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बस दो अक्षर का फेर है और भाव बदल जाता है
दिल को छू जाये बात तो अंदाज़ बदल जाता है
अपमान-सम्मान की परिभाषा क्या करे कोई
साथ-साथ चलते हैं दोनों, कौन समझ पाता है
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गूगल गुरू घंटाल
कम्प्यूटर जी गुरू हो गये, गूगल गुरू घंटाल
छात्र हो गये हाई टैक, गुरू बैठै हाल-बेहाल
नमन करें या क्लिक करें, समझ से बाहर बात
स्मार्ट बोर्ड, टैबलैट,पी सी, ई पुस्तक में उलझे
अपना ज्ञान भूलकर, घूम रहे, ले कंधे बेताल
आॅन-लाईन शिक्षा बनी यहाँ जी का जंजाल
लैपटाॅप खरीदे नये-नये, मोबाईल एंड््रायड्
गूगल बिन ज्ञान अधूरा यह ले अब तू जान
गुरुओं ने लिंक दिये, नैट ने ले लिए प्राण
रोज़-रोज़ चार्ज कराओ, बिल ने ले ली जान
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पत्थरों में भगवान ढूंढते हैं
इंसान बनते नहीं,
पत्थर गढ़ते हैं,
भाव संवरते नहीं
पूजा करते हैं,
इंसानियत निभाते नहीं
निर्माण की बात करते हैं।
सिर ढकने को
छत दे सकते नहीं
आकाश छूती
मूर्तियों की बात करते हैं।
पत्थरों में भगवान
ढूंढते हैं
अपने भीतर की इंसानियत
को मारते हैं।
* * * *
अपने भीतर
एक विध्वंस करके देख।
कुछ पुराना तोड़
कुछ नया बनाकर देख।
इंसानियत को
इंसानियत से जोड़कर देख।
पतझड़ में सावन की आस कर।
बादलों में
सतरंगी आभा की तलाश कर।
झड़ते पत्तों में
नवीन पंखुरियों की आस देख।
कुछ आप बदल
कुछ दूसरों से आस देख।
बस एक बार
अपने भीतर की कुण्ठाओं,
वर्जनाओं, मृत मान्यताओं को
तोड़ दे
समय की पुकार सुन
अपने को बदलने का साहस गुन।
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मन न जाने कहां-कहां-तिरता है
इस एकान्त में
एक अपनापन है,
फूलों-पत्तियों में
मेरे मन का चिन्तन है।
कुछ हरे-भरे,
कुछ गिरे-पड़े,
कुछ डाली से टूटे,
और कुछ मानों कलियों-से
अधजीवन में ही
अपनेपन से छूटे।
लकड़ी की नैया पर बैठे-बैठे
मन न जाने कहां-कहां-तिरता है।
इस निश्चल, निश्छल जल में
अपनी प्रतिच्छाया ढूंढता है।
कुछ उलटता है, कुछ पलटता है
डूबता-उतरता है,
फिर लौटता है
सहज-सहज
एक मधुर मुस्कान के साथ।
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जल-विभाग इन्द्र जी के पास
मेरी जानकारी के अनुसार
जल-विभाग
इन्द्र जी के पास है।
कभी प्रयास किया था उन्होंने
गोवर्धन को डुबाने का
किन्तु विफ़ल रहे थे।
उस युग में
कृष्ण जी थे
जिन्होंने
अपनी कनिष्का पर
गोवर्धन धारण कर
बचा लिया था
पूरे समाज को।
.
किन्तु इन्द्र जी,
इस काल में कोई नहीं
जो अपनी अंगुली दे
समाज हित में।
.
इसलिए
आप ही से
निवेदन है,
अपने विभाग को
ज़रा व्यवस्थित कीजिए
काल और स्थान देखकर
जल की आपूर्ति कीजिए,
घटाओं पर नियन्त्रण कीजिए
कहीं अति-वृष्टि
कहीं शुष्कता को
संयमित कीजिए
न हो कहीं कमी
न ज़्यादती,
नदियाँ सदानीरा
और धरा शस्यश्यामला बने,
अपने विभाग को
ज़रा व्यवस्थित कीजिए।
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कैसे होगा तारण
आज डूबने का मन है कहां डूबें बता रे मन
सागर-दरिया में जल है किन्तु वहां है मीन
जो कर्म किये बैठे हैं इस जहां में हम लोग
चुल्लू-भर पानी में डूब मरें तभी तो होगा तारण
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अन्तर्मन की आवाजें
अन्तर्मन की आवाजें अब कानों तक पहुंचती नहीं
सन्नाटे को चीरकर आती आवाजें अन्तर्मन को भेदती नहीं
यूं तो पत्ता भी खड़के, तो हम तलवार उठा लिया करते हैं
पर बडे़-बडे़ झंझावातों में उजडे़ चमन की बातें झकझोरती नहीं
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चूड़ियां उतार दी मैंने
चूड़ियां उतार दी मैंने, सब कहते हैं पहनने वाली नारी अबला होती है
यह भी कि प्रदर्शन-सजावट के पीछे भागती नारी कहां सबला होती है
न जाने कितनी कहावतें, मुहावरे बुन दिये इस समाज ने हमारे लिये
सहज साज-श्रृंगार भी यहां न जाने क्यों बस उपहास की बात होती है
चूड़ी की हर खनक में अलग भाव होते हैं,कभी आंसू, कभी हास होते हैं
कभी न समझ सका कोई, यहां तो नारी की हर बात उपहास होती है
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कहां गई वह गिद्ध-दृष्टि
बने बनाये मुहावरों के फेर में पड़कर हम यूं ही गिद्धों को नोचने में लगे हैं
पर्यावरणिकों से पूछिये ज़रा, गिद्धों की कमी से हम भी तो मरने लगे हैं
कहां गई हमारी वह गिद्ध-दृष्टि जो अच्छे और बुरे को पहचानती थी
स्वच्छता-अभियान के इस महानायक को हम यूं ही कोसने में लगे हैं
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इसे कहते हैं एक झाड़ू
कभी थामा है झाड़ू हाथ में
कभी की है सफ़ाई अंदर-बाहर की
या बस एक फ़ोटो खिंचवाई
और चल दिये।
साफ़ सड़कों की सफ़ाई
साफ़ नालियों की धुलाई
इन झकाझक सफ़ेद कपड़ों पर
एक धब्बा न लगा।
कभी हलक में हाथ डालकर
कचरा निकालना पड़े
तो जान जाती है।
कभी दांत में अटके तिनके को
तिनके से निकालना पड़े तो
जान हलक में अटक जाती है।
हां, मुद्दे की बात करें,
कल को होगी नीलामी
इस झाड़ू की,
बिकेगा लाखों-करोड़ों में
जिसे कोई काले धन का
कचरा जमा करने वाला
सम्माननीय नागरिक
ससम्मान खरीदेगा
या किसी संग्रहालय में रखा जायेगा।
देखेगी इसे अगली पीढ़ी
टिकट देकर, देखो-देखो
इसे कहते हैं एक झाड़ू
पिछली सदी में
साफ़ सड़कों पर कचरा फैलाकर
साफ़ नालियों में साफ़ पानी बहाकर
एक स्वच्छता अभियान का
आरम्भ किया गया था।
लाखों नहीं
शायद करोड़ों-करोड़ों रूपयों का
अपव्यय किया गया था
और सफ़ाई अभियान के
वास्तविक परिचालक
पीछे कहीं असली कचरे में पड़े थे
जिन्होंने अवसर पाते ही
बड़ों-बड़ों की कर दी थी सफ़ाई
किन्तु जिन्हें अक्ल न आनी थी
न आई !!!!!
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कर्तव्य श्री
दृश्य एकः
श्री जी की पत्नी का निधन हो गया। अपने पीछे दो बच्चे छोड़ गई। माता-पिता बूढ़े थे, बच्चे छोटे-छोटे। बूढ़े-बुढ़िया से अपना शरीर तो संभलता न था बच्चे और घर कहां संभाल पाते। और श्री जी अपनी नौकरी देखें, बच्चे संभाले या बूढे़-बुढ़िया की सेवा करें।
बड़ी समस्या हुई। कभी भूखे पेट सोते, कभी बाहर से गुज़ारा करते। श्री जी से सबकी सहानुभूति थी। कभी सासजी आकर घर संभालती, कभी सालियांजी, कभी भाभियांजी और कभी बहनेंजी। पर आखिर ऐसे कितने दिन चलता। आदमी आप तो कहीं भी मुंह मार ले पर ये बूढ़े-बुढ़िया और बच्चे।
अन्ततः सबने समझाया और श्री जी की भी समझ में आया। रोटी बनाने वाली, बच्चों कोे सम्हालने वाली, घर की देखभाल करने वाली और बूढ़े-बुढ़िया की देखभाल करने वाली कोई तो होनी ही चाहिए। भला, आदमी के वश का कहां है ये सब। वह नौकरी करे या ये सब देखे। सो मज़बूर होकर महीने भर में ही लानी पड़ी।
और इस तरह श्री जी की जिन्दगी अपने ढर्रे पर चल निकली।
‘अथ सर्वशक्तिमान पुरुष’
दृश्य दोः
श्रीमती जी के पति का निधन हो गया। अपने पीछे दो बच्चे छोड़ गये। सास-ससुर बूढ़े थे। बच्चे छोटे-छोटे। श्रीमती जी स्वयं अभी बच्चा-सी दिखतीं। दसवीं की नहीं कि माता-पिता पर भारी हो गई। शहर में लड़का मिल गया सरकारी नौकर, घर ठीक-ठाक-सा। बस झटपट शादी कर दी। अब यह पहाड़ टूट पड़ा। कभी दहलीज न लांघी थी, सिर से पल्लू न हटा था। पर अब कमाकर खिलाने वाला कोई न रहा। बूढ़े-बुढ़िया से अपना शरीर तो संभलता न था, करते-कमाते क्या ? भूखांे मरने की नौबत दिखने लगी।
अब नाते-रिश्तेदार भी क्या करें ? सबका अपना-अपना घर, बाल-बच्चे, काम और नौकरियां, आखिर कौन कितने दिन तक साथ देता। सब एक-दूसरे से पहले खिसक जाना चाहते थे। कहीं ये बूढ़े-बुढ़िया, श्रीमतीजी या बच्चे किसी का पल्लू न पकड़ लें।
अन्ततः श्रीमती जी स्वयं उठीं। पल्लू सिर से उतारकर कमर में कसा। पति के कार्यालय जाकर खड़ी हो गईं नौकरी पाने के लिए।
अभी महीना भी न बीता था कि श्रीमतीजी लगी दफ्तर में कलम चलाने। प्रातः पांच बजे उठकर घर संवारतीं, बूढ़े-बुढ़िया की आवश्यकताएं पूरी करती। बच्चों को स्कूल भेजतीं। खाना-वाना बनाकर दस बजे दफ््तर पहुंच जाती, दिन-भर वहां कलम घिसतीं। शाम को बच्चों का पढ़ातीं। घर-बाहर देखतीं, राशन-पानी जुटाती, दुनियादारी निभातीं। खाती-खिलाती औेर सो जातीं।
और इस तरह श्रीमतीजी की जिन्दगी अपने ढर्रे पर चल निकली।
‘बेचारी कमज़ोर औरत’