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स्याह-सफ़ेद
प्यादों की चालें
छोटी-छोटी होती हैं।
कदम-दर-कदम बढ़ते,
राजा और वज़ीर को
अपने पीछे छुपाये,
बढ़ते रहते हैं,
कदम-दर-कदम,
मानों सहमे-सहमे।
राजा और वज़ीर
रहते हैं सदा पीछे,
लेकिन सब कहते हैं,
बलशाली, शक्तिशाली
होता है राजा,
और वजीर होता है
सबसे ज़्यादा चालबाज़।
फिर भी ये दोनों,
प्यादों में घिरे
घूमते, बचते रहते हैं।
किन्तु, एक समय आता है
प्यादे चुक जाते हैं,
तब दो-रंगे,
राजा और वज़ीर,
आ खड़े होते हैं
आमने-सामने।
ऐसे ही अन्त होता है
किसी खेल का,
किसी युद्ध का,
या किसी राजनीति का।
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जीवन-दर्शन दे जाते हैं ये पत्थर
किसी छैनी हथौड़ी के प्रहार से नहीं तराशे जाते हैं ये पत्थर
प्रकृति के प्यार मनुहार, धार धार से तराशे जाते हैं ये पत्थर
यूं तो ठोकरे खा-खाकर भी जीवन संवर-निखर जाता है
इस संतुलन को निहारती हूं तो जीवन डांवाडोल दिखाई देता है
मैं भाव-संतुलन नहीं कर पाती, जीवन-दर्शन दे जाते हैं ये पत्थर
देखो तो सूर्य भी निहारता है जब आकार ले लेते हैं ये पत्थर
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एक और विभीषिका की प्रतीक्षा में।
हर वर्ष आती है यह विभीषिका।
प्रतीक्षा में बैठै रहते हैं
कब बरसेगा जल
कब होगी अतिवृष्टि
डूबेंगे शहर-दर-शहर
टूटेंगे तटबन्ध
मरेगा आदमी
भूख से बिलखेगा
त्राहि-त्राहि मचेगी चारों ओर।
फिर लगेंगे आरोप-प्रत्यारोप
वातानुकूलित भवनों में
योजनाओं का अम्बार लगेगा
मीडिया को कई दिन तक
एक समाचार मिल जायेगा,
नये-पुराने चित्र दिखा-दिखा कर
डरायेंगे हमें।
कितनी जानें गईं
कितनी बचा ली गईं
आंकड़ों का खेल होगा।
पानी उतरते ही
भूल जायेंगे हम सब कुछ।
मीडिया कुछ नया परोसेगा
जो हमें उत्तेजित कर सके।
और हम बैठे रहेंगे
अगले वर्ष की प्रतीक्षा में।
नहीं पूछेंगे अपने-आपसे
कितने अपराधी हैं हम,
नहीं बनायेंगे
कोई दीर्घावधि योजना
नहीं ढूंढेगे कोई स्थायी हल।
बस, एक-दूसरे का मुंह ताकते
बैठे रहेंगे
एक और विभीषिका की प्रतीक्षा में।
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अनुप्रास अलंकार छन्दमुक्त रचना
अभी भी अक्तूबर में
ठहर ठहर कर
बेमौसम बारिश।
लौट लौट कर
आती सर्दी।
और ये ओले
रात फिर रजाई बाहर आई।
धुले कपड़े धूप में सुखाये।
पर खबरों ने खराब किया मन।
बेमौसम बारिश
बरबाद कर गई फ़सलें।
किसानों को कर्ज़
चुकाने में हुई चूक।
सरकार ने सदा की तरह
वो वादे किये
जो जानते थे सब
न निभायेगी सरकार
और टीवी वाले टंकार कर रहे हैं
नेताओं के निराले वादे।
और इस बीच
कितने किसानों ने
कड़वे आंसू पीकर
कर ली अपनी जीवन लीला समाप्त।
और हमने कागज़-कलम उठा ली
किसी कविता मंच पर
कविता लिखने के लिए।
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पतझड़
हरे पत्ते अचानक
लाल-पीले होने लगते हैं।
नारंगी, भूरे,
और गाढ़े लाल रंग के।
हवाएं डालियों के साथ
मदमस्त खेलती हैं,
झुलाती हैं।
पत्ते आनन्द-मग्न
लहराते हैं अपने ही अंदाज़ में।
हवाओं के संग
उड़ते-फ़िरते, लहराते,
रंग बदलते,
छूटते सम्बन्ध डालियों से।
शुष्कता उन्हें धरा पर
ले आती है।
यहां भी खेलते हैं
हवाओं संग,
बच्चों की तरह उछलते-कूदते
उड़ते फिरते,
मानों छुपन-छुपाई खेलते।
लोग कहते हैं
पतझड़ आया।
लेकिन मुझे लगता है
यही जीवन है।
और डालियों पर
हरे पत्ते पुनः अंकुरण लेने लगते हैं।
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प्रेम-प्यार की बात न करना
प्रेम-प्यार की बात न करना,
घृणा के बीज हम बो रहे हैं।
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सम्बन्धों का मान नहीं अब,
दीवारें हम अब चिन रहे हैं।
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काले-गोरे की बात चल रही,
चेहरों को रंगों से पोत रहे हैं ।
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अमीर-गरीब की बात कर रहे,
पैसे से दुनिया को तोल रहे हैं ।अ
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कौन है सच्चा, कौन है झूठा,
बिन जाने हम कोस रहे हैं।
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पढ़ना-लिखना बात पुरानी
सुनी-सुनाई पर चल रहे हैं।
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सर्वधर्म समभाव भूल गये,
भेद-भाव हम ढो रहे हैं।
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अपने-अपने रूप चुन लिए,
किस्से रोज़ नये बुन रहे हैं।
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राजनीति का ज्ञान नहीं है
चर्चा में हम लगे हुए हैं।
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अपनापन आजमाकर देखें
चलो आज यहां ही सबका अपनापन आजमाकर देखें
मेरी तुकबन्दी पर वाह वाह की अम्बार लगाकर देखें
न मात्रा, न मापनी, न गणना, छन्द का ज्ञान है मुझे
मेरे तथाकथित मुक्तक की ज़रा हवा निकालकर देखें
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मतदान मेरा कर्त्तव्य भी है
मतदान मेरा अधिकार है
पर किसने कह दिया
कि ज़िम्मेदारी भी है।
हां, अधिकार है मेरा मतदान।
पर कौन समझायेगा
कि अधिकार ही नहीं
कर्त्तव्य भी है।
जिस दिन दोनों के बीच की
समानान्तर रेखा मिट जायेगी
उस दिन मतदान सार्थक होगा।
किन्तु
इतना तो आप भी जानते ही होंगें
कि समानान्तर रेखाएं
कभी मिला नहीं करतीं।
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निर्माण हो या हो अवसान
उपवन में रूप ले रही
कलियों ने पहले से झूम रहे
पुष्पों की आभा देखी
और अपना सुन्दर भविष्य
देखकर मुस्कुरा दीं।
पुष्पों ने कलियों की
मुस्कान से आलोकित
उपवन को निहारा
और अपना पूर्व स्वरूप भानकर
मुदित हुए।
फिर धरा पर झरी पत्तियों में
अपने भविष्य की
आहट का अनुभव किया।
धरा से बने थे
धरा में जा मिलेंगे
सोच, खिलखिला दिये।
फिर स्वरूप लेंगे
मुस्कुराएंगे, मुदित होंगे,
फिर खिलखिलाएंगे।
निर्माण हो या हो अवसान की आहट
होना है तो होना है
रोना क्या खोना क्या
होना है तो होना है।
चलो, इसी बात पर मुस्कुरा दें ज़रा।
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चिंगारी दर चिंगारी सुलगती
अच्छी नहीं लगती
घर के किसी कोने में
चुपचाप जलती अगरबत्ती।
मना करती थी मेरी मां
फूंक मारकर बुझाने के लिए
अगरबत्ती।
मुंह की फूंक से
जूठी हो जाती है।
हाथ की हवा देकर
बुझाई जाती है अगरबत्ती।
डब्बी में सहेजकर
रखी जाती है अगरबत्ती।
खुली नहीं छोड़ी जाती
उड़ जायेगी खुशबू
टूट जायेगी
टूटने नहीं देनी है अगरबत्ती।
क्योंकि सीधी खड़ी कर
लपट दिखाकर
जलानी होती है अगरबत्ती।
लेकिन जल्दी चुक जाती है
मज़ा नहीं देती
लपट के साथ जलती अगरबत्ती।
फिर गिर जाये कहीं
तो सब जला देगी अगरबत्ती।
इसलिए
लपट दिखाकर
अदृश्य धुएं में लिपटी
चिंगारी दर चिंगारी सुलगती
किसी कोने में सजानी होती है अगरबत्ती।
रोज़ डांट खाती हूं मैं।
लपट सहित जलती
छोड़ देती हूं अगरबत्ती।
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आशाओं का सूरज
ये सूरज मेरी आशाओं का सूरज है
ये सूरज मेरे दु:साहस का सूरज है
सीढ़ी दर सीढ़ी कदम उठाती हूं मैं
ये सूरज तम पर मेरी विजय का सूरज है