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गगन की आस हो या चांद की,
धरा की नज़दीकियां छूटती नहीं।
मन उड़ता पखेरु-सा,
डालियों पर झूमता,
संजोता ख्वाब कोई।
अंधेरों से जूझता है मन,
संजोता है रोशनियां,
दूरियां कभी सिमटती नहीं,
आस कभी मिटती नहीं।
चांद है या ख्वाब कोई।
रोशनी है आस कोई।
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पावस की पहली बूंद
पावस की पहली बूंद
धरा तक पहुंचते-पहुंचते ही
सूख जाती है।
तपती धरा
और तपती हवाएं
नमी सोख ले जाती हैं।
अब पावस की पहली बूंद
कहां नम करती है मन।
कहां उमड़ती हैं
मन में प्रेम-प्यार,
मनुहार की बातें।
समाचार डराते हैं,
पावस की पहली बूंद
आने से पहले ही
चेतावनियां जारी करते हैं।
सम्हल कर रहना,
सामान बांधकर रख लो,
राशन समेट लो।
कभी भी उड़ा ले जायेंगी हवाएँ।
अब पावस की बूंद,
बूंद नहीं आती,
महावृष्टि बनकर आती है।
कहीं बिजली गिरी
कहीं जल-प्लावन।
क्या जायेगा
क्या रह जायेगा
बस इसी सोच में
रह जाते हैं हम।
क्या उजड़ा, क्या बह गया
क्या बचा
बस यही देखते रह जाते हैं हम
और अगली पावस की प्रतीक्षा
करते हैं हम
इस बार देखें क्या होगा!!!
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मौसम के रूप समझ न आयें
कोहरा है या बादलों का घेरा, हम बनते पागल।
कब रिमझिम, कब खिलती धूप, हम बनते पागल।
मौसम हरदम नये-नये रंग दिखाता, हमें भरमाता,
मौसम के रूप समझ न आयें, हम बनते पागल।
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तीर खोज रही मैं
गहरे सागर के अंतस में
तीर खोज रही मैं।
ठहरा-ठहरा-सा सागर है,
ठिठका-ठिठका-सा जल।
कुछ परछाईयां झलक रहीं,
नीरवता में डूबा हर पल।
-
चकित हूं मैं,
कैसे द्युतिमान जल है,
लहरें आलोकित हो रहीं,
तुम संग हो मेरे
क्या यह तुम्हारा अक्स है?
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जब एक तिनका फंसता है
दांत में
जब एक तिनका फंस जाता है
हम लगे रहते हैं
जिह्वा से, सूई से,
एक और तिनके से
उसे निकालने में।
किन्तु , इधर
कुछ ऐसा फंसने लगा है गले में
जिसे, आज हम
देख तो नहीं पा रहे हैं,
जो धीरे-धीरे, अदृश्य,
एक अभेद्य दीवार बनकर
घेर रहा है हमें चारों आेर से।
और हम नादान
उसे दांत का–सा तिनका समझकर
कुछ बड़े तिनकों को जोड़-जोड़कर
आनन्दित हो रहे हैं।
किन्तु बस
इतना ही समझना बाकी रह गया है
कि जो कृत्य हम कर रहे हैं
न तो तिनके से काम चलने वाला है
न सूई से और न ही जिह्वा से।
सीधे झाड़ू ही फ़िरेगा
हमारे जीवन के रंगों पर।
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समय जब कटता नहीं
काम है नहीं कोई
इसलिए इधर की उधर
उधर की इधर
करने में लगे हैं हम आजकल ।
अपना नहीं,
औरों का चरित्र निहारने में
लगे हैं आजकल।
पांव धरा पर टिकते नहीं
आकाश को छूने की चाहत
करने लगे हैं हम आजकल।
समय जब कटता नहीं
हर किसी की बखिया उधेड़ने में
लगे रहते हैं हम आजकल।
और कुछ न हो तो
नई पीढ़ी को कोसने में
लगे हैं हम आजकल।
सुनाई देता नहीं, दिखाई देता नहीं
आवाज़ लड़खड़ाती है,
पर सारी दुनिया को
राह दिखाने में लगे हैं हम आजकल।
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धन्यवाद देते रहना हमें Keep Thanking
आकाश को थाम कर खड़े हैं नहीं तो न जाने कब का गिर गया होता
पग हैं धरा पर अड़ाये, नहीं तो न जाने कब का भूकम्प आ गया होता
धन्यवाद देते रहना हमें, बहुत ध्यान रखते हैं हम आप सबका सदैव ही
पानी पीते हैं, नहा-धो लेते हैं नहीं तो न जाने कब का सुनामी आ गया होता।
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आनन्द के कुछ पल
संगीत के स्वरों में कुछ रंग ढलते हैं
मनमीत के संग जीवन के पल संवरते हैं
ढोल की थाप पर तो नाचती है दुनिया
हम आनन्द के कुछ पल सृजित करते हैं।
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अनुप्रास अलंकार छन्दमुक्त रचना
अभी भी अक्तूबर में
ठहर ठहर कर
बेमौसम बारिश।
लौट लौट कर
आती सर्दी।
और ये ओले
रात फिर रजाई बाहर आई।
धुले कपड़े धूप में सुखाये।
पर खबरों ने खराब किया मन।
बेमौसम बारिश
बरबाद कर गई फ़सलें।
किसानों को कर्ज़
चुकाने में हुई चूक।
सरकार ने सदा की तरह
वो वादे किये
जो जानते थे सब
न निभायेगी सरकार
और टीवी वाले टंकार कर रहे हैं
नेताओं के निराले वादे।
और इस बीच
कितने किसानों ने
कड़वे आंसू पीकर
कर ली अपनी जीवन लीला समाप्त।
और हमने कागज़-कलम उठा ली
किसी कविता मंच पर
कविता लिखने के लिए।
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अपने आप को खोजती हूं
अपने आप को खोजती हूं
अपनी ही प्रतिच्छाया में।
यह एकान्त मेरा है
और मैं भी
बस अपनी हूं
कोई नहीं है
मेरे और मेरे स्व के बीच।
यह अगाध जलराशि
मेरे भीतर भी है
जिसकी तरंगे मेरा जीवन हैं
जिसकी हलचल मेरी प्रेरणा है
जिसकी भंवर मेरा संघर्ष है
और मैं हूं और
और है मेरी प्रतिच्छाया
मेरी प्रेरणा
सी मेरी भावनाएं
अपने ही साथ बांटती हूं
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पैसों से यह दुनिया चलती
पैसों पर यह दुनिया ठहरी, पैसों से यह दुनिया चलती , सब जाने हैं
जीवन का आधार,रोटी का संसार, सामाजिक-व्यवहार, सब माने हैं
छल है, मोह-माया है, चाह नहीं है हमको, कहने को सब कहते हैं पर,
नहीं हाथ की मैल, मेहनत से आयेगी तो फल देगी, इतना तो सब माने हैं