Share Me
मैंने तो सिर्फ कहा था "शब्द"
पता नहीं कब
वह शब्द नहीं रहे
चेतावनी हो गये।
मैंने तो सिर्फ कहा था "पत्थर"
तुम पता नहीं क्यों तुम
उसे अहिल्या समझ बैठे।
मैंने तो सिर्फ कहा था "नाम"
और तुम
अपने आप ही राम बन बैठे।
और मैंने तो सिर्फ कहा था
"अन्त"
पता नहीं कैसे
तुम उसे मौत समझ बैठे।
और यहीं से
ज़िन्दगी की नई शुरूआत हुई।
मौत, जो हुई नहीं
समझ ली गई।
पत्थर, जो अहिल्या नहीं
छू लिया गया।
और तुम राम नहीं।
और पत्थर भी अहिल्या नहीं।
जो शताब्दियों से
सड़क के किनारे पड़ा हो
किसी राम की प्रतीक्षा में
कि वह आयेगा
और उसे अपने चरणों से छूकर
प्राणदान दे जायेगा।
किन्तु पत्थर
जो अहिल्या नहीं
छू लिया गया
और तुम राम नहीं।
जब तक तुम्हें
सही स्थिति का पता लगता
मौत ज़िन्दगी हो गई
और पत्थर आग।
वैसे भी
अब तब मौमस बहुत बदल चुका है।
जब तक तुम्हें
सही स्थिति का पता लगता
मौत ज़िन्दगी हो गई
और पत्थर आग।
एक पत्थर से
दूसरे पत्थर तक
होती हुई यह आग।
अब हर पत्थर के भीतर एक आग है।
जिसे तुम देख नहीं सकते।
आज दबी है
कल चिंगारी हो जायेगी।
अहिल्या तो पता नहीं
कब की मर चुकी है
और तुम
अब भी ठहरे हो
संसार से वन्दित होने के लिए।
सुनो ! चेतावनी देती हूं !
सड़क के किनारे पड़े
किसी पत्थर को, यूं ही
छूने की कोशिश मत करना।
पता नहीं
कब सब आग हो जाये
तुम समझ भी न सको
सब आग हो जाये,एकाएक।।।।
Share Me
Write a comment
More Articles
धूप ये अठखेलियां हर रोज़ करती है
पुरानी यादें यूं तो मन उदास करती हैं
पर जब कुछ सुनहरे पल तिरते हैं
मन में नये भाव खिलते हैं
कोहरे में धुंधलाती रोशनियां
चमकने लगती हैं
कुछ बूंदे तिरती हैं
झुके-झुके पल्लवों पर
आकाश में नीलिमा तिरती है
फूल लेने लगते हैं अंगडाईयां
मन में कहीं आस जगती है
धूप ये अठखेलियां हर रोज़ करती है
Share Me
न समझे हम न समझे तुम
सास-बहू क्यों रूठ रहीं
न हम समझे न तुम।
पीढ़ियों का है अन्तर
न हम पकड़ें न तुम।
इस रिश्ते की खिल्ली उड़ती,
किसका मन आहत होता,
करता है कौन,
न हम समझें न तुम।
शिक्षा बदली, रीति बदली,
न बदले हम-तुम।
कौन किसको क्या समझाये,
न तुम जानों न हम।
रीतियों को हमने बदला,
संस्कारों को हमने बदला,
नया-नया करते-करते
क्या-क्या बदल डाला हमने,
न हम समझे न तुम।
हर रिश्ते में उलझन होती,
हर रिश्ते में कड़वाहट होती,
झगड़े, मान-मनौवल होती,
पर न बात करें,
न जाने क्यों,
हम और तुम।
जहां बात नारी की आती,
बढ़-बढ़कर बातें करते ,
हास-परिहास-उपहास करें,
जी भरकर हम और तुम।
किसकी चाबी किसके हाथ
क्यों और कैसे
न जानें हम और न जानें हो तुम।
सब अपनी मनमर्ज़ी करते,
क्यों, और क्या चुभता है तुमको,
न समझे हैं हम
और क्यों न समझे तुम।
Share Me
तीर और तुक्का
एक बार आसमां पर तीर जरूर तानिए
लौटकर आयेगा, प्रभाव, उसका जानिए
तीर के साथ तुक्के का ध्यान भी रखें
नहीं तो तरकस खाली होगा, यह मानिए
Share Me
Share Me
बस ! हार मत मानना
कहते हैं
धरती सोना उगलती है
ये बात वही जानता है
जिसके परिश्रम का स्वेद
धरा ने चखा हो।
गेहूं की लहलहाती बालियां
आकर्षित करती हैं,
सौन्दर्य प्रदर्शित करती हैं,
झूमती हैं, पुकारती हैं
जीवन का सार समझाती हैं ।
पता नहीं कल क्या होगा
मौसम बदलेगा
सोना घर आयेगा
या फिर मिट्टी हो जायेगा
कौन जाने ।
किन्तु
कृषक फिर उठ खड़ा होगा
अपने परिश्रम के स्वेद से
धरा को सींचने के लिए
बस ! हार मत मानना
फल तो मिलकर ही रहेगा
धरा यही समझाती हैं ।
Share Me
मन के भाव देख प्रेयसी
रंग रूप की ऐसी तैसी
मन के भाव देख प्रेयसी
लीपा-पोती जितनी कर ले
दर्पण बोले दिखती कैसी
Share Me
संस्मरण /यात्रा संस्मरण
रविवार 3 जुलाई का दिन बहुत अच्छा बीता। एक नया अनुभव, फ़ेसबुक के वे मित्र जिनसे वर्षों से कविताओं एवं प्रतिक्रियाओं के माध्यम से मिलते थे, ऑनलाईन कवि सम्मेलन में मिलते थे एवं कभी फ़ोन पर भी बात होती थी, उनसे मिलना और एक सुन्दर, भव्य कवि सम्मेलन का हिस्सा बनना।
फ़ेसबुक का पर्पल पैन साहित्यिक मंच एवं मंच की संस्थापक/संचालक वसुधा कनुप्रिया जी का दूर से ही मिलने वाला नेह मुझे कल दिल्ली ले गया।
इस कवि सम्मेलन का हिस्सा बनने के लिए मैंने कल पंचकूला से दिल्ली तक की आने-जाने की टैक्सी की और लगभग दस घंटे की यात्रा की। प्रातः सात बजे जब घर से निकली तो मूसलाधार वर्षा, सड़कों पर बने तालाब, रुकता-चलता ट्रैफ़िक प्रतीक्षा कर रहा था। मेरी अधिक यात्रा तो सोते ही बीतती है। करनाल से पहले से मौसम ठीक होने लगा था। वसुधा जी से और घर में भी निरन्तर बात अथवा वाट्सएप संदेष चल रहे थे। उन्होंने मुझे लोकेशन, निकटवर्ती स्थल आदि की सूचना भी भेज दी। करनाल में अल्पाहार कर जब दिल्ली की सीमा के निकट पहुँचे तो मोबाईल ने कुछ पूछा, हाँ अथवा कैंसल। मैं ऐसे मामलों में अपना दिमाग़ कदापि नहीं लगाती, बेटे से पूछा, शायद मैं उसे कुछ ठीक बता नहीं पाई और रोमिंग बंद। वाट्सएप बन्द। मैं समझाने पर भी नहीं समझ पाई। इस बीच हम कार्यक्रम स्थल तक पहुँच चुके थे। फिर वसुधा जी का सहारा लिया। भाग्य रहा कि निकट ही एक छोटी सी दुकान मिल गई और उन्होंने रोमिंग चला दी। सांस में सांस आई।
वसुधा जी की चिन्ता मन को छू जाती है। उनका प्रातः भी फ़ोन आया कि मौसम देखकर निकलिएगा। वे इस बात की भी चिन्ता कर रही थीं कि मैं दोपहर में एक-दो बजे पहुँचूंगी तो भूख लगी होगी। वे मेरे लिए और मेरे टैक्सी चालक के लिए विशेष रूप ढोकला लेकर आईं। वसुधा जी एवं डॉण् इन्दिरा शर्माए मीनाक्षी भटनागर ए रजनी रामदेवए गीता भाटियाए वंदना मोदी गोयलए वीणा तँवरए शारदा मदराए रामकिशोर उपाध्यायए एवं एक-दो मित्र-परिचित और जिनके मैं नाम भूल रही हूँ, लगा ही नहीं कि पहली बार मिल रहे हैं। एक अपनत्व की धारा थी। अन्य कवि भी प्रथम परिचय में आत्मीय भाव से मिले। वसुधा जी की मम्मी से मिलना भी बहुत सुखद रहा।
मधुश्री जी की पुस्तक का विमोचन भी हुआ।
कवि सम्मेलन का अनुभव बहुत अच्छा रहा। एक नयापन, विविधात्मक रचनाएँ, एवं सहज वातावरण, सुव्यवस्थित कार्यक्रम एवं आयोजन मन आनन्दित कर गया।
आयोजन की अध्यक्षता मशहूर उस्ताद शायर श्री सीमाब सुल्तानपुरी ने की। विशिष्ट अतिथि के रूप में विधि भारती परिषद् की संस्थापक, वरिष्ठ साहित्यकार सुश्री संतोष खन्ना, विष्णु प्रभाकर संस्थान के संस्थापक, वरिष्ठ साहित्यकार श्री अतुल प्रभाकर और विख्यात शायर श्री मलिकज़ादा जावेद की गरिमामयी उपस्थिति एवं उनका काव्य पाठ सुनना अत्यन्त सुखद अनुभव रहे।
दोपहर में दिल्ली में वर्षा के कारण कार्यक्रम कुछ विलम्ब से आरम्भ हो पाया और समाप्त होते-होते साढ़े सात बज गये। अब भूख तो लग ही रही थी। रात्रि किसी ढाबे में भोजन के लिए रुकना बनता ही नहीं था। इस कारण विलम्ब होते हुए भी मैं समोसे और चने खाने से अपने-आपको रोक नहीं पाई। रात्रि आठ बजकर दस मिनट में दिल्ली से निकले और रात्रि 12.15 पर पंचकूला पहुंची।
किन्तु इस बीच दो दुर्घटनाएँ देखीं। एक कार पीछे से तेज़ गति से आ रही थी, चालक ने देख लिया और उसे रास्ता देने का प्रयास किया । वह तेज़ी से निकली किन्तु अनियन्त्रित हो चुकी थी। हमारी टैक्सी से बाईं ओर चल रहे ट्रक के सामने घूम गई, ट्रक चालक ने भी गति धीमी कर उसे बचाने का प्रयास किया किन्तु कार तेज़ी से घूमती हुई बाईं ओर बैरीकेड मोड़ से टकराई और तीन-चार बार पलटकर बड़े धुएँ के गुबार में खो गई। उसके बाद मेरी नींद उड़ गई। थोड़ी ही आगे जाने पर सड़क बीच में एक ट्रैक्टर ट्राली पलटी हुई थी। थकावट और टांगों में दर्द तो थी ही, मैंने जल्दी से पर्स से कांबीफ्लेम निकाली और खा ली, और फिर मैं सो गई।
इस बीच घर तो बात चल ही रही थी, वसुधा जी का भी दो बार कुशलता जानने के लिए फ़ोन आया। अपनी सारी व्यस्तताओं के बीच वे सबकी जानकारी ले रही थीं। ऐसे मित्र और ऐसा नेह कठिनाई से मिलता है, नेह बना रहे।
Share Me
बचाकर रखी है भीतर तरलता
कितना भी काट लो, कुछ है, जो जड़ें जमाये रखता है।
न भीतर से टूटने देता है, मन में इक आस बनाये रखता है।
बचाकर रखी है भीतर तरलता, नयी पौध तो पनपेगी ही,
धरा से जुड़े हैं तो कदम संभलेंगे, यह विश्वास जगाये रखता है ।
Share Me
नेह-जलधार हो
जीवन में
कुछ पल तो ऐसे हों
जो केवल
मेरे और तुम्हारे हों।
जलधि-सी अटूट
नेह-जलधार हो
रेत-सी उड़ती दूरियों की
दीवार हो।
जीवन में
कुछ पल तो ऐसे हों
जो केवल
मेरे और तुम्हा़रे हों।
Share Me
मन वन-उपवन में
यहीं कहीं
वन-उपवन में
घन-सघन वन में
उड़ता है मन
तिेतली के संग।
न गगन की उड़ान है
न बादलों की छुअन है
न चांद तारों की चाहत है
इधर-उधर
रंगों से बातें होती हैं
पुष्पों-से भाव
खिल- खिल खिलते हैं
पत्ती-पत्ती छूते हैं
तृण-कंटक हैं तो क्या,
वट-पीपल तो क्या,
सब अपने-से लगते हैं।
बस यहीं कहीं
आस-पास
ढूंढता है मन अपनापन
तितली के संग-संग
घूमता है मन
सुन्दर वन-उपवन में।