Error 404
- Home
- Error 404
Ooops, Page not found!
The page you are looking for either has moved or doesn't exists in this server
Share Me
More Articles
कामधेनु कुर्सी बनी
समुद्र मंथन से मिली सुरभि, मनोकामनाएं पूरी थी करती,
राजाओं, ऋषियों की स्पर्धा बनी, मान दिलाया थी करती,
गायों को अब कौन पूछता, अब कुर्सी की बात करो यारो,
कामधेनु कुर्सी बनी, इसके चैपायों की पूजा दुनिया करती।
Share Me
कुछ सपने कुछ सच्चे कुछ झूठे
कागज़ की नाव में
जितने सपने थे
सब अपने थे।
छोटे-छोटे थे, पर मन के थे ।
न डूबने की चिन्ता
न सपनों के टूटने की चिन्ता।
तिरती थी, पलटती थी
टूट-फूट जाती थी, भंवर में अटकती थी।
रूक-रूक जाती थी।
एक जाती थी, एक और आ जाती थी।
पर सपने तो सपने थे,
सब अपने थे।
न टूटते थे न फूटते थे ।
जीवन की लय यूं ही बहती जाती थी ।
फिर एक दिन हम बड़े हो गये ।
सपने भारी-भारी हो गये ।
अपने ही नहीं, सबके हो गये ।
पता ही नहीं लगा
वह कागज़ की नाव कहां खो गई ।
कभी अनायास यूं ही
याद आ जाती है,
तो ढूंढने निकल पड़ते हैं ।
किन्तु भारी सपने कहां
पीछा छोड़ते हैं,
सपने सिर पर लादे घूम रहे हैं ।
अब नाव नहीं बनती।
मेरी कागज़ की नाव
न जाने कहां खो गई,
मिल जाये तो लौटा देना ।
Share Me
विश्व चाय दिवस
सुबह से भूली-भटकी अभी मंच पर आगमन हुआ तो ज्ञात हुआ कि आज तो अन्तर्राष्ट्रीय चाय दिवस अथवा विश्व चाय दिवस है।
ऐसा कैसे सम्भव है। चाय का और केवल एक दिवस! नहीं, नहीं, यह तो चाय का और चाय के नशेड़ियों का घोर अपमान है।
शिमला में हम परिवार में आठ सदस्य थे, दिन-भर में 80-90 चाय तो बनती ही होगी और वह भी लार्ज पटियाला साईज़, पीतल के बड़े गिलास। मेरी दादी मेरी माँ से कहती थी पानी की टंकी में ही चीनी-पत्ती डाल दे, अपने-आप सब दिन-भर पीते रहेंगे।
दिन भर में पाँच-छः चाय तो अब भी पी ही लेती हूँ। कुछ वर्ष पहले तक दस-बारह हो ही जाती थी। उससे पहले 12-15। गज़ब की पाचन-क्षमता रही है मेरी। प्रातः घर से 7.30 निकल जाती थी किन्तु आम बात थी कि चार से पांच चाय पी लेती थी। काम करते-करते एक कप खाली हुआ, दूसरा तैयार। एक नाश्ते के साथ और दूसरा नाश्ते के बाद। फिर कार्यालय पहुँचकर टेबल पर सबसे पहले चाय। चाय देने वाले को भी पता था कि मैडम को कितनी चाय चाहिए होती है। वैसे भी छोटे-छोटे गिलास में आती चाय वैसे ही मूड खराब कर देती है इस कारण मुझे हर जगह अपना ही कप या गिलास रखना पड़ता था। जब मेरा स्थानान्तरण हुआ तो मज़ाक किया जाता था कि कंटीन तो अब बन्द हो जायेगी, कविता तो जा रही है।
मेरे लिए चाय का अर्थ है शुद्ध चाय। अर्थात पानी, ठीक-सा दूध, चीनी और पत्ती। कुछ लोग चाय के नाम पर काढ़ा पीना पसन्द करते हैं। हाय! अदरक नहीं डाला, छोटी इलायची के बिना तो स्वाद ही नहीं आता, दालचीनी वाली चाय बड़ी स्वाद होती है। दूध वाली गाढ़ी चाय होनी चाहिए। अरे तो दूध ही पी लीजिए, चाय के बहाने दूध क्यों पी रहे हैं, सीधे-सीधे कहिए कि दूध पीना है। कुछ लोग चाय का मसाला बनाकर रखते हैं। अरे ! ऐसी ही चाय पीनी है तो गर्म मसाला ही पी लीजिए, चाय को क्यों बदनाम कर रहे हैं।
लोग कहते हैं चाय से गैस हो जाती है, नींद नहीं आती है अथवा नींद आ जाती है। पता नहीं कैसे हैं यह लोग।
आह! किसी समय, कितनी बार, कहीं भी, बस चाय, चाय और चाय।
Share Me
समाचार पत्र की आत्मकथा
अब समाचार-पत्र
समाचारों की बात नहीं करते,
क्या बात करते हैं
यही समझने में दिन बीत जाता है।
बस एक नज़र में
पूरा समाचार-पत्र पढ़ लिया जाता है।
जब समाचार-पत्र लेने की बात आती है,
तब उसकी गुणवत्ता से अधिक
उसकी रद्दी
कितने अच्छे भाव में बिकेगी,
यह ख्याल आता है।
कौन सा समाचार-पत्र
क्या उपहार लेकर आयेगा,
इस पर विचार किया जाता है।
कभी समय था
समाचार-पत्र घर में आने पर
कोहराम मच जाता था।
किसको कौन-सा पृष्ठ चाहिए ,
इस बात पर युद्ध छिड़ जाता था।
पिता की टेढ़ी आंख
कोई समाचार-पत्र को
उनसे पूछे बिना
हाथ नहीं लगा सकता था।
सम्पादकीय पृष्ठ पर
पिताजी का अधिकार,
सामान्य ज्ञान बड़े भाई के पास ,
और मां के नाम महिलाओं का पृष्ठ,
बच्चों का कोना, कार्टून और चुटकुले।
सालों-साल समाचार-पत्रों की कतरनें
अलमारियों से झांकती थी।
हिन्दी का समाचार-पत्र
बड़ी कठिनाई से
मां के आग्रह पर लिया जाता था।
और वह सस्ते भाव बिकता था।
धारावाहिक कहानियां,
बुनाई-कढ़ाई के डिज़ाईन,
रंग-बिरंगे चित्र,
प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए,
सामान्य ज्ञान की फ़ाईलें,
पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ाई जाती थीं।
यही समाचार-पत्र अलमारियों में
बिछाये जाते थे,
पुस्तकों-कापियों पर चढ़ाये जाते थे,
और दोपहर के भोजन के लिए भी
यही टिफ़न, फ़ायल हुआ करते थे।
शनिवार-रविवार का समाचार-पत्र
वैवाहिक विज्ञापनों के लिए
लिया जाता था।
समाचार-पत्रों पर लिखना
यूं लगा
मानों जीवन के किसी अनुभूत
सुन्दर सत्य, संस्मरण,
यात्रा-वृतान्त का लिखना
जिसका कोई आदि नहीं, अन्त नहीं।
Share Me
बड़े-बड़े कर रहे आजकल
बड़े-बड़े कर रहे आजकल बात बहुत साफ़-सफ़ाई की
शौचालय का विज्ञापन करके, करते खूब कमाई जी
इनकी भाषा, इनके शब्दों से हमें घिन आती है
बात करें महिलाओं की और करते आंख सिकाई जी
Share Me
झूठ के बल पर
सत्य सदैव प्रमाण मांगता है,
और हम इस डर से,
कि पता नहीं
सत्य प्रमाणित हो पायेगा
या नहीं,
झूठ के बल पर
बेझिझक जीते हैं।
तब हमें
न सत्य की आंच सहनी पड़ती है,
न किसी के सामने
हाथ फैलाने पड़ते हैं।
पीढ़ी-दर-पीढ़ी
नहीं ढोने पड़ते हैं
आरोप–प्रत्यारोप,
न कोई आहुति , न बलिदान,
न अग्नि-परीक्षाएं
न पाषाण होने का भय।
नि:शंक जीते हैं हम ।
और न अकेलेपन की समस्या ।
एक ढूंढो
हज़ारों मिलेंगे साथ चलने के लिए।
Share Me
क्षणिक तृप्ति हेतु
घाट घाट का पानी पीकर पहुंचे हैं इस ठौर
राहों में रखते थे प्याउ, बीत गया वह दौर
नीर प्रवाह शुष्क पड़े, जल बिन तरसे प्राणी
क्षणिक तृप्ति हेतु कृत्रिम सज्जा का है दौर
Share Me
जीना है तो बुझी राख में भी आग दबाकर रखनी पड़ती है
मन के गह्वर में एक ज्वाला जलाकर रखनी पड़ती है
आंसुओं को सोखकर विचारधारा बनाकर रखनी पड़ती है
ज़्यादा सहनशीलता, कहते हैं निर्बलता का प्रतीक होती है
जीना है तो, बुझी राख में भी आग दबाकर रखनी पड़ती है
Share Me
रोज़ की ही कहानी है
जब जब कोई घटना घटती है,
हमारी क्रोधाग्नि जगती है।
हमारी कलम
एक नये विषय को पाकर
लिखने के लिए
उतावली होने लगती है।
समाचारों से हम
रचनाएं रचाते हैं।
आंसू शब्द तो सम्मानजनक है,
लिखना चाहिए
टसुए बहाते हैं।
दर्द बिखेरते हैं।
आधी-अधूरी जानकारियों को
राजनीतिज्ञों की तरह
भुनाते हैं।
वे ही चुने शब्द
वे ही मुहावरे
देवी-देवताओं का आख्यान
नारी की महानता का गुणगान।
नारी की बेचारगी,
या फिर
उसकी शक्तियों का आख्यान।
पूछती हूं आप सबसे,
कभी अपने आस-पास देखा है,
एक नज़र,
कितना करते हैं हम नारी का सम्मान।
कितना दिया है उसे खुला आसमान।
उसकी वाणी की धार को तराशते हैं,
उसकी आन-बान-शान को संवारते हैं,
या फिर
ऐसे किस्सों से बाहर निकलने के बाद
कुछ अच्छे उपहासात्मक
चुटकुले लिख डालते हैं।
आपसे क्या कहूं,
मैं भी शायद
यहीं कहीं खड़ी हूं।
Share Me
स्थायी समाधान की बात मत करना
हर रोज़ नहीं करते हम
चिन्ता किसी भी समस्या की,
जब तक विकराल न हो जाये।
बात तो करते हैं
किन्तु समाधान ढूँढना
हमारा काम नहीं है।
हाँ, नौटंकी हम खूब
करना जानते हैं।
खूब चिन्ताएँ परोसते हैं
नारे बनाते हैं
बातें बनाते हैं।
ग्रीष्म ऋतु में ही
हमें याद आता है
जल संरक्षण
शीत ऋतु में आप
स्वतन्त्र हैं
बर्बादी के लिए।
जल की ही क्यों,
समस्या हो पर्यावरण की
वृक्षारोपण की बात हो
अथवा वृक्षों को बचाने की।
या हो बात
पशु-पक्षियों के हित की
याद आ जाती है
कभी-कभी,
खाना डालिए, पानी रखिए,
बातें बनाईये
और कोई नई समस्या ढूँढिये
चर्चा के लिए।
बस
स्थायी समाधान की बात मत करना।