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भाव उमड़ते हैं,
मिटते हैं, उड़ते हैं,
चमकते हैं।
पंख फैलाती हैं
आशाएं, कामनाएं।
लेकिन, रोशनियां
धीरे-धीरे पिघलती हैं,
बूंद-बूंद गिरती हैं।
अंधेरे पसरने लगते हैं।
रोशनियां यूं तो
लुभावनी लगती हैं,
लेकिन अंधेरे में
खो जाती हैं
कितनी ही रोशनियां।
मिटती हैं, सिमटती हैं,
जाते-जाते कह जाती हैं,
अंधेरों और रोशनियों का
संगम है जीवन,
यह हम पर है
कि हम किसमें जीते हैं।
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आनन्द उठाने चल रही ज़िन्दगी
रंगों के बीच कदम उठाकर चल रही है ज़िन्दगी।
चांद की मद्धम रोशनी में पल रही है ज़िन्दगी।
धरा और आकाश में भावों का ज्वार उठ रहा,
एकाकीपन का आनन्द उठाने चल रही है ज़िन्दगी।
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वरदान और श्राप
किसी युग में
वरदान और श्राप
साथ-साथ चलते थे।
वरदान की आशा में
भक्ति
और कठोर तपस्या करते थे
किन्तु सदैव
कोई भूल
कोई चूक
ले डूबती थी
सब अच्छे कर्मों को
और वरदान से पहले
श्राप आ जाता था।
और कभी-कभी
इतनी बड़ी गठरी होती थी
भूल-चूक की
कि वरदान तक
बात पहुँच ही नहीं पाती थी
मानों कोई भारी
बैरीकेड लगा हो।
श्राप से वरदान टूटता था
और वरदान से श्राप,
काल की सीमा
अन्तहीन हुआ करती थी।
और एक खतरा
यह भी रहता था
कि पता नहीं कब वरदान
श्राप में परिवर्तित हो जाये
और श्राप वरदान में
और दोनों का घालमेल
समझ ही न आये।
-
बस
इसी डर से
मैं वरदान माँगने का
साहस ही नहीं करती
पता नहीं
भूल-चूक की
कितनी बड़ी गठरी खुल जाये
या श्राप की लम्बी सूची।
-
जो मिला है
उसमें जिये जा
मज़े की नींद लिए जा।
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सूर्य देव तुम कहाँ हो
ओ बादलो गगन से घेरा हटाओ
शीतल पवन तुम दूर भाग जाओ
कोहरे से दृष्टि-भ्रम होने लगा है
सूर्य देव तुम कहाँ हो आ जाओ
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खेल फिर शुरू हो जाता है
कभी कभी, समझ नहीं पाती हूं
कि मैं
आतंकित होकर चिल्लती हूं
या आतंक पैदा करने के लिए।
तुमसे डरकर चिल्लती हूं
या तुम्हें डराने के लिए।
लेकिन इतना जानती हूं
कि मेरे भीतर एक डर है
एक औरत होने का डर।
और यह डर
तुम सबने पैदा किया है
तुम्हारा प्यार, तुम्हारी मनुहार
पराया सा अपनापन
और तुम्हारी फ़टकार
फिर मौके बे मौके
उपेक्षा दर्शाता तुम्हारा तिरस्कार
निरन्तर मुझे डराते रहते हैं।
और तुम , अपने अलग अलग रूपों में
विवश करते रहते हो मुझे
चिल्लाते रहने के लिए।
फिर एक समय आता है
कि थककर मेरी चिल्लाहट
रूदन में बदल जाती है।
और तुम मुझे
पुचकारने लगते हो।
*******
खेल, फिर शुरू हो जाता है।
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सांझ-सवेरे भागा-दौड़ी
सांझ-सवेरे, भागा-दौड़ी
सूरज भागा, चंदा चमका
तारे बिखरे
कुछ चमके, कुछ निखरे
रंगों की डोली पलटी
हल्के-हल्के रंग बदले
फूलों ने मुख मोड़ लिए
पल्लव देखो सिमट गये
चिड़िया ने कूक भरी
तितली-भंवरे कहाँ गये
कीट-पतंगे बिखर गये
ओस की बूँदें टहल रहीं
देखो तो कैसे बहक रहीं
रंगों से देखो खेल रहीं
अभी यहीं थीं
कहाँ गईं, कहाँ गईं
ढूंढो-ढूंढों कहाँ गईं।
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चैन से सो लेने दो
अच्छे-भले मुंह ढककर सो रहे थे यूं ही हिला हिलाकर जगा दिया
अच्छा-सा चाय-नाश्ता कराओं खाना बनाओ, हुक्म जारी किया
अरे अवकाश हमारा अधिकार है, चैन से सो लेने दो, न जगाओ
नींद तोड़ी हमारी तो मीडिया बुला लेंगे हमने बयान जारी किया
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पर उपदेश कुशल बहुतेरे
यह मुहावरा सुना तो बहुत बार था किन्तु कभी इसकी गुणवत्ता की ओर ध्यान ही नहीं गया। धन्यवाद इस मंच का जिसने इस मुहावरे की महत्ता एवं विशेषताओं पर चिन्तन करने का अवसर प्रदान किया।
पर उपदेश कुशल बहुतेरे!!
वाह!!
इसका अर्थ यह है कि जो कुशल होगा वही तो पर को अर्थात अन्य को बहुत सारे उपदेश दे सकेगा। जो कुशल ही नहीं है वह किसी को क्या उपदेश देगा और क्या मार्ग-दर्शन करेगा।
हम जीवन में कोई भी कार्य करते हैं हमारी जवाबदेही तय होती है। घर-परिवार में, समाज में, नौकरी में, कार्यालय में, व्यवसाय में, सड़क पर चलते हुए, हर जगह, हर जगह। हानि-लाभ, अच्छा-बुरा, खरा-खोटा, उत्तर-प्रति-उत्तर, लिखित, मौखिक। हम बच नहीं पाते।
किन्तु उपदेश देने में किसी उत्तरदायित्व का वहन नहीं होता। आप उपदेश दीजिए, चाय-नाश्ता लीजिए और निकल लीजिए। किन्तु ध्यान रहे कि न तो अपने घर बुलाकर उपदेश दीजिए और न किसी उपवन-बात में। जिसे उपदेश देना हो सीधे उसके घर जाकर ही स्थापित रहिए। उपदेशात्मक संस्था खोल लीजिए, दान-दक्षिणा लीजिए, दिल खोलकर परामर्श दीजिए।
किन्तु बस पहले से ही बचने का उपाय बांधकर चलिए।
कुछ ऐसे ‘‘ देखिए मैं तो अपने मन से एक अच्छा परामर्श आपको दे रहा हूँ /दे रही हूँ, यह तो आप पर और परिस्थितियों पर निर्भर करता है कि फ़लित हो। और आपकी मनोभावनाओं का भी इस पर प्रभाव रहेगा। बस कोई कमी नहीं रहनी चाहिए हमारे बताये उपाय में। ’’
और जब आपका बताया परामर्श फ़लित न हो तो आपके पास पहले से ही तैयार उत्तर होगा कि ‘‘देखिए मैंने तो पहले ही कहा था कि मन से कीजिएगा, अथवा आपने कोई न कोई विधि तो छोड़ दी होगी। ’’
और साथ ही कुछ अगली सलाहें परोस दीजिए।। और आप जब अपना समय दे रहे हैं, दिमाग़ दे रहे हैं तो कुछ न कुछ मूल्य तो लेंगे ही, चाहे अच्छा चाय-पानी ही।
किन्तु यह उपदेश मैं आप सब मित्रों को दे रही हूँ, मेरे अपने लिए नहीं है।
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हमारे भीतर ही बसता है वह
कहां रूपाकार पहचान पाते हैं हम
कहां समझ पाते हैं
उसका नाम,
नहीं पहचानते,
कब आ जाता है सामने
बेनाम।
उपासना करते रह जाते हैं
मन्दिरों की घंटियां
घनघनाते रह जाते हैं
नवाते हैं सिर
करते हैं दण्डवत प्रणाम।
हर दिन
किसी नये रूप को आकार देते हैं
नये-नये नाम देते हैं,
पुकारते हैं
आह्वान करते हैं,
पर नहीं मिलता,
नहीं देता दिखाई।
पर हम ही
समझ नहीं पाये आज तक
कि वह
सुनता है सबकी,
बिना किसी आडम्बर के।
घूमता है हमारे आस-पास
अनेक रूपों में, चेहरों में
अपने-परायों में।
थाम रखा है हाथ
बस हम ही समझ नहीं पाते
कि कहीं
हमारे भीतर ही बसता है वह।
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सरस-सरस लगती है ज़िन्दगी
जल सी भीगी-भीगी है ज़िन्दगी
कहीं सरल, कहीं धीमे-धीमे
आगे बढ़ती है ज़िन्दगी।
तरल-तरल भाव सी
बहकती है ज़िन्दगी
राहों में धार-सी बहती है ज़िन्दगी
चलें हिल-मिल
कितनी सुहावनी लगती है ज़िन्दगी
किसी और से क्या लेना
जब आप हैं हमारे साथ ज़िन्दगी
आज भीग ले अन्तर्मन,
कदम-दर-कदम
मिलाकर चलना सिखाती है ज़िन्दगी
राहें सूनी हैं तो क्या,
तुम साथ हो
तब सरस-सरस लगती है ज़िन्दगी।
आगे बढ़ते रहें
तो आप ही खुलने लगती हैं मंजिलें ज़िन्दगी
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यह ज़िन्दगी है
यह ज़िन्दगी है,
भीड़ है, रेल-पेल है ।
जाने-अनजाने लोगों के बीच ,
बीतता सफ़र है ।
कभी अपने पराये-से,
और कभी पराये
अपने-से हो जाते हैं।
दुख-सुख के ठहराव ,
कभी छोटे, कभी बड़े पड़ाव,
कभी धूप कभी बरसात ।
बोझे-सी लदी जि़न्दगी,
कभी जगह बन पाती है
कभी नहीं।
कभी छूटता सामान
कभी खुलती गठरियां ।
अन्तहीन पटरियों से सपनों का जाल ।
दूर कहीं दूर पटरियों पर
बेटिकट दौड़ती-सी ज़िन्दगी ।
मिल गई जगह तो ठीक,
नहीं तो खड़े-खड़े ही,
बीतती है ज़िन्दगी ।