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मेरे पास
बहुत सी अधूरी उम्मीदें हैं
और हर उम्मीद
एक पूरा आदमी मांगती है
अपने लिए।
और मेरे पास तो
बहुत सी
अधूरी उम्मीदें हैं
पर अकेली हूं मैं
अपने को
कहां कहां बांटूं ?
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गौरैया से मैंने पूछा कहां रही तू इतने दिन
गौरैया से मैंने पूछा कहां रही तू इतने दिन
बोली मायके से भाई आया था कितने दिन
क्या-क्या लाया, क्या दे गया और क्या बात हुई
मां की बहुत याद आई रो पड़ी, गौरैया उस दिन
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एक साल और मिला
अक्सर एक एहसास होता है
या कहूं
कि पता नहीं लग पाता
कि हम नये में जी रहे हैं
या पुराने में।
दिन, महीने, साल
यूं ही बीत जाते हैं,
आगे-पीछे के
सब बदल जाते हैं
किन्तु हम अपने-आपको
वहीं का वहीं
खड़ा पाते हैं।
** ** ** **
अंगुलियों पर गिनती रही दिन
कब आयेगा वह एक नया दिन
कब बीतेगा यह साल
और सब कहेंगे
मुबारक हो नया साल
बहुत-सी शुभकामनाएं
कुछ स्वाभाविक, कुछ औपचारिक।
** ** ** **
वह दिन भी
आकर बीत गया
पर इसके बाद भी
कुछ नहीं बदला
** ** ** **
कोई बात नहीं,
नहीं बदला तो न सही।
पर चलो
एक दिन की ही
खुशियां बटोर लेते हैं
और खुशियां मनाते हैaa
कि एक साल और मिला
आप सबके साथ जीने के लिए।
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ताउते एवं यास तूफ़ान के दृष्टिगत रचना
अपनी सीमाओं का
अतिक्रमण करते हुए
लहरें आज शहरों में प्रवेश कर गईं।
उठते बवंडर ने
सागर में कश्तियों से
अपनी नाराज़गी जताई।
हवाओं की गति ने
सब उलट-पलट दिया।
घटाएं यूं घिरीं, बरस रहीं
मानों कोई आतप दिया।
प्रकृति के सौन्दर्य से
मोहित इंसान
इस रौद्र रूप के सामने
बौना दिखाई दिया।
प्रकृति संकेत देती है,
आदेश देती है, निर्देश देती है।
अक्सर
सम्हलने का समय भी देती है।
किन्तु हम
सदा की तरह
आग लगने पर
कुंआ खोदने निकलते हैं।
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मोबाईल: आवश्यकता अथवा व्यसन
हमारी एक प्रवृत्ति हो गई है कि हम बहुत जल्दी किसी भी बात की आलोचना अथवा सराहना करने लगते हैं। कोई एक करता है और फिर सब करने लगते हैं जैसे मानों नम्बर बनाने हों कि किसने कितनी आलोचना कर ली अथवा सराहना कर ली। जैसे हमारी विचार-शक्ति समाप्त हो जाती है और हम निर्भाव बहती धारा के साथ बहने लगते हैं।
मोबाईल!!!
आधुनिकता के इस युग में मोबाईल जीवन की आवश्यकता बन चुका है। चाहे कितनी भी आलोचना कर लें किन्तु वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों में इसके महत्व और आवश्यकता को उपेक्षित नहीं किया जा सकता। हाँ, इतना अवश्य है कि आपको मोबाईल किस स्तर का चाहिए और किस कार्य के लिए।
एक समय था जब विद्यालयों में मोबाईल ले जाना प्रतिबन्धित था। फिर समय ऐसा आया कि यही मोबाईल शिक्षा का केन्द्र बन गया। कोराना काल ने आम आदमी के जीवन में इतने परिवर्तन कर दिये कि एक बार तो वह स्वयं ही समझ नहीं पाया कि यह सब क्या हो रहा है। जब तक समझ आती, जीवन की धाराएँ ही बदल चुकीं थीं।
शिक्षा का यह ऐसा काल था, लगभग दो वर्ष का, जिसने शिक्षा, ज्ञान और परीक्षाओं के सारे प्रतिमान ही बदल कर रख दिये। शिक्षा की इस नवीन प्रणाली ने पारिवारिक व्यवस्थाएँ, आवश्यकताएँ, जीवन का ढाँचा ही बदल कर रख दिया। देश के मध्यमवर्गीय परिवारों में रोटी से अधिक महत्वपूर्ण मोबाईल हो उठे। फिर वह पहली कक्षा का विद्यार्थी हो अथवा किसी बड़ी कक्षा का। किसी-किसी परिवार में एक साथ दो-दो लैपटॉप और तीन-चार मोबाईल की आवश्यकता उठ खड़ी हुई अर्थात लाखों का व्यय। आय बन्द, व्यवसाय बन्द, वेतन आधा और मोबाईल ज़रूरी। ऐसे कितने ही परिवार मैंने इस समय में देखे जहाँ माता-पिता के पास एक-एक मोबाईल था और पिता के पास लैपटॉप। अब तीन बच्चे। तीनों की एक समय ऑनलाईन क्लास। माता अध्यापिका। अब एक लैपटॉप और तीन मोबाईल की अनिवार्यता उठ खड़ी हुई। चाहिए भी एंड्राएड अर्थात कम से कम 15-20 हज़ार प्रति। जहाँ मोबाईल पढ़ाई की आवश्यकता बने वहाँ आदत का हिस्सा भी। असीमित ज्ञान का भण्डार। आय-व्यय, बैंकिंग, भुगतान-प्राप्ति का सरल साधन, डिजिटल पेमंट, खेल का माध्यम। बच्चे घर में बैठकर पूरी दुनिया से जुड़ रहे थे, ज्ञान का असीमित भण्डार का पिटारा मानों उनके सामने खुल गया था और वे अचम्भित थे। माता-पिता से जल्दी बच्चे यह सब सीखने लगे। इसमें कहीं भी कुछ भी ग़लत अथवा ठीक नहीं कहा जा सकता था, यह सब समय की आवश्यकता के कारण विकसित हो रहा था, जो धीरे-धीरे हमारे स्वभाव का हिस्सा बनता गया। यदि शिक्षा के क्षेत्र में यह मोबाईल न होता तो बच्चे दो वर्ष पीछे चले जाते और उन्होंने ऑन लाईन जो ज्ञान प्राप्त किया, आधुनिकता से जुड़े, वह एक बहुत बड़ा अभाव रह जाता।
आज का समय ऐसा नहीं है कि बच्चे विद्यालय से निकले और घर। नहीं जी, ट्यूशन, डांस क्लास, स्विमिंग, क्रिकेट और न जाने क्या-क्या। तब माता-पिता और बच्चों के बीच यही एक वार्तालाप का सहारा बनता है
ऐसा नहीं कि कोरोना काल में ही मोबाईल ने हमारे जीवन को प्रभावित किया। इससे पूर्व भी विद्यालयों में सीनियर कक्षाओं में प्रोजेक्ट वर्क, आर्ट वर्क और अनेक गृह कार्य ऐसे दिये जाते थे जो गूगल देवता की सहायता से ही किये जाते थे। कक्षाओं में स्मार्ट बोर्ड और अनेक तकनीक प्रयोग में पहले से ही चल रहे थे, बस मोबाईल की इसमें वृद्धि हुई।
किसी सीमा तक यह बात ठीक है कि जब किसी वस्तु का हम अत्याधिक प्रयोग करने लगत हैं तब आवश्यकता से बढ़कर वह हमारी आदत बन जाती है, हमें उसकी लत लग जाती है और जीवन पर दुष्प्रभाव पड़ने लगता है।
निश्चित रूप से बच्चे आज पक्षियों की भांति स्वतन्त्र पंछी नहीं रह गये हैं। इसका एक कारण मोबाईल हो सकता है किन्तु सारा दोष केवल मोबाईल को नहीं दिया जा सकता। आधुनिकतम जीवन शैली, शिक्षा एवं ज्ञान का माध्यम, बच्चे तो क्या हमारी पीढ़ी भी इसमें उलझी बैठी है। अब यह माता-पिता का कर्तव्य है और शिक्षा-संस्थानों का भी कि बच्चों को मोबाईल के उचित प्रयोग एवं सीमित प्रयोग के लिए प्रेरित करें न कि उन्हें आरोपित।
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मन के पिंजरे खोल रे मनवा
मन विहग!
मन के पिंजरे खोल रे मनवा,
मन के बंधन तोड़ रे मनवा।
कुछ तो टूटेगा,
कुछ तो बिखरेगा,
कुछ तो बदलेगा।
गगन विशाल,
उड़ान बड़ी है,
पंख मिले छोटे,
कुछ कतरे गये।
कुछ टूटे,
कुछ बिखर गये।
चाहत न छोड़,
मन को न मोड़,
उड़ान भर,
आज नहीं तो कल,
कल नहीं तो कभी,
या फिर अभी
चाहतों को जोड़,
मन को न मोड़।
उड़ान भर।
न डर, बस
मन के पिंजरे खोल रे मनवा,
मन के बंधन तोड़ रे मनवा।
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धूप-छांव में उलझता मन
कोहरे की चादर
कुछ मौसम पर ,
कुछ मन पर।
शीत में अलसाया-सा मन।
धूप-छांव में उलझता,
नासमझों की तरह।
बहती शीतल बयार।
न जाने कौन-से भाव ,
दबे-ढके कंपकंपाने लगे।
कहना कुछ था ,
कह कुछ दिया,
सर्दी के कारण
कुछ शब्द अटक से गये थे,
कहीं भीतर।
मूंगफ़ली के छिलके-सी
दोहरी परतें।
दोनों नहीं
एक तो उतारनी ही होगी।
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सघन-वन-कानन ये मन है
सघन-वन-कानन ये मन है।
चिड़िया भी चहके,
कोयल भी कूके,
फूलों की डाली भी महके,
कभी उलझ-उलझकर
मन-भाव बहके।
पर डर लगता है
जब
वानर, डाल-डाल बहके।
कब जाग उठेगा नृसिंह
कब गज की गर्जन से
गूंजेगा गगन,
कौन जाने।
कभी हरीतिमा, कभी सूखा,
कभी पतझड़, कभी रूखा
कब टूटेगी डाली,
कब बिखरेंगे पल्लव
कौन जाने।
दावानल भीतर ही भीतर चलता है
इसीलिए ये
सघन-वन-कानन मन डरता है।
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निरन्तर बढ़ रही हैं दूरियां
कुछ शहरों की हैं दूरियां, कुछ काम-काज की दूरियां।
मेल-मिलाप कैसे बने, निरन्तर बढ़ रही हैं दूरियां।
परिवार निरन्तर छिटक रहे, दूर-पार सब जा रहे,
तकनीक आज मिटा रही हम सबके बीच की दूरियां।
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कुछ सपने बोले थे कुछ डोले थे
कागज की कश्ती में
कुछ सपने थे
कुछ अपने थे
कुछ सच्चे, कुछ झूठ थे
कुछ सपने बोले थे
कुछ डोले थे
कुछ उलझ गये
कुछ बिखर गये
कुछ को मैंने पानी में छोड़ दिया
कुछ को गठरी में बांध लिया
पानी में कश्ती
इधर-उधर तिरती
हिलती
हिचकोले खाती
कहती जाती
कुछ टूटेंगे
कुछ नये बनेंगे
कुछ संवरेंगे
गठरी खुल जायेगी
बिखर-बिखर जायेगी
डरना मत
फिर नये सपने बुनना
नई नाव खेना
कुछ नया चुनना
बस तिरते रहना
बुनते रहना
बहते रहना
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इक आग बनती है
तीली से तीली जलती है
यूँ ही इक आग बनती है।
छोटी-छोटी चिंगारियों से
दिल जलता है
कभी बुझता है
कभी भड़कता है।
राख के ढेर नहीं बनते
इतनी-सी आग से
किन्तु जले दिल में
कितने पत्थर
और पहाड़ बनते हैं
कुछ सरकते हैं
कुछ खड़े रहते हैं।
और हम, यूँ ही, बात-बेबात
मुस्कुराते रहते हैं।
दरकते पहाड़ों के बीच से
भरभराती मिट्टी
बहुत कुछ ले डूबती है
किन्तु कौन समझता है
हमारी इस बेमतलब मुस्कान को।