवन-शैली निश्चित-निर्धारित नहीं कर पातीं। वे यही देखती रह जाती हैं कि सामने वाले क्या चाहते हैं। फिर वे माता-पिता, भाई, पति, समाज, कार्य-स्थल कुछ भी हो सकता है। उनके निर्णय दूसरों की अपेक्षाओं से अत्याधिक प्रभावित होते हैं।
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जब आग लगती है
किसी आग में घर उजड़ते हैं ।
कहीं किसी के भाव जलते हैं ।
जब आग लगती है किसी वन में
मन के संताप उजड़ते हैं ।
शेर-चीतों को ले आये हम
अभयारण्य में ।
कोई बताये मुझे
क्या कहूं उस चिडि़या से,
किसी वृक्ष की शाख पर,
जिसके बच्चे पलते हैं ।