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न मैं मांगू भिक्षा,
न जांचू पत्री,
न करता हूं प्रभु-भक्ति।
पिता कहते हैं
शिक्षा मंहगी,
मां कहती है रोटी।
दुनिया कहती
बड़े हो जाओ
तब जानोगे
इस जग की हस्ती।
सुनता हूं
खेल-कूद में
बड़ा नाम है
बड़ा धाम है।
टी.वी., फिल्मों में भी
बड़ा काम है।
पर
सब कहते हैं
पैसा-पैसा-पैसा-पैसा !!!!!
तब मैंने सोचा
सबसे सस्ता
यही काम है।
अजगर करे न चाकरी
पंछी करे न काम
दास मलूका कह गये
सबके दाता राम।
हरे राम !! हरे राम !!
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समझे बैठे हैं यहां सब अपने को अफ़लातून
जि़न्दगी बिना जोड़-जोड़ के कहां चली है
करता सब उपर वाला हमारी कहां चली है
समझे बैठे हैं यहां सब अपने को अफ़लातून
इसी मैं-मैं के चक्कर में सबकी अड़ी पड़ी है
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यादें बिखर जाती हैं
पन्ने खुल जाते हैं
शब्द मिट जाते हैं
फूल झर जाते हैं
सुगंध उड़ जाती है
यादें बिखर जाती हैं
लुटे भाव रह जाते हैं
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वादों की फुलवारी
यादों का झुरमुट, वादों की फुलवारी
जीवन की बगिया , मुस्कानों की क्यारी
सुधि लेते रहना मेरी पल-पल, हर पल
मैं तुझ पर, तू मुझ पर हर पल बलिहारी
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एक और विभीषिका की प्रतीक्षा में।
हर वर्ष आती है यह विभीषिका।
प्रतीक्षा में बैठै रहते हैं
कब बरसेगा जल
कब होगी अतिवृष्टि
डूबेंगे शहर-दर-शहर
टूटेंगे तटबन्ध
मरेगा आदमी
भूख से बिलखेगा
त्राहि-त्राहि मचेगी चारों ओर।
फिर लगेंगे आरोप-प्रत्यारोप
वातानुकूलित भवनों में
योजनाओं का अम्बार लगेगा
मीडिया को कई दिन तक
एक समाचार मिल जायेगा,
नये-पुराने चित्र दिखा-दिखा कर
डरायेंगे हमें।
कितनी जानें गईं
कितनी बचा ली गईं
आंकड़ों का खेल होगा।
पानी उतरते ही
भूल जायेंगे हम सब कुछ।
मीडिया कुछ नया परोसेगा
जो हमें उत्तेजित कर सके।
और हम बैठे रहेंगे
अगले वर्ष की प्रतीक्षा में।
नहीं पूछेंगे अपने-आपसे
कितने अपराधी हैं हम,
नहीं बनायेंगे
कोई दीर्घावधि योजना
नहीं ढूंढेगे कोई स्थायी हल।
बस, एक-दूसरे का मुंह ताकते
बैठे रहेंगे
एक और विभीषिका की प्रतीक्षा में।
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जीवन का राग
रात में सूर्य रश्मियां द्वार खटखटाती हैं
दिन भर जीवन का राग सुनाती हैं
शाम ढलते ढलते सुर साज़ बदल जाते हैं
तब चंद्र किरणें थपथपाकर सुलाती हैं
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स्मृतियों के खण्डहर
कुछ
अनचाही स्मृतियाँ
कब खंडहर बन जाती हैं
पता ही नहीं लग पाता
और हम
उन्हीं खंडहरों पर
साल-दर-साल
लीपा-पोती
करते रहते हैं
अन्दर-ही-अन्दर
दीमक पालते रहते हैं
देखने में लगती हैं
ऊँची मीनारें
किन्तु एक हाथ से
ढह जाती हैं।
प्रसन्न रहते हैं हम
इन खंडहरों के बारे में
बात करते हुए
सुनहरे अतीत के साक्षी
और इस अतीत को लेकर
हम इतने
भ्रमित रहते हैं
कि वर्तमान की
रोशनियों को
नकार बैठते हैं।
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ज़िन्दगी निकल जाती है
कहाँ जान पाये हम
किसका ध्वंस उचित है
और किसका पालन।
कौन सा कर्म सार्थक होगा
और कौन-सा देगा विद्वेष।
जीवन-भर समझ नहीं पाते
कौन अपना, कौन पराया
किसके हित में
कौन है
और किससे होगा अहित।
कौन अपना ही अरि
और कौन है मित्र।
जब बुद्धि पलटती है
तब कहाँ स्मरण रहते हैं
किसी के
उपदेश और निर्देश।
धर्म और अधर्म की
गाँठे बन जाती हैं
उन्हें ही
बांधते और सुलझाते
ज़िन्दगी निकल जाती है
और एक नये
युद्धघोष की सम्भावना
बन जाती है।
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वास्तविकता से परे
किसका संधान तू करने चली
फूलों से तेरी कमान सजी
पर्वतों पर तू दूर खड़ी
अकेली ही अकेली
किस युद्ध में तू तनी
कौन-सा अभ्यास है
क्या यह प्रयास है
इस तरह तू क्यों है सजी
वास्तविकता से परे
तेरी यह रूप सज्जा
पल्लू उड़ रहा, सम्हाल
बाजूबंद, करघनी, गजरा
मांगटीका लगाकर यूँ कैसे खड़ी
धीरज से कमान तान
आगे-पीछे देख-परख
सम्हल कर रख कदम
आगे खाई है सामने पहाड़
अब गिरी, अब गिरी, तब गिरी
या तो वेश बदल या लौट चल।
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परीलोक से आई है
चित्रलिखित सी प्रतीक्षारत ठहरी हो मुस्काई-सी
नभ की लाली मुख पर कुमकुम सी है छाई-सी
दीपों की आभा में आलोकित, घूंघट की ओट में
नयनाभिराम रूप लिए परीलोक से आई है सकुचाई-सी
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मन गीत गुने
मृदंग बजे
सुर-साज सजे
मन-मीत मिले
मन गीत गुने
निर्जन वन में
वन-फूल खिले
अबोल बोले
मन-भाव बने
इस निर्जन में
इस कथा कहे
अमर प्रेम की