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द्वंद्व में फ़ंसी मै सोचती हूं,
मैं और तुम कितने एक हैं,
पर दो भी हैं।
शायद इसीलिए एक हैं।
नहीं ! शायद
एक होने के लिए दो हैं।
पहले एक हैं या पहले दो ?
एक ज़्यादा हैं या दो ?
या केवल एक ही हैं,
या केवल दो ही।
इस एक और दो के
द्वंद्व के बीच,
कहीं मैंने जाना,
कि हम
न एक रह गये हैं
न ही दो।
हम दोनों
एक-एक हो गये हैं।
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एक अजीब भटकाव है मेरी सोच में
एक अजीब भटकाव है मेरी सोच में
मेरे दिमाग में।
आपसे आज साझा करना चाहती हूं।
असमंजस में रहती हूं।
बात कुछ और चल रही होती है
और मैं कुछ और अर्थ निकाल लेती हूं।
अब आज की ही बात लीजिए।
नवरात्रों में
मां की चुनरी की बात हो रही थी
और मुझे होलिका की याद हो आई।
अब आप इसे मेरे दिमाग की भटकन ही तो कहेंगे।
लेकिन मैं क्या कर सकती हूं।
जब भी चुनरी की बात उठती है
मुझे होलिका जलती हुई दिखाई देती है,
और दिखाई देती है उसकी उड़ती हुई चुनरी।
कथाओं में पढ़ा है
उसके पास एक वरदान की चुनरी थी ।
शायद वैसी ही कोई चुनरी
जो हम कन्याओं का पूजन करके
उन्हें उढ़ाते हैं और आशीष देते हैं।
किन्तु कभी देखा है आपने
कि इन कन्याओं की चुनरी कब, कहां
और कैसे कैसे उड़ जाती है।
शायद नहीं।
क्योंकि ये सब किस्से कहानियां
इतने आम हो चुके हैं
कि हमें इसमें कुछ भी अनहोनी नहीं लगती।
देखिए, मैं फिर भटक गई बात से
और आपने रोका नहीं मुझे।
बात तो माता की चुनरी और
होलिका की चुनरी की कर रही थी
और मैं कहां कन्या पूजन की बात कर बैठी।
फिर लौटती हूं अपनी बात की आेर,
पता नहीं होलिका मां थी या नहीं।
किन्तु एक भाई की बहिन तो थी ही
और एक कन्या
जिसने भाई की आज्ञा का पालन किया था।
उसके पास एक वरदानमयी चुनरी थी।
और था एक अत्याचारी भाई।
शायद वह जानती भी नहीं थी
भाई के अत्याचारों, अन्याय को
अथवा प्रह्लाद की ईश्वर भक्ति को।
और अपने वरदान या श्राप को।
लेकिन उसने एक बुरी औरत बनकर
बुरे भाई की आज्ञा का पालन किया।
अग्नि देवता आगे आये थे
प्रह्लाद की रक्षा के लिए।
किन्तु होलिका की चुनरी न बचा पाये,
और होलिका जल मरी।
वैसे भी चुनरी की आेर
किसी का ध्यान ही कहां जाता है
हर पल तो उड़ रही हैं चुनरियां।
और हम !
हमारे लिए एक पर्व हो जाता है
एक औरत जलती है
उसकी चुनरी उड़ती है और हम
आग जलाकर खुशियां मनाते हैं।
देखिए, मैं फिर भटक गई बात से
और आपने रोका नहीं मुझे।
अब आग तो बस आग होती है
जलाती है
और जिसे बचाना हो बचा भी लेती है।
अब देखिए न, अग्नि देव ले आये थे
सीता को ले आये थे सुरक्षित बाहर,
पवित्र बताया था उसे।
और राम ने अपनाया था।
किन्तु कहां बच पाई थी उसकी भी चुनरी
घर से बेघर हुई थी अपमानित होकर
फिर मांगा गया था उससे पवित्रता का प्रमाण।
और वह समा गई थी धरा में
एक आग लिए।
कहते हैं धरा के भीतर भी आग है।
आग मेरे भीतर भी धधकती है।
देखिए, मैं फिर भटक गई बात से
और आपने रोका नहीं मुझे।
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दुनिया कहती है
काश !
लौट आये
अट्ठाहरवीं शती ।
गोबर सानती,
उपले बनाती,
लकडि़या चुन,ती
वन-वन घूमती ।
पांच हाथ घूंघट ओढ़ती,
गागर उठा कुंएं से पानी लाती,
बस रोटियां बनाती,
खिलाती और खाती।
रोटियां खाती, खिलाती और बनाती।
सच ! कितनी सही होती जि़न्दगी।
-
दुनिया कहती है
बाकी सब तो मर्दों के काम हैं।
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कृष्ण एक अवतार बचा है ले लो
अपने जन्मदिवस पर,
आनन्द पूर्वक,
परिवार के साथ,
आनन्दमय वातावरण में,
आनन्द मना रही थी।
पता नहीं कहां से
कृष्ण जी पधारे,
बोले, परसों मेरा भी जन्मदिन था।
करोड़ों लोगों ने मनाया।
मैं बोली
तो मेरे पास क्या करने आये हो?
मैंने तो नहीं मनाया।
बोले,
इसी लिए तो तुम्हें ही
अपना आशीष देने आया हूं,
बोले] जुग-जुग जीओ बेटा।
पहले तो मैंने उन्हें डांट दिया,
अपना उच्चारण तो ठीक करो,
जुग नहीं होता, युग होता है।
इससे पहले कि वह
डर कर चले जाते,
मैंने रोक लिया और पूछा,
हे कृष्ण! यह तो बताओ
कौन से युग में जीउं ?
मेरे इस प्रश्न पर कृष्ण जी
तांक-झांक करने लगे।
मैंने कहा, केक खाओ,
और मेरे प्रश्न सुलझाओ।
हर युग में आये तुम।
हर युग में छाये तुम।
पर मेरी समझ कुछ छोटी है
बुद्धि ज़रा मोटी है।
कुछ समझाओ मुझे तुम।
पढ़ा है मैंने
24 अवतार लिए तुमने।
कहते हैं
सतयुग सबसे अच्छा था,
फिर भी पांच अवतार लिये तुमने।
दुष्टों का संहार किया
अच्छों को वरदान दिया।
त्रेता युग में तीन रूप लिये
और द्वापर में अकेले ही चले आये।
कहते हैं,
यह कलियुग है,
घोर पाप-अपराध का युग है।
मुझे क्या लेना
किस युग में तुमने क्या किया।
किसे दण्ड दिया,
और किसे अपराध मुक्त किया।
एक अवतार बचा है
ले लो, ले लो,
नयी दुनिया देखो
इस युग में जीओ,
केक खाओ और मौज करो।
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बेनाम वीरों को नमन करूं
किस-किस का नाम लूं
किसी-किस को छोड़ दूं
कहां तक गिनूं,
किसे न नमन करूं
सैंकड़ों नहीं लाखों हैं वे
देश के लिए मर मिटे
इन बेनाम वीरों को
क्यों न नमन करूं।
कोई घर बैठे कर्म कर रहा था
तो कोई राहों में अड़ा था
किसी के हाथ में बन्दूक थी
तो कोई सबके आगे
प्रेरणा-स्रोत बन खड़ा था।
कोई कलम का सिपाही था
तो कोई राजनीति में पड़ा था।
कुछ को नाम मिला
और कुछ बेनाम ही
मर मिटे थे
सालों-साल कारागृह में पड़े रहे,
लाखों-लाखों की एक भीड़ थी
एक ध्वज के मान में
देश की शान में
मर मिटी थी
इसी बेनाम को नमन करूं
इसी बेनाम को स्मरण करूं।
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बालपन को जी लें
अपनी छाया को पुकारा, चल आ जा बालपन को फिर से जी लें
यादों का झुरमुट खोला, चल कंचे, गोली खेलें, पापड़, इमली पी लें
कैसे कैसे दिन थे वे सड़कों पर छुपन छुपाई, गुल्ली डंडा खेला करते
वो निर्बोध प्यार की हंसी ठिठोली, चल उन लम्हों को फिर से जी लें
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मेरा घर जलाता कौन है
घर में भी अब नहीं सुरक्षित, विचलित मन को यह बात बताता कौन है,
भीड़-तन्त्र हावी हो रहा, कानून की तो बात यहं अब समझाता कौन है,
कौन है अपना, कौन पराया, कब क्या होगा, कब कौन मिटेगा, पता नहीं
यू तो सब अपने हैं, अपने-से लगते हैं, फिर मेरा घर जलाता कौन है।
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करते रहते हैं बातें
बढ़ती आबादी को रोक नहीं पाते
योजनाओं पर अरबों खर्च कर जाते
शिक्षा और जानकारियों की है कमी
बैठे-बैठे बस करते रहते हैं हम बातें
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बस जीवन बीता जाता है
सब जीवन बीता जाता है ।
कुछ सुख के कुछ दुख के
पल आते हैं, जाते हैं,
कभी धूप, कभी झड़़ी ।
कभी होती है घनघोर घटा,
तब भी जीवन बीता जाता है ।
कभी आस में, कभी विश्वास में,
कभी घात में, कभी आघात में,
बस जीवन बीता जाता है ।
हंसते-हंसते आंसू आते,
रोते-रोते खिल-खिल करते ।
चढ़़ी धूप में पानी गिरता,
घनघोर घटाएं मन आतप करतीं ।
फिर भी जीवन बीता जाता है ।
नित नये रंगों से जीवन-चित्र संवरता
बस यूं ही जीवन बीता जाता है ।
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सूर्यग्रहण के चित्र पर एक रचना
दूर कहीं गगन में
सूरज को मैंने देखा
चन्दा को मैंने देखा
तारे टिमटिम करते
जीवन में रंग भरते
लुका-छिपी ये खेला करते
कहते हैं दिन-रात हुई
कभी सूरज आता है
कभी चंदा जाता है
और तारे उनके आगे-पीछे
देखो कैसे भागा-भागी करते
कभी लाल-लाल
कभी काली रात डराती
फिर दिन आता
सूरज को ढूंढ रहे
कोहरे ने बाजी मारी
दिन में देखो रात हुई
चंदा ने बाजी मारी
तम की आहट से
दिन में देखो रात हुई
प्रकृति ने नवचित्र बनाया
रेखाओं की आभा ने मन मोहा
दिन-रात का यूं भाव टला
जीवन का यूं चक्र चला
कभी सूरज आगे, कभी चंदा भागे
कभी तारे छिपते, कभी रंग बिखरते
बस, जीवन का यूं चक्र चला
कैसे समझा, किसने समझा
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कल किसने देखा है
इस सूनेपन में
मन बहक गया।
धुंधलेपन में
मन भटक गया।
छोटी-सी रोशनी
मन चहक गया।
गहन, बीहड़ वन में
मन अटक गया।
आकर्षित करती हैं,
लहकी-लहकी-सी डालियां
बुला रहीं,
चल आ झूम ले।
दुनियादारी भूल ले।
कल किसने देखा है
आजा,
आज जी भर घूम ले।