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अभी तक लोग रक्तदान के लिए तो जागरूक नहीं हैं तो अंगदान के लिए कहाँ हो सकते हैं।
अँगदान के लिए आमजन को जागरूक करने के दो ही तरीके हैं। पहला अंधाधंुध प्रचार, जैसे कभी परिवार-नियोजन, पोलियो, बै्रस्ट कैंसर, एच. आई. वी. एड्स, काॅपर टी का किया जाता था। देश में हर जगह, हर कोने पर। किन्तु सकारात्मक, मनोवैज्ञानिक, सार्थक, बृहद् जानकारी युक्त एवं भावपूर्ण। केवल प्रेरणा से यह काम नहीं हो सकता। सोच में परिवर्तन लाना होगा।
दूसरा प्रयास जो इससे पहले आवश्यक है वह है क्या हमारा चिकित्सा-तंत्र इतना व्यवस्थित, जागरूक एवं आमजन के लिए उपलब्ध है कि यदि मैं अंगदान अथवा देहदान करना चाहूँ तो वह मेरी सहायता करेगा? क्या देश के किसी भी अस्पताल में किसी भी चिकित्सक से इससे सम्बन्धित जानकारी मिल जायेगी? जी नहीं।
यदि मुझे अंगदान अथवा देहदान करना है तो कहाँ जाना होगा, कौन-सा अस्पताल, कौन-सी संस्था? क्या संस्थाएं पंजीकृत हैं, कहीं ऐसा तो नहीं कि मैं जनहित में दान करुं और उसका व्यापार हो। देश के कितने चिकित्सालयों में यह सुविधा उपलब्ध है? हम किसी एन. जी. ओ. पर कैसे भरोसा करें। कौन-सा फ़ार्म भरा जायेगा? यदि किसी अनजान स्थान पर मेरी मृत्यु हो जाती है तो कौन उत्तरदायित्व लेगा कि मेरे अंग ले लिए जायें। गूगल पर मुझे केवल 228 अस्पतालों की सूची मिली जो देहदान लेते हैं, 137 करोड़ जनसंख्या के लिए। यह हास्यास्पद है। छोटी-से-छोटी चिकित्सा के हम निजी अस्पतालों के पीछे भाग रहे हैं। सरकारी तंत्र पर हमें विश्वास नहीं है। निजी अस्पताल हमें लूटते दिखते हैं।
अतः पहले संसाधन विकसित कीजिए, चिकित्सा-तंत्र का विकास कीजिए, सुविधाएं उपलब्ध करवाईये, विश्वास बनाईये, उपरान्त जागरूकता अभियान चलाईये, फिर आशा कीजिए।
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झूला झुलाये जिन्दगी
कहीं झूला झुलाये जिन्दगी
कभी उपर तो कभी नीचे
लेकर आये जिन्दगी
रस्सियों पर झूलती
दूर से तो दिखती है
आनन्द देती जिन्दगी
बैठना कभी झूले पर
आकाश और धरा
एक साथ दिखा देती है जिन्दगी
कभी हाथ छूटा, कभी तार टूटी
तो दिन में ही
तारे दिखा देती है जिन्दगी
सम्हलकर बैठना जरा
कभी-कभी सीधे
उपर भी ले जाती है जिन्दगी
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हमारी राहें ये संवारते हैं
यह उन लोगों का
स्वच्छता अभियान है
जो नहीं जानते
कि राजनीति क्या है
क्या है नारे
कहां हैं पोस्टर
जहां उनकी तस्वीर नहीं छपती
छपती है उन लोगों की छवि
जिनकी
छवि ही नहीं होती
कुछ सफ़ेदपोश
साफ़ सड़कों पर
साफ़ झाड़ू लगाते देखे जाते रहे
और ये लोग उनका मैला ढोते रहे।
प्रकृति भी इनकी परीक्षा लेती है,
तरू अरू पल्लव झरते हैं
एक नये की आस में
हम आगे बढ़ते हैं
हमारी राहें ये
संवारते हैं
और हम इन्हीं को नकारते हैं।
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नेह का बस एक फूल
जीवन की इस आपाधापी में,
इस उलझी-बिखरी-जि़न्दगी में,
भाग-दौड़ में बहकी जि़न्दगी में,
नेह का बस कोई एक फूल खिल जाये।
मन संवर संवर जाता है।
पत्ती-पत्ती , फूल-फूल,
परिमल के संग चली एक बयार,
मन बहक बहक जाता है।
देखएि कैसे सब संवर संवर जाता है।
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मन वन-उपवन में
यहीं कहीं
वन-उपवन में
घन-सघन वन में
उड़ता है मन
तिेतली के संग।
न गगन की उड़ान है
न बादलों की छुअन है
न चांद तारों की चाहत है
इधर-उधर
रंगों से बातें होती हैं
पुष्पों-से भाव
खिल- खिल खिलते हैं
पत्ती-पत्ती छूते हैं
तृण-कंटक हैं तो क्या,
वट-पीपल तो क्या,
सब अपने-से लगते हैं।
बस यहीं कहीं
आस-पास
ढूंढता है मन अपनापन
तितली के संग-संग
घूमता है मन
सुन्दर वन-उपवन में।
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सम्बन्धों की डोर
विशाल वृक्षों की जड़ों से जब मिट्टी दरकने लगती है।
जिन्दगी की सांसें भी तब कुछ यूं ही रिसने लगती हैं।
विशाल वृक्षों की छाया तले ही पनपने हैं छोटे पेड़ पौधे,
बड़ों की छत्रछाया के बिना सम्बन्धों की डोर टूटने लगती है।
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न सावन हरे न भादों सूखे
रोज़ी-रोटी के लिए
कुछ लकड़ियां छीलता हूं
मेरा घर चलता है
बुढ़ापे की लाठी टेकता हूं
बच्चों खेलते हैं छड़ी-छड़ी
कुछ अंगीठी जलाता हूं
बची राख से बर्तन मांजता हूं।
मैं पेड़ नहीं पहचानता
मैं पर्यावरण नहीं जानता
वृक्ष बचाओ, धरा बचाओ
मैं नहीं जानता
बस कुछ सूखी टहनियां
मेरे जीवन का सहारा बनती हैं
जिन्हें तुम अक्सर छीन ले जाते हो
अपने कमरों की सजावट के लिए।
क्यों पड़ता है सूखा
और क्यों होती है अतिवृष्टि
मैं नहीं जानता
क्योंकि
मेरे लिए न सावन हरे
न भादों सूखे
हां, कभी -कभी देखता हूं
हमारे खेतों को सपाट कर
बन गई हैं बहुमंजिला इमारतें
विकास के नाम पर
तुम्हारा धुंआ झेलते हैं हम
और मेरे जीवन का आसरा
ये सूखी टहनियां
छोड़ दो मेरे लिए।
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बहुत आनन्द आता है मुझे
बहुत आनन्द आता है मुझे
जब लोग कहते हैं
सब ऊपर वाले की मर्ज़ी।
बहुत आनन्द आता है मुझे
जब लोग कहते हैं
कर्म कर, फल की चिन्ता मत कर।
बहुत आनन्द आता है मुझे
जब लोग कहते हैं
यह तो मेरे परिश्रम का फल है।
बहुत आनन्द आता है मुझे
जब लोग कर्मों का हिसाब करते हैं
और कहते हैं कि मुझे
कर्मानुसार मान नहीं मिला।
कहते हैं यह सृष्टि ईश्वर ने बनाई।
कर्मों का लेखा-जोखा
अच्छा-बुरा सब लिखकर भेजा है।
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आपको नहीं लगता
हम अपनी ही बात में बात
बात में बात कर-करके
और अपनी ही बात
काट-काटकर
अकारण ही
परेशान होते रहते हैं।
-
लेकिन मुझे
बहुत आनन्द आता है।
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पत्थरों के भीतर भी पिघलती है जिन्दगी
प्यार मनुहार धार-धार से संवरती है जिन्दगी
मन ही क्या पत्थरों के भीतर भी पिघलती है जिन्दगी
यूं तो ठोकरे खा-खाकर भी जीवन संवर जाता है
यही तो भाव हैं कि सिर पर सूरज उगा लेती है जिन्दगी
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मेरे बारे में क्या लिखेंगे लोग
अक्सर
अपने बारे में सोचती हूं
मेरे बारे में
क्या लिखेंगे लोग।
हंसना तो आता है मुझे
पर मेरी हंसी
कितनी खुशियां दे पाती है
किसी को,
यही सोच कर सोचती हूं,
कुछ ज्यादा अच्छा नहीं
मेरे बारे में लिखेंगे लोग।
ज़िन्दगी में उदासी तो
कभी भी किसी को सुहाती नहीं,
और मैं जल्दी मुरझा जाती हूं
पेड़ से गिरे पत्तों की तरह।
छोटी-छोटी बातों पर
बहक जाती हूं,
रूठ जाती हूं,
आंसूं तो पलकों पर रहते हैं,
तब
मेरे बारे में कहां से
कुछ अच्छा लिखेंगे लोग।
सच बोलने की आदत है बुरी,
किसी को भी कह देती हूं
खोटी-खरी,
बेबात
किसी को मनाना मुझे आता नहीं
अकारण
किसी को भाव देना मुझे भाता नहीं,
फिर,
मेरे बारे में कहां से
कुछ अच्छा लिखेंगे लोग।
अक्सर अपनी बात कह पाती नहीं
किसी की सुननी मुझे आती नहीं
मौसम-सा मन है,
कभी बसन्त-सा बहकता है,
पंछी-सा चहकता है,
कभी इतनी लम्बी झड़ी
कि सब तट-बन्ध टूटते है।
कभी वाणी में जलाती धूप से
शब्द आकार ले लेते हैं
कभी
शीत में-से जमे भाव
निःशब्द रह जाते हैं।
फिर कैसे कहूं,
कि मेरे बारे में
कुछ अच्छा लिखेंगे लोग।
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सर्वगुण सम्पन्न कोई नहीं होता
जान लें हम सर्वगुण सम्पन्न तो यहां कोई नहीं होता
अच्छाई-बुराई सब साथ चले, मन यूं ही दुख में रोता
राम-रावण जीवन्त हैं यहां, किस-किस की बात करें
अन्तद्र्वन्द्व में जी रहे, नहीं जानते, कौन कहां सजग होता