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राहों में आते हैं कंकड़-पत्थर, मार ठोकर कर किनारे।
न डर किसी से, बोल दे सबको, मेरी मर्ज़ी, हटो सारे।
जो मन चाहेगा, करें हम, कौन, क्यों रोके हमें यहां।
कर्म का पथ कभी छोड़ा नहीं, फिर अकारण क्यों हारें।
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इन्द्रधनुषी रंग बिखेरे
नीली चादर तान कर अम्बर देर तक सोया पाया गया
चंदा-तारे निर्भीक घूमते रहे,प्रकाश-तम कहीं आया-गया
प्रात हुई, भागे चंदा-तारे,रवि ने आहट की,तब उठ बैठा,
इन्द्रधनुषी रंग बिखेरे, देखो तो, फिर मुस्काता पाया गया
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जीवन पथ पर
बिन नाविक मैं बहती जाती
अपनी छाया से कहती जाती
तुम साथ चलो या न हो कोई
जीवन पथ पर बढ़ती जाती
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तू लौट जा अपने ठौर
हे पंछी, प्रकृति प्रदत्त स्रोत छोड़कर तू कहां आया रे !
ये मानव निर्मित स्रोत हैं यहां न जल न छाया रे !
तृषित जग, तृषित भाव, तृषित मानव मन हैं यहां
तू लौट जा अपने ठौर,! न कर यहां जीवन जाया रे !
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अपनी बत्ती गुल हो जाती है
बड़ा हर्ष होता है जब दफ्तर में बिजली गुल हो जाती है
काम छोड़ कर चाय-पानी की अच्छी दावत हो जाती है
इधर-उधर भटकते, इसकी-उसकी चुगली करते, दिन बीते
काम नहीं, वेतन नहीं, यह सुनकर अपनी बत्ती गुल हो जाती है
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चाहिए अब एक शंखनाद
हमें स्मरण हैं
कृष्ण की अनेक कथाएं
उनकी बाल लीलाएं
माखन चुराना, वन में गैया घुमाना
बाल-गोपाल संग हंसना-बतियाना
गोपियों संग ठिठोलियां
रासलीला की अठखेलियां
और यशोदा मैया को सताना।
और कभी बस पूतना-वध,
कंस-वध, नाग-मर्दन
अथवा गोवर्धन धारण को स्मरण करके
हम वंदन कर लेते हैं।
लेकिन क्यों नहीं स्मरण करते हम
कि कृष्ण ने पांचजन्य से
उद्घोष किया था
एक युद्ध के आह्वान का
बुराई के विरूद्ध अच्छाई का।
अन्याय के विरूद्ध न्याय का।
विश्व की मंगल कामना का।
एक अन्यायमुक्त समाज की स्थापना का।
हमें तो बस आदत हो गई है
पर्वों में डूबे रहने की
उत्सव ही उत्सव मनाने की
बस कोई एक बहाना चाहिए।
और यही संस्कार हम
अपनी अगली पीढ़ी को दे रहे हैं
हां, यह और बात है कि
उनके उत्सव मनाने के तरीके बदल गये हैं।
फिर हम किस अधिकार से
दोषारोपण कर सकते हैं किसी पर
अन्याय, अत्याचार, भ्रष्टाचार, शोषण
या अधिकारों के दुरूपयोग का।
अब शंख एक संग्रहणीय वस्तु बन कर रह गये हैं।
वैसे भी हम मुंह सिले और कान बन्द किये बैठे हैं
कि कहीं किसी पांचजन्य के उद्घोष
का आह्वान न हो
और किसी अन्य के शंखनाद की ध्वनि भी
हमारे कानों तक न पहुंचे
और कहीं हमारे उत्सवों में बाधा न आये।
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मन का दीप प्रज्वलित हो
अपनों का साथ हो
सपनों का राग हो
सम्बन्धों का उन्माद हो
सबसे संवाद हो
मन बाग बाग हो
जीवन में राग राग हो
मधुर मधुर तान हो
भावों में अनुराग हो
मलिनता मिट जाए
दूरियां सिमट जाएं
रिश्तों की गरिमा हो
अपनों की महिमा हो
विश्वास की दमक हो
अपनेपन की महक हो
सहज सहज जीवन हो
सरल पावन मन हो
मन से मन का मिलन हो
न द्वेष का राग हो,
न सत्य से विराग हो
जीवन की सुंदर कहानी हो
अपनों की जु़बानी हो
जगमग जगमग संसार हो
खुशियां अपार हों
पर्वों की सी हरदम आहट हो
बस मन का दीप प्रज्वलित हो।
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कहां है तबाही कौन सी आपदा
कहां है आपदा,
कहां हुई तबाही,
कोई विपदा नहीं कहीं।
कुछ मर गये,
कुछ भूखे रह गये।
किसी को चिकित्सा नहीं मिल पाई।
आग लगी या
भवन ढहा,
कौन-सा पहाड़ टूट पड़ा।
करोड़ों-अरबों में
अब किस-किस को देखेंगे?
घर-घर जाकर
किस-किसको पूछेंगे।
आसमान से तो
कह नहीं कर सकते,
बरसना मत।
सूरज को तो रोक नहीं सकते,
ज़्यादा चमकना मत।
सड़कों पर सागर है,
सागर में उफ़ान,
घरों में तैरती मछलियां देखीं आज,
और नदियों में बहते घर।
तो कहां है विपदा,
कहां है तबाही,
कौन सी आपदा।
बड़े-बड़े शहरों में
छोटी-छोटी बातें
तो होती रहती हैं सैटोरीना।
ज़्यादा मत सोचा कर।
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औकात दिखा दी
ऐसा थोड़े ही होता है कि एक दिन में ही तुमने मेरी औकात गिरा दी
जो कल था आज भी वही, वहीं हूं मैं, बस तुमने अपनी समझ हटा दी
आज गया हूं बस कुछ रूप बदलने, कल लौटूंगा फिर आओगे गले लगाने
एक दिन क्या रोका मुझको,देखा मैंने कैसे तुम्हें,तुम्हारी औकात दिखा द
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मौसम के रूप समझ न आयें
कोहरा है या बादलों का घेरा, हम बनते पागल।
कब रिमझिम, कब खिलती धूप, हम बनते पागल।
मौसम हरदम नये-नये रंग दिखाता, हमें भरमाता,
मौसम के रूप समझ न आयें, हम बनते पागल।
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जीवन-दर्शन दे जाते हैं ये पत्थर
किसी छैनी हथौड़ी के प्रहार से नहीं तराशे जाते हैं ये पत्थर
प्रकृति के प्यार मनुहार, धार धार से तराशे जाते हैं ये पत्थर
यूं तो ठोकरे खा-खाकर भी जीवन संवर-निखर जाता है
इस संतुलन को निहारती हूं तो जीवन डांवाडोल दिखाई देता है
मैं भाव-संतुलन नहीं कर पाती, जीवन-दर्शन दे जाते हैं ये पत्थर
देखो तो सूर्य भी निहारता है जब आकार ले लेते हैं ये पत्थर