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अभी भी अक्तूबर में
ठहर ठहर कर
बेमौसम बारिश।
लौट लौट कर
आती सर्दी।
और ये ओले
रात फिर रजाई बाहर आई।
धुले कपड़े धूप में सुखाये।
पर खबरों ने खराब किया मन।
बेमौसम बारिश
बरबाद कर गई फ़सलें।
किसानों को कर्ज़
चुकाने में हुई चूक।
सरकार ने सदा की तरह
वो वादे किये
जो जानते थे सब
न निभायेगी सरकार
और टीवी वाले टंकार कर रहे हैं
नेताओं के निराले वादे।
और इस बीच
कितने किसानों ने
कड़वे आंसू पीकर
कर ली अपनी जीवन लीला समाप्त।
और हमने कागज़-कलम उठा ली
किसी कविता मंच पर
कविता लिखने के लिए।
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More Articles
ज़िन्दगी एक क्षणिका भी न बन पाई
किसी ने कहा
ज़िन्दगी पर
एक उपन्यास लिखो।
सालों-साल का
हिसाब-बेहिसाब लिखो।
स्मृतियों को
उलटने-पलटने लगी।
समेटने लगी
सालों, महीनों, दिनों
और घंटों का,
पल-पल का गणित।
बांधने लगी पृष्ठ दर पृष्ठ।
न जाने कितने झंझावात,
कितने विप्लव,
कितने भूचाल बिखर गये।
कहीं आंसू, कहीं हर्ष,
कहीं आहों के,
सुख-दुख के सागर उफ़न गये।
न जाने
कितने दिन-महीने, साल लग गये
कथाओं का समेटने में।
और जब
अन्तिम रूप देने का समय आया
तो देखा
एक क्षणिका भी न बन पाई।
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स्थायी समाधान की बात मत करना
हर रोज़ नहीं करते हम
चिन्ता किसी भी समस्या की,
जब तक विकराल न हो जाये।
बात तो करते हैं
किन्तु समाधान ढूँढना
हमारा काम नहीं है।
हाँ, नौटंकी हम खूब
करना जानते हैं।
खूब चिन्ताएँ परोसते हैं
नारे बनाते हैं
बातें बनाते हैं।
ग्रीष्म ऋतु में ही
हमें याद आता है
जल संरक्षण
शीत ऋतु में आप
स्वतन्त्र हैं
बर्बादी के लिए।
जल की ही क्यों,
समस्या हो पर्यावरण की
वृक्षारोपण की बात हो
अथवा वृक्षों को बचाने की।
या हो बात
पशु-पक्षियों के हित की
याद आ जाती है
कभी-कभी,
खाना डालिए, पानी रखिए,
बातें बनाईये
और कोई नई समस्या ढूँढिये
चर्चा के लिए।
बस
स्थायी समाधान की बात मत करना।
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लिखने को तो बहुत कुछ है
पढ़ने की ललक है,
आगे बढ़ने की ललक है।
न जाने कहां तक
राह खुली है ,
और कहां ताला बन्द है।
आजकल
विज्ञापन बहुत हैं,
बनावट बहुत है,
तरह तरह की
सजावट बहुत है।
सरल-सहज
कहां जीवन रह गया,
कसावट बहुत है।
राहें दुर्गम हैं,
डर बहुत है।
पढ़ ले, पढ़ ले।
आजकल
पढ़ी-लिखी लड़कियों की
डिमांड बहुत है।
पर साथ-साथ
चूल्हा-चौका-घिसाई भी सीख लेना,
उसके बिना
लड़कियों का जीवन
नरक है।
अंग्रज़ी में गिट-पिट करना सीख ले,
पर मानस भी रट लेना ,
यह भी जीवन का जरूरी पक्ष है।
तुम्हारी सादगी, तुम्हारी यह मुस्कुराहट
आकर्षित करती है,
पर
सजना-संवरना भी सीख ले,
यहां भी होना दक्ष है।
लिखने को तो बहुत कुछ है,
पर कलम रोकती है,
चुप कर ,
यहां बहुत बड़ा विपक्ष है।
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चाय सुबह मिले या शाम को
सुबह की चाय और मीठी नींद की बात ही कुछ और है।
एक से बात कहां बनती है, दो-चार का तो चले दौर है।
ठीक नशे का काम करती है चाय, सुबह मिले या शाम को,
कितनी भी मिल जाये तो भी मन पूछता है, और है? और है?
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कुछ अच्छा लिखने की चाह
कुछ अच्छा लिखने की चाह में
हर बार कलम उठाती हूं
किन्तु आज तक नहीं समझ पाई
शब्द कैसे बदल जाते हैं
किन आकारों में ढल जाते हैं
प्रेम लिखती हूं
हादसे बन जाते हैं।
मानवता लिखती हूँ
मौत दिखती है।
काली स्याही लाल रंग में
बदल जाती है।
.
कलम को शब्द देती हूँ
भाईचारा, देशप्रेम,
साम्प्रदायिक सौहार्द
न जाने कैसे बन्दूकों, गनों
तोपों के चित्र बन जाते हैं।
-
कलम को समझाती हूं
चल आज धार्मिक सद्भाव की बात करें
किन्तु वह फिर
अलग-अलग आकार और
सूरतें गढ़ने लगती है,
शब्दों को आकारों में
बदलने लगती है।
.
हार नहीं मानती मैं,
कलम को फिर पकड़ती हूँ।
सच्चाई, नैतिकता,
ईमानदारी के विचार
मन में लाती हूँ।
किन्तु न जाने कहां से
कलम अरबों-खरबों के गणित में
उलझा जाती है।
.
हारकर मैंने कहा
चल भारत-माता के सम्मान में
गीत लिखें।
कलम हँसने लगी,
चिल्लाने लगी,
चीत्कार करने लगी।
कलम की नोक
तीखे नाखून-सी लगी।
कागज़
किसी वस्त्र का-सा
तार-तार होने लगा
मन शर्मसार होने लगा।
मान-सम्मान बुझने लगा।
.
हार गई मैं
किस्सा रोज़ का था।
कहां तक रोती या चीखती
किससे शिकायत करती।
धरती बंजर हो गई।
मैं लिख न सकी।
कलम की स्याही चुक गई।
कलम की नोक मुड़ गई ,
कुछ अच्छा लिखने की चाह मर गई।
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सुन्दर-सुन्दर दुनियाd
परीलोक के सपने मन में
झूला झूलें नील गगन में
सुन्दर-सुन्दर दुनिया सारी
चंदा-तारों संग मन मगन में
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कर्म-काण्ड छोड़कर, बस कर्म करो
राधा बोली कृष्ण से, चल श्याम वन में, रासलीला के लिए।
कृष्ण हतप्रभ, बोले गीता में दिया था संदेश हर युग के लिए।
बहुत अवतार लिए, युद्ध लड़े, उपदेश दिये तुम्हें हे मानव!
कर्म-काण्ड छोड़कर, बस कर्म करो मेरी आराधना के लिए ।
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गूंगी,बहरी, अंधी दुनिया
कान तो हम
पहले ही बन्द किये बैठे थे,
चलो आज आंख भी मूंद लेते हैं।
वैसे भी हमने अपने दिमाग से तो
कब का
काम लेना बन्द कर दिया है
और दिल से सोचना-समझना।
हर बात के लिए
दूसरों की ओर ताकते हैं।
दायित्वों से बचते हैं
एक ने कहा
तो किसी दूसरे से सुना।
किसी तीसरे ने देखा
और किसी चौथे ने दिखाया।
बस इतने से ही
अब हम
अपनी दुनिया चलाने लगे हैं।
अपने डर को
औरों के कंधों पर रखकर
बंहगी बनाने लगे हैं।
कोई हमें आईना न दिखाने लग जाये
इसलिए
काला चश्मा चढ़ा लिया है
जिससे दुनिया रंगीन दिखती है,
और हमारी आंखों में झांककर
कोई हमारी वास्तविकता
परख नहीं सकता।
या कहीं कान में कोई फूंक न मार दे
इसलिए “हैड फोन” लगा लिए हैं।
अब हम चैन की नींद सोते हैं,
नये ज़माने के गीत गुनगुनाते हैं।
हां , इतना ज़रूर है
कि सब बोल-सुन चुकें
तो जिसका पलड़ा भारी हो
उसकी ओर हम हाथ बढ़ा देते हैं।
और फिर चश्मा उतारकर
हैडफोन निकालकर
ज़माने के विरूद्ध
एक लम्बी तकरीर देते हैं
फिर एक लम्बी जम्हाई लेकर
फिर अपनी पुरानी
मुद्रा में आ जाते हैं।
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ज्योति प्रज्वलित है
क्यों ढूंढते हो दीप तले अंधेरा जब ज्योति प्रज्वलित है
क्यों देखते हो मुड़कर पीछे, जब सामने प्रशस्त पथ है
जीवन में अमा और पूर्णिमा का आवागमन नियत है
अंधेरे में भी आंख खुली रखें ज़रा, प्रकाश की दमक सरस है
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मन का ज्वार भाटा
सरित-सागर का ज्वार
आज
मन में क्यों उतर आया है
नीलाभ आकाश
व्यथित हो
धरा पर उतर आया है
चांद लौट जायेगा
अपने पथ पर।
समय के साथ
मन का ज्वार भी
उतर जायेगा।