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अपनी छाया को अक्सर नकार जाते हैं हम।
कभी ध्यान से देखें
तो बहुत कुछ कह जाती है।
डरते हैं हम अपने अकेलेपन से।
किन्तु साथ-साथ चलते-चलते
न जाने क्या-क्या बता जाती है।
अपनी अन्तरात्मा को तो
बहुत पुकारते हैं हम,
किन्तु अपनी ही प्रतिच्छाया को
नकारते हैं हम।
नि:शब्द साथ-साथ चलते,
बहुत कुछ समझा जाती है।
हम अक्सर समझ नहीं पाते,
किन्तु अपने आकार में छाया
बहुत कुछ बोल जाती है।
कदम-दर-कदम,
कभी आगे कभी पीछे,
जीवन के सब मोड़ समझाती है।
छोटी-बड़ी होती हुई ,
दिन-रात, प्रकाश-तम के साथ,
अपने आपको ढालती जाती है।
जीवन परिवर्तन का नाम है।
कभी सुख तो कभी दुख,
जीवन में आवागमन है।
समस्या बस इतनी सी
कि हम अपना ही हाथ
नहीं पकड़ते
ज़माने भर का सहारा ढूंढने निकल पड़ते हैं।
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रेखाओं का खेल है प्यारे
रेखाओं का खेल है प्यारे, कुछ शब्दों में ढल जाते हैं कुछ आकारों में
कुछ चित्रों को कलम बनाती, कुछ को उकेरती तूलिका विचारों में
भावों का संसार विचित्र, स्वयं समझ न पायें, औरों को क्या समझायें
न रूप बने न रंग चढ़े, उलझे-सुलझे रह जाते हैं अपने ही उद्गारों में
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आज़ादी की क्या कीमत
कहां समझे हम आज़ादी की क्या कीमत होती है।
कहां समझे हम बलिदानों की क्या कीमत होती है।
मिली हमें बन्द आंखों में आज़ादी, झोली में पाई हमने
कहां समझे हम राष्ट््भक्ति की क्या कीमत होती है।
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ढोल की थाप पर
संगीत के स्वरों में कुछ रंग ढलते हैं
मनमीत के संग जीवन के पल संवरते हैं
ढोल की थाप पर तो नाचती है दुनिया
हम आनन्द के कुछ पल सृजित करते हैं।
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विश्वास का एहसास
हर दिन रक्षा बन्धन का-सा हो जीवन में
हर पल सुरक्षा का एहसास हो जीवन में
कच्चे धागों से बंधे हैं जीवन के सब रिश्ते
इन धागों में विश्वास का एहसास हो जीवन में
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छोड़ दो अब मुफ्त की बात
क्या तुम्हारी शिक्षा
क्या आयु
कितनी आय
कौन-सी नौकरी
कौन-सा आरक्षण
और इस सबका क्या आधार ?
अनुत्तरित हैं सब प्रश्न।
यह कौन सी आग है
जो अपने-आप को ही जला रही है।
कैसे भूल सकते हैं हम
तिनका-तिनका जोड़कर
बनता है एक घरौंदा।
शताब्दियों से लूटे जाते रहे हम
आततायियों से।
जाने कहां से आते थे
और देश लूटकर चले जाते थे,
अपनों से ही युद्धों में
झोंक दिये जाते थे हम।
कैसे निकले उस सबसे बाहर
फिर शताब्दियां लग गईं,
कैसे भूल सकते हैं हम।
और आज !
अपना ही परिश्रम,
अपनी ही सम्पत्ति
अपना ही घर फूंक रहे हैं हम।
अपने ही भीतर
आततायियों को पाल रहे हैं हम।
किसके झांसे में आ गये हैं हम।
न शिक्षा चाहिए
न विकास, न उद्यम।
खैरात में मिले, नाम बाप के मिले
एक नौकरी सरकारी
धन मिले, घर मिले,
अपना घर फूंककर मिले,
मरे की मिले
या जिंदा दफ़न कर दें तो मिले
लाश पर मिले, श्मशान में मिले
कफ़न बेचकर मिले
बस मुफ्त की मिले
बस जो भी मिले, मुफ्त ही मिले
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हिन्दी कहां गई कि इसको अपना मनवाना है
हिन्दी कहां गई कि इसको अपना मनवाना है
हिन्दी मेरा मान है,
मेरा भारत महान है।
घूमता जहान है।
किसकी भाषा,
कौन सी भाषा,
किसको कितना ज्ञान है।
जबसे जागे
तब से सुनते,
हिन्दी को अपनाना है।
समझ नहीं पाई आज तक
कहां से इसको लाना है।
जब है ही अपनी
तो फिर से क्यों अपनाना है।
कहां गई थी चली
कि इसको
फिर से अपना मनवाना है।
’’’’’’’’’.’’’’’’
कुछ बातें
समय के साथ
समझ से बाहर हो जाती हैं,
उनमें हिन्दी भी एक है।
काश! कविताएं लिखने से,
एक दिन मना लेने से,
महत्व बताने से,
किसी का कोई भला हो पाता।
मिल जाती किसी को सत्ता,
खोया हुआ सिंहासन,
जिसकी नींव
पिछले 72 वर्षों से
कुरेद रहे हैं।
अपनी ही
भाषाओं और बोलियों के बीच
सत्ता युद्ध करवा रहे हैं।
कबूतर के आंख बंद करने मात्र से
बिल्ली नहीं भाग जाती।
काश!
यह बात हमारी समझ में आ जाती,
चलने दो यारो
जैसा चल रहा है।
हां, हर वर्ष
दो-चार कविताएं लिखने का मौका
ज़रूर हथिया ले लेना
और कोई पुरस्कार मिले
इसका भी जुगाड़ बना लेना।
फिर कहना
हिन्दी मेरा मान है,
मेरा भारत महान है।
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सरस-सरस लगती है ज़िन्दगी
जल सी भीगी-भीगी है ज़िन्दगी
कहीं सरल, कहीं धीमे-धीमे
आगे बढ़ती है ज़िन्दगी।
तरल-तरल भाव सी
बहकती है ज़िन्दगी
राहों में धार-सी बहती है ज़िन्दगी
चलें हिल-मिल
कितनी सुहावनी लगती है ज़िन्दगी
किसी और से क्या लेना
जब आप हैं हमारे साथ ज़िन्दगी
आज भीग ले अन्तर्मन,
कदम-दर-कदम
मिलाकर चलना सिखाती है ज़िन्दगी
राहें सूनी हैं तो क्या,
तुम साथ हो
तब सरस-सरस लगती है ज़िन्दगी।
आगे बढ़ते रहें
तो आप ही खुलने लगती हैं मंजिलें ज़िन्दगी
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एक संस्मरण आम का अचार
आम का अचार डालना भी
एक पर्व हुआ करता था परिवार में।
आम पर बूर पड़ने से पहले ही
घर भर में चर्चा शुरू हो जाती थी।
इतनी चर्चा, इतनी बात
कि होली दीपावली पर्व भी फीके पड़ जायें।
परिवार में एक शगुन हुआ करता था
आम का अचार।
इस बार कितने किलो डालना है अचार
कितनी तरह का।
कुतरा भी डलेगा, और गुठली वाला भी
कतौंरा किससे लायेंगे
फिर थोड़ी-सी सी चटनी भी बनायेंगे।
तेल अलग से लाना होगा
मसाले मंगवाने हैं, धूप लगवानी है
पिछली बार मर्तबान टूट गया था
नया मंगवाना है।
तनाव में रहती थी मां
गर्मी खत्म होने से पहले
और बरसात शुरू होने से पहले
डालना है अचार।
और हम प्रतीक्षा करते थे
कब आयेंगे घर में अचार के आम।
और जब आम आ जाते थे घर में
सुच्चेपन का कर्फ्यू लग जाता था।
और हम आंख बचाकर
दो एक आम चुरा ही लिया करते थे
और चाहते थे कि दो एक आम
तो पके हुए निकल आयें
और हमारे हवाले कर दिये जायें।
लाल मिर्च और नमक लगाकर
धूप में बैठकर दांतों से गुठलियां रगड़ते
और मां चिल्लाती
“ओ मरी जाणयो दंद टुटी जाणे तुहाड़े”।
और जब नया अचार डल जाता था
तो पूरा घर एक आनन्द की सांस लेता था
और दिनों तक महकता था घर
और जब नया अचार डल जाता था
तब दिनों दिनों तक महकता था घर
उस खुशनुमा एहसास और खुशबू से
और जब नया अचार डल जाता था
मानों कोई किला फ़तह कर लिया जाता था।
और उस रात बड़ी गहरी नींद सोती थी मां।
अब चिन्ता शुरू हो जाती थी
खराब न हो जाये
रोज़ धूप लगवानी है
सीलन से बचाना है
तेल डलवाना है।
फिर पता नहीं किस जादुई कोने से
पिछले साल के अचार का एक मर्तबान
बाहर निकल आता था।
मां खूब हंसती तब
छिपा कर रख छोड़ा था
आने जाने वालों के लिए
तुम तो एक गुठली नहीं छोड़ते।
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कौन जाने सच
सुना है
बड़ी मछली
छोटी मछली को
खा जाती है।
शायद, या नहीं,
या पता नहीं।
यह मुहावरा है,
अथवा वास्तविकता,
कौन जाने।
क्योंकि, जब भी बात उठती है
तो, हम
मनुष्यों के सन्दर्भ में ही उठती है।
मछलियों को तो
यूं ही बदनाम कर बैठे हैं हम।
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मेरी वीणा के तारों में ऐसी झंकार
काल की रेखाओं में
सुप्त होकर रह गये थे
मेरे मन के भाव।
दूरियों ने
मन रिक्त कर दिया था
सिक्त कर दिया था
आहत भावनाओं ने।
बसन्त की गुलाबी हवाएँ
उन्मादित नहीं करतीं थीं
न सावन की घटाएँ
पुकारती थीं
न सुनाती थीं प्रेम कथाएँ।
कोई भाव
नहीं आता था मन में
मधुर-मधुर रिमझिम से।
अपने एकान्त में
नहीं सुनना चाहती थी मैं
कोई भी पुकार।
.
किन्तु अनायास
मन में कुछ राग बजे
आँखों में झिलमिल भाव खिले
हुई अंगुलियों में सरसराहट
हृदय प्रकम्पित हुआ,
सुर-साज सजे।
तो क्या
वह लौट आया मेरे जीवन में
जिसे भूल चुकी थी मैं
और कौन देता
मेरी वीणा के तारों में
ऐसी झंकार।