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क्या यह दृष्टि-भ्रम है
क्या यह दृष्टि-भ्रम है ?
मुझे नहीं दिखती
गहन जलप्लावन में
सिर पर टोकरी रखे
बच्चे के साथ गहरे पानी में
कोई माँ, डूबती-सी।
-
नहीं अनुभव होता मुझे
किसी किशन कन्हैया
नंद बाबा
यशोदा मैया या देवकी का।
-
शायद बहुत भावशून्य हूँ मैं,
आप कह सकते हैं।
-
मुझे दिखती हैं
अव्यवस्थाएँ
महलों में बनती योजनाएँ
दूरबीन से देखते
डूबता-तिरता आम आदमी
बोतलों में बन्द पानी
विमान से बनाते बांध
आकाश से गिरता भोजन।
-
कुछ दिन में आप ही
निकल जायेगा जल
सम्हल जायेगा आम आदमी
अगले वर्ष की प्रतीक्षा में।
-
लेकिन बस इतना ध्यान रहे
विभीषिका नाम, स्थान,
समय और काल नहीं देखती।
झोंपड़िया टूटती हैं
तो महल भी बिखर जाते हैं।
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एक साल और मिला
अक्सर एक एहसास होता है
या कहूं
कि पता नहीं लग पाता
कि हम नये में जी रहे हैं
या पुराने में।
दिन, महीने, साल
यूं ही बीत जाते हैं,
आगे-पीछे के
सब बदल जाते हैं
किन्तु हम अपने-आपको
वहीं का वहीं
खड़ा पाते हैं।
** ** ** **
अंगुलियों पर गिनती रही दिन
कब आयेगा वह एक नया दिन
कब बीतेगा यह साल
और सब कहेंगे
मुबारक हो नया साल
बहुत-सी शुभकामनाएं
कुछ स्वाभाविक, कुछ औपचारिक।
** ** ** **
वह दिन भी
आकर बीत गया
पर इसके बाद भी
कुछ नहीं बदला
** ** ** **
कोई बात नहीं,
नहीं बदला तो न सही।
पर चलो
एक दिन की ही
खुशियां बटोर लेते हैं
और खुशियां मनाते हैaa
कि एक साल और मिला
आप सबके साथ जीने के लिए।
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बड़ा मुश्किल है Very Difficult
बड़ा मुश्किल है नाम कमाना
मेहनत का फल किसने जाना
बाधाएँ आती हैं आनी ही हैं
किसने राहें रोकी, भूल जाना
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सांझ-सवेरे
रंगों से आकाश सजा है सांझ-सवेरे।
मन में इक आस बनी है सांझ-सवेरे।
सूरज जाता है,चंदा आता है, संग तारे]
भावों का ऐसा ही संगम है सांझ-सवेरे।
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चांद मानों मुस्कुराया
चांद मानों हड़बड़ाया
बादलों की धमक से।
सूरज की रोशनी मिट चुकी थी,
चांद मानों लड़खड़ाया
अंधेरे की धमक से।
लहरों में मची खलबली,
देख तरु लड़खड़ाने लगे।
जल में देख प्रतिबिम्ब,
चांद मानों मुस्कुराया
अपनी ही चमक से।
अंधेरों में भी रोशनी होती है,
चमक होती है, दमक होती है,
यह समझाया हमें चांद ने
अपनेपन से मनन से ।
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ठकोसले बहुत हैं
न मन थका-हारा, न तन थका-हारा
किसी झूठ, किसी सच में फंसा बेचारा
यहां दुनियादारी के ठकोसले बहुत हैं
किस-किससे निपटे, बुरा फंसा बेचारा
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ज़्यादा मत उड़
कौन सी वास्तविकता है
और कौन सा छल,
अक्सर असमंजस में रह जाती हूं।
रोज़ हर रोज़
समाचारों में गूंजती हैं आवाजे़ं
देखो हमने
नारी को
कहां से कहां पहुंचा दिया।
किसी ने चूल्हा बांटा ,
किसी ने गैस,
किसी की सब्सिडी छीनी
तो किसी की आस।
नौकरियां बांट रहे।
घर संवार रहे।
मौज करवा रहे।
स्टेटस दिलवा रहे।
कभी चांद पर खड़ी दिखी।
कभी मंच पर अड़ी दिखी।
आधुनिकता की सीढ़ी पर
आगे और आगे बढ़ी।
अपना यह चित्र देख अघाती नहीं।
अंधविश्वासों ,
कुरीतियों का विरोध कर
मदमाती रही।
प्रंशसा के अंबार लगने लगे।
तुम्हारे नाम के कसीदे
बनने लगे।
साथ ही सब कहने लगे
ऐसी औरतें घर-बार की रहती नहीं
पर तुम अड़ी रही
ज़रा भी डिगी नहीं।
-
ज़्यादा मत उड़ ।
कहीं भी हो आओ
लौटकर यहीं,
यही चूल्हा-चौका करना है।
परम्पराओं के नाम पर
घूंघट की ओट में जीना है।
और ऐसे ही मरना है।।।
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रोशनी की चकाचौंध में
रोशनी की चकाचौंध में अक्सर अंधकार के भाव को भूल बैठते हैं हम
सूरज की दमक में अक्सर रात्रि के आगमन से मुंह मोड़ बैठते हैं हम
तम की आहट भर से बौखलाकर रोशनी के लिए हाथ जला बैठते हैं
ज्योति प्रज्वलित है, फिर भी दीप तले अंधेरा ही ढूंढने बैठते हैं हम
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हंसते-हंसते जी लेना
हंसते-हंसते जी लेना
खुशियों के घूंट पी लेना
क्या होता है जग में
हमको क्या लेना-देना
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कुहासे में उलझी जि़न्दगी
कभी-कभी
छोटी-छोटी रोशनी भी
मन आलोकित कर जाती है।
कुहासे में उलझी जि़न्दगी
एक बेहिसाब पटरी पर
दौड़ती चली जाती है।
राहों में आती हैं
कितनी ही रोशनियां
कितने ठहराव
कुछ नये, कुछ पुराने,
जाने-अनजाने पड़ाव
कभी कोई अनायास बन्द कर देता है
और कभी उन्मुक्तु हो जाते हैं सब द्वार
बस मन आश्वस्त है
कि जो भी हो
देर-सवेर
अपने ठिकाने पहुंच ही जाती है।