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न मैं मांगू भिक्षा,
न जांचू पत्री,
न करता हूं प्रभु-भक्ति।
पिता कहते हैं
शिक्षा मंहगी,
मां कहती है रोटी।
दुनिया कहती
बड़े हो जाओ
तब जानोगे
इस जग की हस्ती।
सुनता हूं
खेल-कूद में
बड़ा नाम है
बड़ा धाम है।
टी.वी., फिल्मों में भी
बड़ा काम है।
पर
सब कहते हैं
पैसा-पैसा-पैसा-पैसा !!!!!
तब मैंने सोचा
सबसे सस्ता
यही काम है।
अजगर करे न चाकरी
पंछी करे न काम
दास मलूका कह गये
सबके दाता राम।
हरे राम !! हरे राम !!
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कितनी मनोहारी है जि़न्दगी
प्रतिदित प्रात नये रंग-रूप में खिलती है जि़न्दगी
हरी-भरी वाटिका-सी देखो रोज़ महकती है जि़न्दगी
कभी फूल खिेले, कभी फूल झरे, रंगों से धरा सजी
ज़रा आंख खोलकर देख, कितनी मनोहारी है जि़न्दगी
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कहां किस आस में
सूर्य की परिक्रमा के साथ साथ ही परिक्रमा करता है सूर्यमुखी
अक्सर सोचती हूं रात्रि को कहां किस आस में रहता है सूर्यमुखी
सम्भव है सिसकता हो रात भर कहां चला जाता है मेरा हमसफ़र
शायद इसीलिए प्रात में अश्रुओं से नम सुप्त मिलता है सूर्यमुखी
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हां हुआ था भारत आज़ाद
कभी लगा ही नहीं
कि हमें आज़ाद हुए इतने वर्ष हो गये।
लगता है अभी कल ही की तो बात है।
हमारे हाथों में सौंप गये थे
एक आज़ाद भारत
कुछ आज़ादी के दीवाने, परवाने।
फ़ांसी चढ़े, शहीद हुए।
और न जाने क्या क्या सहन किया था
उन लोगों ने जो हम जानते ही नहीं।
जानते हैं तो बस एक आधा अधूरा सच
जो हमने पढ़ा है पुस्तकों में।
और ये सब भी याद आता है हमें
बस साल के गिने चुने चार दिन।
हां हुआ था भारत आज़ाद।
कुछ लोगों की दीवानगी, बलिदान और हिम्मत से।
और हम ! क्या कर रहे हैं हम ?
कैसे सहेज रहे हैं आज़ादी के इस उपहार को।
हम जानते ही नहीं
कि मिली हुई आजादी का अर्थ क्या होता है।
कैसे सम्हाला, सहेजा जाता है इसे।
दुश्मन आज भी हैं देश के
जिन्हें मारने की बजाय
पाल पोस रहे हैं हम उन्हें अपने ही भीतर।
झूठ, अन्नाय के विरूद्ध
एक छोटी सी आवाज़ उठाने से तो डरते हैं हम।
और आज़ादी के दीवानों की बात करते हैं।
बड़ी बात यह
कि आज देश के दुश्मनों के विरूद्ध खड़े होने के लिए
हमें पहले अपने विरूद्ध हथियार उठाने पड़ेंगे।
शायद इसलिए
अधिकार नहीं है हमें
शहीदों को नमन का
नहीं है अधिकार हमें तिरंगे को सलामी का
नहीं है अधिकार
किसी और पर उंगली उठाने का।
पहले अपने आप को तो पहचान लें
देश के दुश्मनों को अपने भीतर तो मार लें
फिर साथ साथ चलेंगे
न्याय, सत्य, त्याग की राह पर
शहीदों को नमन करेंगे
और तिरंगा फहरायेंगे अपनी धरती पर
और अपने भीतर।
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पोखर भैया ताल-तलैया
ताल-तलैया, पोखर भैया,
मैं क्या जानू्ं
क्या होते सरोवर मैया।
बस नाम सुना है
न देखें हमने भैया।
गड्ढे देखे, नाले देखे,
सड़कों पर बहते परनाले देखे,
छप-छपाछप गाड़ी देखी।
सड़कों पर आबादी देखी।
-
जब-जब झड़ी लगे,
डाली-डाली बहके।
कुहुक-कुहुक बोले चिरैया ।
रंग निखरें मन महके।
मस्त समां है,
पर लोगन को लगता डर है भैया।
सड़कों पर होगा
पोखर भैया, ताल-तलैया
हमने बोला मैया,
अब तो हम भी देखेंगे ,
कैसे होते हैं ताल-तलैया,
और सरोवर, पोखर भैया ।
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मुस्कानों की भाषा लिखूं
छलक-छलक-छलकती बूंदें,
मन में रस भरती बूंदें
लहर-लहर लहराता आंचल
मन हरषे जब घन बरसे
मुस्कानों की भाषा लिखूं
हवाओं संग उड़ान भरूं मैं
राग बजे और साज बजे
मन ही मन संगीत सजे
धारा संग बहती जाती
अपने में ही उड़ती जाती
कोई न रोके कोई न टोके
जीवन-भर ये हास सजे।
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आनन्द उठाने चल रही ज़िन्दगी
रंगों के बीच कदम उठाकर चल रही है ज़िन्दगी।
चांद की मद्धम रोशनी में पल रही है ज़िन्दगी।
धरा और आकाश में भावों का ज्वार उठ रहा,
एकाकीपन का आनन्द उठाने चल रही है ज़िन्दगी।
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खिलता है कुकुरमुत्ता
सुना है मैंने
बादलों की गड़गड़ाहट से
बिजली कड़कने पर
पहाड़ों में
खिलता है कुकुरमुत्ता।
प्रकृति को निरखना
अच्छा लगता है,
सौन्दर्य बांटती है
रंग सजाती है,
मन मुदित करती है,
पर पता नहीं क्यों
तुम्हें
अक्सर पसन्द नहीं करते लोग।
अपने-आप से प्रकट होना,
बढ़ना और बढ़ते जाना,
जीवन्तता,
कितनी कठिन होती है,
यह समझते नहीं
तुम्हें देखकर लोग।
अपने स्वार्थ-हित
नाम बदल-बदलकर
पुकारते हैं तुम्हें।
इस भय से
कि पता नहीं तुमसे
अमृत मिलेगा या विष।
कभी अपने भीतर भी
झांककर देख रे इंसान,
कि पता नहीं तुमसे
अमृत मिलेगा या विष।
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शिलालेख हैं मेरे भीतर
शिलालेख हैं मेरे भीतर कल की बीती बातों के
अपने ही जब चोट करें तब नासूर बने हैं घातों के
इन रिसते घावों की गांठे बनती हैं न खुलने वाली
अन्तिम यात्रा तक ढोते हैं हम खण्डहर इन आघातों के
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प्रकृति जब तेवर दिखाती है
जीवन-अंकुरण
प्रकृति का स्व-नियम है।
नई राहें
आप ढूंढती है प्रकृति।
जिजीविषा, न जाने
किसके भीतर कहां तक है,
इंसान कहां समझ पाया।
जीवन में हम
बनाते रह जाते हैं
नियम कानून,
बांधते हैं सरहदें,
कहां किसका अधिकार,
कौन अनधिकार।
प्रकृति
जब तेवर दिखाती है,
सब उलट-पुलट कर जाती है।
हालात तो यही कहते हैं,
किसी दिन रात में उगेगा सूरज
और दिन में दिखेंगें तारे।
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जीवन का आनन्द ले
प्रकृति ने पुकारा मुझे,
खुली हवाओं ने
दिया सहारा मुझे,
चल बाहर आ
दिल बहला
न डर
जीवन का आनन्द ले
सुख के कुछ पल जी ले।
वृक्षों की लहराती लताएँ
मन बहलाती हैं
हरीतिमा मन के भावों को
सहला-सहला जाती है।
मन यूँ ही भावनाओं के
झूले झूलता है
कभी हँसता, कभी गुनगुनाता है।
गुनगुनी धूप
माथ सहला जाती है
एक मीठी खुमारी के साथ
मानों जीवन को गतिमान कर जाती है।