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More Articles
कोई तो आयेगा
भावनाओं का वेग
किसी त्वरित नदी की तरह
अविरल गति से
सीमाओं को तोड़ता
तीर से टकराता
कंकड़-पत्थर से जूझता
इक आस में
कोई तो आयेगा
थाम लेगा गति
सहज-सहज।
.
जीवन बीता जाता है
इसी प्रतीक्षा में
और कितनी प्रतीक्षा
और कितना धैर्य !!!!
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श्वेत हंसों का जोड़ा
अपनी छाया से मोहित मन-मग्न हुआ हंसों का जोड़ा
चंदा-तारों को देखा तो कुछ शरमाया हंसों का जोड़ा
इस मिलन की रात को देख चंदा-तारे भी मग्न हुए
नभ-जल की नीलिमा में खो गया श्वेत हंसों का जोड़ा
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मन गया बहक बहक
चिड़िया की कुहुक-कुहुक, फूलों की महक-महक
तुम बोले मधुर मधुर, मन गया बहक बहक
सरगम की तान उठी, साज़ बजे, राग बने,
सतरंगी आभा छाई, ताल बजे ठुमक ठुमक
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प्रभास है जीवन
हास है, परिहास है, विश्वास है जीवन।
हर दिन एक नया प्रयास है जीवन।
सूरज भी चंदा के पीछे छिप जाता है,
आप मुस्कुरा दें तो तो प्रभास है जीवन।
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कहते हैं जब जागो तभी सवेरा
कहते हैं जब जागो तभी सवेरा, पर ऐसा कहां हो पाता है
आधे टूटे-छूटे सपनों से जीवन-भर न पीछा छूट पाता है
रात और दिन के अंधेरे-उजियारे में उलझा रहता है मन
सपनों की गठरी रिसती है यह मन कभी समझ न पाता
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अब घड़ी से नहीं चलती ज़िन्दगी
अक्सर लगता है,
कुछ
निठ्ठलापन आ गया है।
वे ही सारे काम
जो खेल-खेल में
हो जाया करते थे,
पल भर में,
अब, दिनों-दिन
बहकने लगे हैं।
सुबह कब आती है,
शाम कब ढल जाती है,
आभास चला गया है।
अंधेरे -उजाले
एक-से लगने लगे हैं।
घर बंधन तो नहीं लगता,
किन्तु बंधे से रहते हैं,
फिर भी वे सारे काम,
जो खेल-खेल में
हो जाया करते थे,
अब, दिनों तक
टहलने लगे हैं।
समय बहुत है,
शायद यही एहसास
समय के महत्व को
समझने से रोकता है।
घड़ी के घंटों से
नहीं बंधे हैं अब।
न विलम्ब की चिन्ता,
न लम्बित कार्यों की।
मैं नहीं तो
कोई और कर लेगा,
मुझे चिन्ता नहीं।
खेल-खेल में
क्या समय का महत्व
घटने लगा है।
कहीं एक तकलीफ़ तो है,
बस शब्द नहीं हैं।
घड़ियां बन्द पड़ी हैं,
अब घड़ी से नहीं चलती ज़िन्दगी,
पर पता नहीं
समय कैसे कटने लगा है।
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सूर्य देव तुम कहाँ हो
ओ बादलो गगन से घेरा हटाओ
शीतल पवन तुम दूर भाग जाओ
कोहरे से दृष्टि-भ्रम होने लगा है
सूर्य देव तुम कहाँ हो आ जाओ
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हमारा हिन्दी दिवस
वर्ष 1975 में पहली बार किसी राज्य स्तरीय कवि सम्मेलन में हिस्सा लिया और उसके बाद मेरी प्रतिक्रिया ।
उस समय कवि सम्मेलन में कवियों को सौ रूपये मानदेय मिलता था
**************
हमारा हिन्दी दिवस।
14 सितम्बर हमारा हिन्दी दिवस।
भाषण माला हमारा हिन्दी दिवस।
कवि गोष्ठी हमारा हिन्दी दिवस।
कवि कवि, कवि श्रोता, श्रोता कवि
सारे कवि सारे श्रोता , बस कवि कवि,
सारे श्रोता सारे कवि हमारा हिन्दी दिवस।
-
कुछ नेता कुछ नेता वेत,्ता
कुछ मंत्री, मंत्री के साथ संतरी
हल्ला गुल्ला, तालियां हार मालाएं, उद्घाटन,
फ़ोटो, कैमरा, रेडियो, टी.वी. हमारा हिन्दी दिवस।
वादा है सौ रूपये का, कुछ पुरस्कारों,
मान चिन्हों का, सम्मान पदकों का। मिलेंगे।
कविता, भाषण, साहित्य, सम्मान भाड़ में।
सौ रूपया है, किराया, नई जगह घूमना।
रसद पानी, वाह वाही,
कुछ उखड़ी बिखरी कुछ टूटी फूटी हिन्दी।
हमारा हिन्दी दिवस सम्पन्न।
फिर वर्ष भर का अवकाश।
न हिन्दी न दिवस। न गोष्ठी न रूपये।
वर्ष भर की बेकारी।
मुझे लगता है
हमारा हिन्दी दिवस
सरकार का एक दत्तक पुत्र है
14 सितम्बर 1949 को गोद लिया
और उसी दिन उसकी हत्या कर दी।
अब सरकार हर 14 सितम्बर को
उसकी पुण्य तिथि धूमधाम से मनाती है
उनके नाम पर वर्ष भर से रूके
अपने कई काम पूरे करवाती है
वर्ष भर बाद
कुछ दक्षिणा मिल पाती है।
-
आह ! एक वर्ष !
फिर हिन्दी दिवस ! फिर सौ रूपये
फिर एक वर्ष ! फिर हिन्दी दिवस !
फिर ! फिर ! शायद अब तक
हिन्दी का रेट कुछ बढ़ गया हो।
अच्छा ! अगले वर्ष फिर मिलेंगे
हर वर्ष मिलेंगे।
हम हिन्दी के चौधरी हैं
हिन्दी सिर्फ हमारी बपौती है।
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बारिश की बूंदे अलमस्त सी
बारिश की बूंदे अलमस्त सी, बहकी-बहकी घूम रहीं
पत्तों-पत्तों पर सर-सर करतीं, इधर-उधर हैं झूम रहीं
मैंने रोका, हाथों पर रख, उनको अपने घर ले आई मैं
पता नहीं कब भागीं, कहां गईं, मैं घर-भर में ढूंढ रही
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पीछे मुड़कर क्या देखना
जीवन के उतार-चढ़ाव को
समझाती हैं ये सीढ़ियां
दुख-सुख के पल आते-जाते हैं
ये समझा जाती हैं ये सीढ़ियां
जीवन में
कुछ गहराते अंधेरे हैं
और कुछ होती हैं रोशनियां
हिम्मत करें
तो अंधेरे को बेधकर
रोशनी का मार्ग
दिखाती हैं ये सीढ़ियां
जो बीत गया
सो बीत गया
पीछे मुड़कर क्या देखना
आगे की राह
दिखाती हैं ये सीढि़यां