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सौन्दर्य निरख मन हरषा
पलभर में धूप निकलती, कभी बादल बरसें कण-कण।
धरा देखो महक रही, कलियां फूल बनीं, बहक रहा मन।
पल्लव झूम रहे, पंछी डाली-डाली घूम रहे, मन हरषा,
सौन्दर्य निरख, मन भी बहका, सब कहें इसे पागलपन।a
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अनुभव की बात है
कभी किसी ने कह दिया
एक तिनके का सहारा भी बहुत होता है।
किस्मत साथ दे ,
तो सीखा हुआ
ककहरा भी बहुत होता है।
लेकिन पुराने मुहावरे
ज़िन्दगी में सदा साथ नहीं देते ।
यूं तो बड़े-बड़े पहाड़ों को
यूं ही लांघ जाता है आदमी ,
लेकिन कभी-कभी
एक तिनके की चोट से
घायल मन
हर आस-विश्वास खोता है।
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आस्थाएं डांवाडोल हैं
किसे मानें किसे छोड़ें, आस्थाएं डांवाडोल हैं
करते पूजा-आराधना, पर कुण्ठित बोल हैं
अंधविश्वासों में उलझे, बाह्य आडम्बरों में डूबे,
विश्वास खण्डित, सच्चाईयां सब गोल हैं।
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एक ज्योति
रातें
सदैव काली ही होती हैं
किन्तु उनके पीछे
प्रकाशमान होती है
एक ज्योति
राहें आलोकित करती
पथ प्रदर्शित करती
उभरती हैं किरणें
धीरे-धीरे
एक चक्र तैयार करतीं
हमारे हृदय में
दिव्य आभा का संचार करतीं
जीवनामृत प्रदान करतीं।
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किसने रची विनाश की लीला
जल जीवन है, जल पावन है
जल सावन है, मनभावन है
जल तृप्ति है, जल पूजा है।
मन डरता है, जल प्लावन है।
कब सूखा होगा
कब होगी अति वृष्टि
मन उलझा है।
कब तरसें बूंद बूंद को
और कब
सागर ही सागर लहरायेगा,
उतर धरा पर आयेगा
मन डरता है।
किसने रची विनाश की लीला
किसने दोहा प्रकृति को,
कौन बतलायेगा।
जीवन बदला, शैली बदली
रहन सहन की भाषा बदली।
अब यह होना था, और होना है
कहने सुनने से क्या होगा।
आयेंगी और जायेंगी
ये विपदाएं।
बस इतना होना है
कि हम सबको
यहां] सदा
साथ साथ होना है।
घन बरसे या सागर उफ़न पड़े
हमें नहीं डरना है
बस इतना ही कहना है।
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सब साथ चलें बात बने
भवन ढह गये, खंडहर देखो अभी भी खड़ा है।
लड़खड़ाते कदमों से कौन पर्वत तक चढ़ा है।
जीवन यूं चलता है, सब साथ चलें, बात बने,
कठिन समय सहायक बनें, इंसान वही बड़ा है।
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आई आंधी टूटे पल्लव पल भर में सब अनजाने
जीवन बीत गया बुनने में रिश्तों के ताने बाने।
दिल बहला था सबके सब हैं अपने जाने पहचाने।
पलट गए कब सारे पन्ने और मिट गए सारे लेख
आई आंधी, टूटे पल्लव,पल भर में सब अनजाने !!
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चंगू ने मंगू से पूछा
चंगू ने मंगू से पूछा
ये क्या लेकर आई हो।
मंगू बोली,
इंसानों की दुनिया में रहते हैं।
उनका दाना-पानी खाते हैं।
उनका-सा व्यवहार बना।
हरदम
बुरा-बुरा कहना भी ठीक नहीं है।
अब
दूर-दूर तक वृक्ष नहीं हैं,
कहां बनायें बसेरा।
देखो गर्मी-सर्दी,धूप-पानी से
ये हमें बचायेगा।
पलट कर रख देंगे,
तो बच्चे खेलेंगे
घोंसला यहीं बनायेंगे।
-
चंगू-मंगू दोनों खुश हैं।
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करिये योग भगाये रोग
कैसी विडम्बना एवं आश्चर्य की बात है कि जिस योग पद्धति का उल्लेख हमारे प्राचीनतम ग्रंथों ऋग्वेद एवं कठोपनिषद ग्रंथों में मिलता है, जो ईसा पूर्व के ग्रंथ हैं, उस प्राचीनतम योग पद्धति को हम आज प्रदर्शन के रूप में योगा डे के रूप में मना रहे हैं। पतंजलि का योगसूत्र योग का सबसे महत्वपूर्ण गं्रथ है। अन्य अनेक ग्रंथों में भी योग की परिभाषाएँ महत्व एवं क्रियाएँ उल्लिखित हैं। योग केवल एक शारीरिक क्रिया नहीं है, अपितु एक मानसिक, चिकित्सीय पद्धति भी है।
वर्तमान में हम इस बात से ज़्यादा प्रसन्न नहीं हैं कि एक हमारी प्राचीनतम योग पद्धति जो लुप्त हो रही थी, पुनः प्रकाश में आई है, हमारे जीवन का हिस्सा बनने लगी है, उसके गुणों को हम अपने जीवन में उतारने में लगे हैं बल्कि हम इस बात की ज़्यादा खुशियाँ मनाने में लगे हैं कि देखिए हमारा योगा अब विश्व में मनाया जाने लगा है। हमारे योगा का अब अन्तर्राष्ट्रीय दिवस है।
यदि सत्य को समझने का साहस रखते हों तो आज भी योग हमारे दैनिक जीवन का, नित्यप्रति का हिस्सा नहीं बन सका है। चाहे विद्यालयों में यह एक विषय के रूप में पढ़ाया जाने लगा है किन्तु बच्चे भी इसे एक विषय के रूप में ही लेते हैं न कि दैनिक जीवन की एक अपरिहार्य क्रिया के रूप में, जीवन-शैली के रूप में अथवा चिकित्सा-पद्धति के रूप में। बड़े-बुजुर्ग पार्क में एकत्र होकर अनुलोम-विलोम आदि करते दिखाई दे जायेंगे अथवा एक-दो और क्रियाएँ , और हमारा योगा डे सम्पन्न हो जाता है।
21 जून को सड़कों पर छपी टी-शर्ट पहने, बढ़िया-सी चटाई बिछाये और बाद में कुछ खान-पानी ही योगा-डे की उपलब्धि बनकर रह जाते हैं।
हमारे प्राचीन ग्रंथों में योग का जो महत्व दर्शाया गया है एवं क्रियाएँ बताईं गईं हैं हम उनसे अभी भी बहुत-बहुत दूर हैं। आवश्यकता है प्रत्येक स्तर पर प्रयास की, अभ्यास की, सम्मान की और इसे अपने दैनिन्दन जीवन का हिस्सा बनाने की। योग को उचित रूप में जीवन का हिस्सा बनाने से निश्चित रूप से आधुनिक जीवन शैली से उत्पन्न मानसिक, शारीरिक एवं अने मनोवैज्ञानिक समस्याओं का समाधान हो पायेगा।
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प्रकाश तम में कहीं सिमटा है
मन में आज एक द्वंद्व है,
सब उल्टा-सुल्टा।
चांद-सितारे मानों भीतर,
सूरज कहीं गायब है।
धरा-गगन एकमेक हुए,
न अन्तर कोई दिखता है।
आंख मूंद जगत को निरखें,
कौन, कहां, कहीं दिखता है।
सब सूना-सूना-सा लगता है,
मन न जाने कहां भटकता है।
सुख-दुख से परे हुआ है मन,
प्रकाश तम में कहीं सिमटा है।