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आसमान में तिरता हूँ मैं।
धरा को निहारता हूँ मैं।
अपना साहस परखता हूँ मैं।
मंज़िल पाने के लिए
खतरों से खेलता हूँ मैं।
यूँ भी जीवन का क्या भरोसा
लेकिन अपने भरोसे
आगे बढ़ता ही बढ़ता हूँ मैं।
हवाएँ घेरती हैं मुझे,
ज़माने की हवाओं को
परखता हूँ मैं।
साथी नहीं, हमसफ़र नहीं
अकेले ही
अपनी राहों को
तलाशता हूँ मैं।
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टूटे घरों में कोई नहीं बसता
दिल न हुआ,
कोई तरबूज का टुकड़ा हो गया ।
एक इधर गया,
एक उधर गया,
इतनी सफाई से काटा ,
कि दिल बाग-बाग हो गया।
-
जिसे देखो
आजकल
दिल हाथ में लिए घूमते हैं ,
ज़रा सम्हाल कर रखिए अपने दिल को,
कभी कभी अजनबी लोग,
दिल में यूं ही घर बसा लिया करते हैं,
और फिर जीवन भर का रोग लगा जाते हैं ।
-
वैसे दिल के टुकड़े कर लिए
आराम हो गया ।
न किसी के इंतज़ार में हैं ।
न किसी के दीदार में हैं ।
टूटे घरों में कोई नहीं बसता ।
जीवन में एक ठीक-सा विराम हो गया ।
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दाना डाला जाल बिछाया
नदी किनारे बैठे बैठे मन में आया चल डूब मरें
फिर देखा मीन बड़ी बड़ी, सोचा मस्ती खूब करें
दाना डाला, जाल बिछाया, सारे हथकंडे अपनाये
पकड़ी तो नकली निकली, आप न ऐसी भूल करें
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प्रणाम तुम्हें करती हूं
हे भगवान!
इतना उंचा मचान।
सारा तेरा जहान।
कैसी तेरी शान ।
हिमगिरि के शिखर पर
बैठा तू महान।
कहते हैं
तू कण-कण में बसता है।
जहां रहो
वहीं तुझमें मन रमता है।
फिर क्यों
इतने उंचे शिखरों पर
धाम बनाया।
दर्शनों के लिए
धरा से गगन तक
इंसान को दौड़ाया।
ठिठुरता है तन।
कांपता है मन।
हिम गिरता है।
शीत में डरता है।
मन में शिवधाम सृजित करती हूं।
यहीं से प्रणाम तुम्हें करती हूं।
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युगे-युगे
मां ने कहा मीठे वचन बोलाकर
अमृत होता है इनमें
सुनने वाले को जीवन देते हैं ।
-
पिता ने कहा
चुप रहा कर
ज़माने की धार-से बोलने लगी है अभी से।
वैसे भी
लड़कियों का कम बोलना ही
अच्छा होता है।
-
यह सब लिखते हुए
मैं बताना तो नहीं चाहती थी
अपनी लड़की होने की बात।
क्योंकि यह पता लगते ही
कि बात कहने वाली लड़की है,
सुनने वाले की भंगिमा
बदल जाती है।
-
पर अब जब बात निकल ही गई,
तो बता दूं
लड़की नहीं, शादीशुदा ओैरत हूं मैं।
-
पति ने कहा,
कुछ पढ़ा-लिखाकर,
ज़माने से जुड़।
अखबार,
बस रसोई में बिछाने
और रोटी बांधने के लिए ही नहीं होता,
ज़माने भर की जानकारियां होती हैं इसमें,
कुछ अपना दायरा बढ़ा।
-
मां की गोद में थी
तब मां की सुनती थी।
पिता का शासनकाल था
तब उनका कहना माना।
और अब, जब
पति-परमेश्वर कह रहे हैं
तब उनका कहना सिर-माथे।
मां के दिये, सभी धर्म-ग्रंथ
उठाकर रख दिये मैंने ताक पर,
जिन्हें, मेरे समाज की हर औरत
पढ़ती चली आई है
पतिव्रता,
सती-सीता-सावित्री बनने के लिए।
और सुबह की चाय के साथ
समाचार बीनने लगी।
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माईक्रोवेव के युग में
मेरी रसोई
मिट्टी के तेल के पीपों से भर गई।
मेरा सारा घर
आग की लपटों से घिर गया।
आदिम युग में
किस तरह भूना जाता होगा
मादा ज़िंदा मांस,
मेरी जानकारी बढ़ी।
औरत होने के नाते
मेरी भी हिस्सेदारी थी इस आग में।
किन्तु, कहीं कुछ गलत हो गया।
आग, मेरे भीतर प्रवेश कर गई।
भागने लगी मैं पानी की तलाश में।
एक फावड़ा ओैर एक खाली घड़ा
रख दिया गया मेरे सामने
जा, हिम्मत है तो कुंआं खोद
ओैर पानी ला।
भरे कुंएं तो कूदकर जान देने के लिए होते हैं।
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अविवाहित युवतियां
लड़के मांगती हैं मुझसे।
पैदाकर ऐसे लड़के
जो बिना दहेज के शादी कर लें।
या फिर रोज़-रोज़ की नौटंकी से तंग आकर
आत्महत्या के बारे में
विमर्श करती हैं मेरे घर के पंखों से।
मैं पंखे हटा भी दूं,
तो और भी कई रास्ते हैं विमर्श के।
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मेरे द्वार पर हर समय
खट्-खट् होने लगी है।
घर से निकाल दी गई औरतें
रोती हैं मेरे द्वार पर,
शरण मांगती हैं रात-आधी रात।
टी वी, फ्रिज, स्कूटर,
पैसा मांगती हैं मुझसे।
आदमी की भूख से कैसे निपटें
राह पूछती हैं मुझसे।
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मेरे घर में
औरतें ही औरतें हो गईं हैं।
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बीसियों बलात्कारी औरतों के चेहरे
मेरे घर की दीवारों पर
चिपक गये हैं तहकीकात के लिए।
पुलिसवाले,
कोंच-कोंचकर पूछ रहे हैं
उनसे उनकी कहानी।
फिर करके पूछते हैं,
ऐसे ही हुआ था न।
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निरीह बच्चियां
बार-बार रास्ता भूल जाती हैं
स्कूल का।
ओढ़ने लगती हैं चूनरी।
मां-बाप इत्मीनान की सांस लेते हैं।
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अस्पतालों में छांटें जाते हैं
लड़के ओैर लड़कियां।
लड़के घर भेज दिये जाते हैं
और लड़कियां
पुनर्जन्म के लिए।
-
अपने ही चाचा-ताउ से
चचेरों-ममेरों से, ससुर-जेठ
यानी जो भी नाते हैं नर से
बचकर रहना चाहिए
कब उसे किससे ‘काम’ पड़े
कौन जाने
फिर पांच वर्ष की बच्ची हो
अथवा अस्सी वर्ष की बुढ़िया
सब काम आ जाती है।
यह मैं क्या कर बैठी !
यूंही सबकी मान बैठती हूं।
कुछ अपने मन का करती।
कुछ गुनती, कुछ बुनती, कुछ गाती।
कुछ सोती, कुछ खाती।
मुझे क्या !
कोई मरे या जिये,
मस्तराम घोल पताशा पीये।
यही सोच मैंने छोड़ दी अखबार,
और इस बार, अपने मन से
उतार लिए,
ताक पर से मां के दिये सभी धर्मग्रंथ।
पर यह कैसे हो गया?
इस बीच,
अखबार की हर खबर
यहां भी छप चुकी थी।
यहां भी तिरस्कृत,
घर से निकाली जा रहीं थीं औरतेंै
अपहरण, चीरहरण की शिकार,
निर्वासित हो रही थीं औरतें।
शिला और देवी बन रहीं थीं औरतें।
अंधी, गूंगी, बहरीं,
यहां भी मर रहीं थीं औरतें।
-
इस बीच
पूछ बैठी मुझसे
मेरी युवा होती बेटी
मां क्या पढूं मैं।
मैं खबरों से बाहर लिकली,
बोली,
किसी का बताया
कुछ मत पढ़ना, कुछ मत करना।
जिन्दगी आप पढ़ायेगी तुझे पाठ।
बनी-बनाई राहों पर मत चलना।
किसी के कदमों का अनुगमन मत करना।
जिन्दगी का पाठ आप तैयार करना।
छोड़कर जाना अपने कदमों के निशान
कि सारा इतिहास, पुराण
और धर्म मिट जाये।
मिट जाये वर्तमान।
और मिट जाये
भविप्य के लिए तैयार की जा रही आचार-संहिता,
जिसमें सती, श्रापित, अपमानित
होती हैं औरतें।
शिला मत बनना।
बनाकर जाना शिलाएं ,
कि युग बदल जाये।
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आशाओं का सूरज
ये सूरज मेरी आशाओं का सूरज है
ये सूरज मेरे दु:साहस का सूरज है
सीढ़ी दर सीढ़ी कदम उठाती हूं मैं
ये सूरज तम पर मेरी विजय का सूरज है
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जीवन की पुस्तकें
कुछ बुढ़ा-सी गई हैं पुस्तकें।
भीतर-बाहर
बिखरी-बिखरी-सी लगती हैं,
बेतरतीब।
.
किन्तु जैसे
बूढ़ी हड्डियों में
बड़ा दम होता है,
एक वट-वृक्ष की तरह
छत्रछाया रहती है
पूरे परिवार के सुख-दुख पर।
उनकी एक आवाज़ से
हिलती हैं घर की दीवारें,
थरथरा जाते हैं
बुरी नज़र वाले।
देखने में तो लगते हैं
क्षीण काया,
जर्जर होते भवन-से।
किन्तु उनके रहते
द्वार कभी सूना नहीं लगता।
हर दीवार के पीछे होती है
जीवन की पूरी कहानी,
अध्ययन-मनन
और गहन अनुभवों की छाया।
.
जीवन की इन पुस्तकों को
चिनते, सम्हालते, सजाते
और समझते,
जीवन बीत जाता है।
दिखने में बुढ़उ सी लगती हैं,
किन्तु दम-खम इनमें भी होता है।
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कर्तव्य श्री
दृश्य एकः
श्री जी की पत्नी का निधन हो गया। अपने पीछे दो बच्चे छोड़ गई। माता-पिता बूढ़े थे, बच्चे छोटे-छोटे। बूढ़े-बुढ़िया से अपना शरीर तो संभलता न था बच्चे और घर कहां संभाल पाते। और श्री जी अपनी नौकरी देखें, बच्चे संभाले या बूढे़-बुढ़िया की सेवा करें।
बड़ी समस्या हुई। कभी भूखे पेट सोते, कभी बाहर से गुज़ारा करते। श्री जी से सबकी सहानुभूति थी। कभी सासजी आकर घर संभालती, कभी सालियांजी, कभी भाभियांजी और कभी बहनेंजी। पर आखिर ऐसे कितने दिन चलता। आदमी आप तो कहीं भी मुंह मार ले पर ये बूढ़े-बुढ़िया और बच्चे।
अन्ततः सबने समझाया और श्री जी की भी समझ में आया। रोटी बनाने वाली, बच्चों कोे सम्हालने वाली, घर की देखभाल करने वाली और बूढ़े-बुढ़िया की देखभाल करने वाली कोई तो होनी ही चाहिए। भला, आदमी के वश का कहां है ये सब। वह नौकरी करे या ये सब देखे। सो मज़बूर होकर महीने भर में ही लानी पड़ी।
और इस तरह श्री जी की जिन्दगी अपने ढर्रे पर चल निकली।
‘अथ सर्वशक्तिमान पुरुष’
दृश्य दोः
श्रीमती जी के पति का निधन हो गया। अपने पीछे दो बच्चे छोड़ गये। सास-ससुर बूढ़े थे। बच्चे छोटे-छोटे। श्रीमती जी स्वयं अभी बच्चा-सी दिखतीं। दसवीं की नहीं कि माता-पिता पर भारी हो गई। शहर में लड़का मिल गया सरकारी नौकर, घर ठीक-ठाक-सा। बस झटपट शादी कर दी। अब यह पहाड़ टूट पड़ा। कभी दहलीज न लांघी थी, सिर से पल्लू न हटा था। पर अब कमाकर खिलाने वाला कोई न रहा। बूढ़े-बुढ़िया से अपना शरीर तो संभलता न था, करते-कमाते क्या ? भूखांे मरने की नौबत दिखने लगी।
अब नाते-रिश्तेदार भी क्या करें ? सबका अपना-अपना घर, बाल-बच्चे, काम और नौकरियां, आखिर कौन कितने दिन तक साथ देता। सब एक-दूसरे से पहले खिसक जाना चाहते थे। कहीं ये बूढ़े-बुढ़िया, श्रीमतीजी या बच्चे किसी का पल्लू न पकड़ लें।
अन्ततः श्रीमती जी स्वयं उठीं। पल्लू सिर से उतारकर कमर में कसा। पति के कार्यालय जाकर खड़ी हो गईं नौकरी पाने के लिए।
अभी महीना भी न बीता था कि श्रीमतीजी लगी दफ्तर में कलम चलाने। प्रातः पांच बजे उठकर घर संवारतीं, बूढ़े-बुढ़िया की आवश्यकताएं पूरी करती। बच्चों को स्कूल भेजतीं। खाना-वाना बनाकर दस बजे दफ््तर पहुंच जाती, दिन-भर वहां कलम घिसतीं। शाम को बच्चों का पढ़ातीं। घर-बाहर देखतीं, राशन-पानी जुटाती, दुनियादारी निभातीं। खाती-खिलाती औेर सो जातीं।
और इस तरह श्रीमतीजी की जिन्दगी अपने ढर्रे पर चल निकली।
‘बेचारी कमज़ोर औरत’
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गूगल गुरू घंटाल
कम्प्यूटर जी गुरू हो गये, गूगल गुरू घंटाल
छात्र हो गये हाई टैक, गुरू बैठै हाल-बेहाल
नमन करें या क्लिक करें, समझ से बाहर बात
स्मार्ट बोर्ड, टैबलैट,पी सी, ई पुस्तक में उलझे
अपना ज्ञान भूलकर, घूम रहे, ले कंधे बेताल
आॅन-लाईन शिक्षा बनी यहाँ जी का जंजाल
लैपटाॅप खरीदे नये-नये, मोबाईल एंड््रायड्
गूगल बिन ज्ञान अधूरा यह ले अब तू जान
गुरुओं ने लिंक दिये, नैट ने ले लिए प्राण
रोज़-रोज़ चार्ज कराओ, बिल ने ले ली जान
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मज़दूर दिवस मनाओ
तुम मेरे लिए
मज़दूर दिवस मनाओ
कुछ पन्ने छपवाओ
दीवारों पर लगवाओ
सभाओं का आयोजन करवाओ
मेरी निर्धनता, कर्मठता
पर बातें बनाओ।
मेरे बच्चों की
बाल-मज़दूरी के विरुद्ध
आवाज़ उठाओ।
उनकी शिक्षा पर चर्चा करवाओ।
अपराधियों की भांति
एक पंक्ति में खड़ाकर
कपड़े, रोटी और ढेर सारे
अपराध-बोध बंटवाओ।
एक दिन
बस एक दिन बच्चों को
केक, टाफ़ी, बिस्कुट खिलाओ।
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कभी समय मिले
तो मेरी मेहनत की कीमत लगाओ
मेरे बनाये महलों के नीचे
दबी मेरी झोंपड़ी
की पन्नी हटवाओ।
मेरी हँसी और खुशी
की कीमत में कभी
अपने महलों की खुशी तुलवाओ।
अतिक्रमण के नाम पर
मेरी उजड़ी झोंपड़ी से
कभी अपने महल की सीमाएँ नपवाओ।
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छोटी छोटी खुशियों से खुश रहती है ज़िन्दगी
बस हम समझ ही नहीं पाते
कितनी ही छोटी छोटी खुशियां
हर समय
हमारे आस पास
मंडराती रहती हैं
हमारा द्वार खटखटाती हैं
हंसाती हैं रूलाती हैं
जीवन में रस बस जाती हैं
पर हम उन्हें बांध नहीं पाते।
आैर इधर
एक आदत सी हो गई है
एक नाराज़गी पसरी रहती है
हमारे चारों ओर
छोटी छोटी बातों पर खिन्न होता है मन
रूठते हैं, बिसूरते हैं, बहकते हैं।
उसकी कमीज़ मेरी कमीज़ से उजली क्यों
उसकी रिंग टोन मेरी रिंग टोन से नई क्यों।
गर्मी में गर्मी क्यों और शीत ऋतु में ठंडक क्यों
पानी क्यों बरसा
मिट्टी क्यों महकी, रेत क्यों सूखी
बिल्ली क्यों भागी, कौआ क्यों बोला
ये मंहगाई
गोभी क्यों मंहगी, आलू क्यों सस्ता
खुशियों को पहचानते नहीं
नाराज़गी के कारण ढूंढते हैं।
चिड़चिड़ाते हैं, बड़बड़ाते हैं
अन्त में मुंह ढककर सो जाते हैं ।
और अगली सुबह
फिर वही राग अलापते हैं।