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अक्सर लगता है,
कुछ
निठ्ठलापन आ गया है।
वे ही सारे काम
जो खेल-खेल में
हो जाया करते थे,
पल भर में,
अब, दिनों-दिन
बहकने लगे हैं।
सुबह कब आती है,
शाम कब ढल जाती है,
आभास चला गया है।
अंधेरे -उजाले
एक-से लगने लगे हैं।
घर बंधन तो नहीं लगता,
किन्तु बंधे से रहते हैं,
फिर भी वे सारे काम,
जो खेल-खेल में
हो जाया करते थे,
अब, दिनों तक
टहलने लगे हैं।
समय बहुत है,
शायद यही एहसास
समय के महत्व को
समझने से रोकता है।
घड़ी के घंटों से
नहीं बंधे हैं अब।
न विलम्ब की चिन्ता,
न लम्बित कार्यों की।
मैं नहीं तो
कोई और कर लेगा,
मुझे चिन्ता नहीं।
खेल-खेल में
क्या समय का महत्व
घटने लगा है।
कहीं एक तकलीफ़ तो है,
बस शब्द नहीं हैं।
घड़ियां बन्द पड़ी हैं,
अब घड़ी से नहीं चलती ज़िन्दगी,
पर पता नहीं
समय कैसे कटने लगा है।
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स्वर्गिक सौन्दर्य रूप
रूईं के फ़ाहे गिरते थे हम हाथों से सहलाते थे।
वो हाड़ कंपाती सर्दी में बर्फ़ की कुल्फ़ी खाते थे।
रंग-बिरंगी दुनिया श्वेत चादर में छिप जाती थी,
स्वर्गिक सौन्दर्य-रूप, मन आनन्दित कर जाते थे।
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कितना मुश्किल होता है
कितना मुश्किल होता है
जब रोटी गोल न पकती है
दूध उफ़नकर बहता है
सब बिखरा-बिखरा रहता है।
तब बच्चा दिनभर रोता है
न खाता है न सोता है
मन उखड़ा-उखडा़ रहता है।
कितना मुश्किल होता है
जब पैसा पास न होता है
रोज़ नये तकाज़े सुनता
मन सहमा-सहमा रहता है।
तब आंखों में रातें कटती हैं
पल-भर काम न होता है
मन हारा-हारा रहता है।
कितना मुश्किल होता है,
जब वादा मिलने का करते हैं
पर कह देते हैं भूल गये,
मन तनहा-तनहा रहता है।
तब तपता है सावन में जेठ,
आंखों में सागर लहराता है
मन भीगा-भीगा रहता है ।
कितना मुश्किल होता है
जब बिजली गुल हो जाती है
रात अंधेरी घबराती है
मन डरा-डरा-सा रहता है।
तब तारे टिमटिम करते हैं
चांदी-सी रात चमकती है
मन हरषा-हरषा रहता है।
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ज़्यादा मत उड़
कौन सी वास्तविकता है
और कौन सा छल,
अक्सर असमंजस में रह जाती हूं।
रोज़ हर रोज़
समाचारों में गूंजती हैं आवाजे़ं
देखो हमने
नारी को
कहां से कहां पहुंचा दिया।
किसी ने चूल्हा बांटा ,
किसी ने गैस,
किसी की सब्सिडी छीनी
तो किसी की आस।
नौकरियां बांट रहे।
घर संवार रहे।
मौज करवा रहे।
स्टेटस दिलवा रहे।
कभी चांद पर खड़ी दिखी।
कभी मंच पर अड़ी दिखी।
आधुनिकता की सीढ़ी पर
आगे और आगे बढ़ी।
अपना यह चित्र देख अघाती नहीं।
अंधविश्वासों ,
कुरीतियों का विरोध कर
मदमाती रही।
प्रंशसा के अंबार लगने लगे।
तुम्हारे नाम के कसीदे
बनने लगे।
साथ ही सब कहने लगे
ऐसी औरतें घर-बार की रहती नहीं
पर तुम अड़ी रही
ज़रा भी डिगी नहीं।
-
ज़्यादा मत उड़ ।
कहीं भी हो आओ
लौटकर यहीं,
यही चूल्हा-चौका करना है।
परम्पराओं के नाम पर
घूंघट की ओट में जीना है।
और ऐसे ही मरना है।।।
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वहीं के वहीं खड़े हैं
क्यों पूछते हो
कहाँ आ गये।
अक्सर लगता है
जहाँ से चले थे
वहीं के वहीं खड़े हैं
कदम ठहरे से
भाव सहमे से
प्रश्न झुंझलाते से
उत्तर नाकाम।
न लहरों में
लहरें
न हवाओं में
सिरहन
न बातों में
मिठास
न अपनों से
अपनापन
भावहीन-सा मन
क्यों पूछते हो
कहाँ आ गये
एक अर्थहीन
ठहराव में जी रहे हैं
क्यों पूछते हो
कहाँ आ गये।
अक्सर लगता है
जहाँ से चले थे
वहीं के वहीं खड़े हैं।
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वैज्ञानिक भाषा को रोमन में लिखकर
शिक्षा से बाहर हुई, काम काज की भाषा नहीं, हम मानें या न मानें
हिन्दी की हम बात करें , बच्चे पढ़ते अंग्रेज़ी में, यह तो हम हैं जाने
विश्वगुरू बनने चले , अपने घर में मान नहीं है अपनी ही भाषा का
वैज्ञानिक भाषा को रोमन में लिखकर हम अपने को हिन्दीवाला मानें
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डर-डर कर जी रहे हैं
खुले आसमान के नीचे
विघ्न-बाधाओं को लांघकर
समुद्र मापकर
आकाश और धरा को नापकर,
हवाओं को बांधकर,
मानव समझ बैठा था
स्वयं को विधाता, सर्वशक्तिमान।
और आज
अपनी ही करनी से,
अपनी ही कथनी से,
अपने ही कर्मों से,
अपने लिए, आप ही,
तैयार कर लिया है कारागार।
सीमाओं में रहना सीख रहा है,
अपनापन अपनाना सीख रहा है।
उच्च विचार पता नहीं,
पर सादा जीवन जी रहा है।
इच्छाओं पर प्रतिबन्ध लगा है।
आशाओं पर तुषारापात हुआ है।
चाबी अपने पास है
पर खोलने से डरा हुआ है।
दूरियों में जी रहा है
नज़दीकियों से भाग रहा है।
हर पल मर-मर कर जी रहा है,
हर पल डर-डर कर जी रहा है।
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हम सब कैसे एक हैं
उलझता है बालपन
पूछता है कुछ प्रश्न
लिखा है पुस्तकों में
और पढ़ते हैं हम,
हम सब एक हैं,
हम सब एक हैं।
साथ-साथ रहते
साथ-साथ पढ़ते
एक से कपड़े पहन,
खाते-पीते , खेलते।
फिर आज
यह क्या हो गया
इसे हिन्दू बना दिया गया
मुझे मुसलमान
और इसे इसाई।
और कुछ मित्र बने हैं
सिख, जैनी, बौद्ध।
फिर कह रहे हैं
हम सब एक हैं।
बच्चे हैं हम।
समझ नहीं पा रहे हैं
कल तक भी तो
हम सब एक-से थे।
फिर आज
यूं
अलग-अलग बनाकर
क्यों कह रहे हैं
हम सब एक हैं,
हम सब एक हैं।
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तल से अतल तक
तल से अतल तक
धरा से गगन तक
विस्तार है मेरा
काल के गाल में
टूटते हैं
बिखरते हैं
अकेलेपन से जूझते हैं
फिर संवरते हैं।
बस
इसी आस में
जीवन संवरते हैं !!!!!
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आया कोरोना
घर में कहां से घुस आया कोरोना
हम जानते नहीं।
दूरियां थीं, द्वार बन्द थे,
डाक्टर मानते नहीं।
कहां हुई लापरवाही,
कहां से कौन लाया,
पता नहीं।
एक-एक कर पांचों विकेट गिरे,
अस्पताल के चक्कर काटे,
जूझ रहे,
फिर हुए खड़े,
हार हम मानते नहीं।
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ज़िन्दगी खुली मुट्ठी है या बन्द
अंगुलियां कभी मुट्ठी बन जाती हैं,
तो कभी हाथ।
कभी खुलते हैं,
कभी बन्द होते हैं।
कुछ रेखाएं इनके भीतर हैं,
तो कुछ बाहर।
-
रोज़ रात को
मुट्ठियों को
ठीक से
बन्द करके सोती हूं,
पर प्रात:
प्रतिदिन
खुली ही मिलती हैं।
-
देखती हूं,
कुछ रेखाएं नई,
कुछ बदली हुईं,
कुछ मिट गईं।
-
फिर दिन भर
अंगुलियां ,
कभी मुट्ठी बन जाती हैं,
तो कभी हाथ।
कभी खुलते हैं,
कभी बन्द होते हैं।
-
यही ज़िन्दगी है।