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संसार है घर-द्वार
अपनेपन, सम्बन्धों का आधार है घर-द्वार
रिश्तों का, विश्वास का संसार है घर-द्वार
जीवन बीत जाता है संवारने-सजाने में
सुख-दुख के सामंजस्य का आधार है घर-द्वार
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इंसान भटकता है जिजीविषा की राह ढूंढता
पत्थरों में चेहरे उकेरते हैं,
और इंसानियत के
चेहरे नकारते हैं।
आया होगा
उंट कभी पहाड़ के नीचे,
मुझे नहीं पता,
हम तो इंसानियत के
चेहरे तलाशते हैं।
इधर
पत्थरों में तराशते लगे हैं
आकृतियां,
तब इंसान को
कहां देख पाते हैं।
शिल्पकार का शिल्प
छूता है आकाश की उंचाईयां,
और इंसान
किसी कीट-सा
एक शहर से दूसरे शहर
भटकता है, दूर-दूर
गर्म रेतीली ज़मीन पर
जिजीविषा की राह ढूंढता ।
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सपनों में जीने लगते हैं
लक्ष्य जितना सरल दिखता है
राहें
उतनी ही कठिन होने लगती हैं।
हमें आदत-सी हो जाती है
सब कुछ को
बस यूं ही ले लेने की
अभ्यास और प्रयास
की आदत छोड़ बैठते हैं
सपनों में जीने लगते हैं
लगता है
बस
हाथ बढ़ाएंगे
और चांद पकड़ लेंगे
अपने में खोये
ग्रहण और अमावस को
समझ नहीं पाते हम
सपनों में जीते
चांद को ही दोष देते हैं
सही राह नहीं पकड़ पाते हम।
-
लक्ष्य कठिन हो तो
राहें
आप ही सरल हो जाती हैं
क्योंकि तब हम समझ पाते हैं
चांद की दूरियां
और ग्रहण-अमावस का भाव
जीवन में।
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कहां गये वे दिन बारिश के
कहां गये वे दिन जब बारिश की बातें होती थीं, रिमझिम फुहारों की बातें होती थीं,
मां की डांट खाकर भी, छिप-छिपकर बारिश में भीगने-खेलने की बातें होती थीं
अब तो बारिश के नाम से ही बाढ़, आपदा, भूस्खलन की बातों से मन डरता है,
कहां गये वे दिन जब बारिश में चाट-पकौड़ी खाकर, आनन्द मनाने की बातें होती थीं।
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किस असमंजस में पड़ी है ज़िन्दगी
गत-आगत के मोह से जुड़ी है ज़िन्दगी
स्मृतियों के जोड़ पर खड़ी है ज़िन्दगी
मीठी-खट्टी जो भी हैं, हैं तो सब अपनी
जाने किस असमंजस में पड़ी है ज़िन्दगी
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सूरज को रोककर मैंने पूछा
सूरज को रोककर
मैंने पूछा
चलोगे मेरे साथ ?
-
हँस दिया सूरज
मैं तो चलता ही चलता हूँ।
तुम अपनी बोलो
चलोगे मेरे साथ ?
-
कभी रुका नहीं
कभी थका नहीं।
तुम अपनी बोलो
चलोगे मेरे साथ ?
-
दिन-रात घूमता हूँ
सबके हाल पूछता हूँ।
तुम अपनी बोलो
चलोगे मेरे साथ ?
-
रंगीनियों को सहेजता हूँ।
रंगों को बिखेरता हूँ।
तुम अपनी बोलो
चलोगे मेरे साथ ?
-
चँदा-तारे मेरे साथी
कौन तुम्हारे साथ ?
तुम अपनी बोलो
चलोगे मेरे साथ ?
-
बादल-वर्षा, आंधी-तूफ़ान
ग्रीष्म-शिशिर सब मेरे साथी।
तुम अपनी बोलो
चलोगे मेरे साथ ?
-
विस्तार गगन का
किसने नापा।
तुम अपनी बोलो
चलोगे मेरे साथ ?
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गुरु शिष्य परम्परा
समय के साथ गुरु और शिष्य दोनों की धारणा बदली है और हम इस बदली हुई धारणा एवं व्यवस्था में ही जी रहे हैं। परन्तु पता नहीं क्यों हमें पिष्ट-पेषण में आनन्द मिलता है। आज के गुरुओं की बुराई, शिष्यों के प्रति अनादर भाव हमारी प्रकृति बन गया है। प्राचीन गुरु शिष्य परम्परा निःसंदेह अति उत्तम थी किन्तु काल परिवर्तन के साथ वर्तमान में वह सम्भव ही नहीं है। जो आज है हम उस पर विचार नहीं करते कि उसे और अच्छा कैसे बनाया जा सकता है, प्राचीनता के निरर्थक मोह में वर्तमान को कोसना हमारी आदत बन चुका है। हमारे प्राचीन साहित्य से अच्छा कुछ नहीं, किन्तु वर्तमान में मिल रही शिक्षा का भी अपना महत्व है उसे हम नकार नहीं सकते। समयानुसार आज के गुरु भी समर्पित हैं और शिष्य भी, भेद तो प्राचीन काल में भी रहा है।
तो चलिए आज से वर्तमान में जीने का , उसे समझने का, उसे और बेहतर बनाने का प्रयास करें और पिछले को स्मरण अवश्य रखें, उसका पूरा सम्मान करें किन्तु वर्तमान के सम्मान के साथ।
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शांति बनाये रखने के लिए
अक्सर मुझे
बहुत-सी बातें
समझ नहीं आतीं।
विश्व शांति चाहता है
हर देश चाहता है
कि युद्ध न हों
सब अपने-आपमें
स्वतन्त्र-प्रसन्न रहें।
किन्तु
इस शांति को
बनाये रखने के लिए
भूख, ग़रीबी, शिक्षा
और रोज़गार को पीछे छोड़,
बनाने पड़ते हैं
अरबों-खरबों के
अस्त्र-शस्त्र
लाखों की संख्या में
तैयार किये जाते हैं सैनिक
सीमाएँ बांधी जाती हैं
समझौते किये जाते हैं
मीलों-मील दूर बैठे
निशाने बांध लिए जाते हैं।
जब हम
शांति के लिए
इतनी तैयारी करते हैं
तो युद्ध क्यों हो जाते हैं?
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रंगों में बहकता है
यह अनुपम सौन्दर्य
आकर्षित करता है,
एक लम्बी उड़ान के लिए।
रंगों में बहकता है
किसी के प्यार के लिए।
इन्द्रधनुष-सा रूप लेता है
सौन्दर्य के आख्यान के लिए।
तरू की विशालता
संवरती है बहार के लिए।
दूर-दूर तम फैला शून्य
समझाता है एक संवाद के लिए।
परिदृश्य से झांकती रोशनी
विश्वास देती है एक आस के लिए।
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अपनी हिम्मत से जीते हैं
बस एक दृढ़ निश्चय हो तो राहें उन्मुक्त हो ही जाती हैं
लक्ष्य पर दृष्टि हो तो बाधाएं स्वयं ही हट जाती हैं
कौन रोक पाता है उन्हें जो अपनी हिम्मत से जीते हैं
प्रयास करते रहने वालों को मंज़िल मिल ही जाती है