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More Articles
जब टिकट किसी का कटता है
सुनते हैं कोई एक भाग्य-विधाता सबके लेखे लिखता है
अलग-अलग नामों से, धर्मों से सबके दिल में बसता है
फिर न जाने क्यों झगड़े होते, जग में इतने लफड़े होते
रह जाता है सब यहीं, जब टिकट किसी का कटता है
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नहीं बनना मुझे नारायणी
लालसा है मेरी
एक ऐसे जीवन की
एक ऐसा जीवन जीने की
जहाँ मैं रहूँ
सदा एक आम इंसान।
नहीं चाहिए
कोई पदवी कोई सम्मान
कोई वन्दन कोई अभिनन्दन।
रिश्तों में बाँध-बाँधकर मुझे
सूली पर चढ़ाते रहते हो।
रिश्ते निभाते-निभाते
जीवन बीत जाता है
पर कहाँ कुछ समझ आता है,
जोड़-तोड़-मोड़ में
सब कुछ उलझा-उलझा-सा
रह जाता है।
शताब्दियों से
एकत्र की गई
सम्मानों की, बलिदान की
एहसान की चुनरियाँ
उढ़ा देते हो मुझे।
इतनी आकांक्षाएँ
इतनी आशाएँ
जता देते हो मुझे।
पूरी नहीं कर पाती मैं
कहीं तो हारती मैं
कहीं तो मन मारती मैं।
अपने मन से कभी
कुछ सोच ही नहीं पाती मैं।
दुर्गा, काली, सीता, राधा, चण्डी,
नारायणी, देवी,
चंदा, चांदनी, रूपमती
झांसी की रानी, पद्मावती
और न जाने क्या-क्या
सब बना डालते हो मुझे।
किन्तु कभी एक नारी की तरह
भी जीने दो मुझे।
नहीं जीतना यह संसार मुझे।
दो रोटी खाकर,
धूप सेंकती,
अपने मन से सोती-जागती
एक आम नारी रहने दो मुझे।
नहीं हूँ मैं नारायणी।
नहीं बनना मुझे नारायणी ।
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हादसा
यह रचना मैंने उस समय लिखी थी जब 1987 में चौधरी चरण सिंह की मृत्यु हुई थी और उसी समय लालडू में दो बसों से उतारकर 43 और 47 सिखों को मौत के घाट उतार दिया था।)
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भूचाल, बाढ़, सूखा।
सामूहिक हत्याएं, साम्प्रदायिक दंगे।
दुर्घटनाएं और दुर्घटनाएं।
लाखों लोग दब गये, बह गये, मर गये।
बचे घायल, बेघर।
प्रशासन निर्दोष। प्राकृतिक प्रकोप।
खानदानी शत्रुता। शरारती तत्व।
विदेशी हाथ।
सरकार का कर्त्तव्य
आंकड़े और न्यायिक जांच।
पदयात्राएं, आयोग और सुझाव।
चोट और मौत के अनुसार राहत।
विपक्षी दल
बन्द का आह्वान।
फिर दंगे, फिर मौत।
सवा सौ करोड़ में
ऐसी रोज़मर्रा की घटनाएं
हादसा नहीं हुआ करतीं।
हादसा तब हुआ
जब एक नब्बे वर्षीय युवा,
राजनीति में सक्रिय
स्वतन्त्रता सेनानी
सच्चा देशभक्त
सर्वगुण सम्पन्न चरित्र
असमय, बेमौत चल बसा
अस्पताल में
दस वर्षों की लम्बी प्रतीक्षा के बाद।
हादसा ! बस उसी दिन हुआ।
देश शोक संतप्त।
देश का एक कर्णधार कम हुआ।
हादसे का दर्द
बड़ा गहरा है
देश के दिल में।
क्षतिपूर्ति असम्भव।
और दवा -
सरकारी अवकाश,
राजकीय शोक, झुके झण्डे
घाट और समाधियां,
गीता, रामायण, बाईबल, कुरान, ग्रंथ साहिब
सब आकाशवाणी और दूरदर्शन पर।
अब हर वर्ष
इस हादसे का दर्द बोलेगा
देश के दिल में
नारों, भाषणों, श्रद्धांजलियों
और शोक संदेशों के साथ।
ईश्वर उनकी दिवंगत आत्मा को
शांति देना।
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चिड़िया ने कहानी सुनाई
अरे,
एक–एक कर बोलो।
थक-हार कर आई हूं,
दाना-पानी लाई हूं,
कहां-कहां से आई हूं।
तुमको रोज़ कहानी चाहिए।
दुनिया की रवानी चाहिए।
अब तुमको क्या बतलाउं मैं
सुन्दर है यह दुनिया
बस लोग बहुत हैं।
रहने को हैं घर बनाते
जैसे हम अपना नीड़ सजाते।
उनके भी बच्चे हैं
छोटे-छोटे
वे भी यूं ही चिन्ता करते,
जब भी घर से बाहर जाते।
प्रेम, नेह , ममता लुटाते।
वे भी अपना कर्त्तव्य निभाते।
रूको, रूको, बतलाती हूं
अन्तर क्या है।
आशाओं, अभिलाषाओं का अन्त नहीं है।
जीने का कोई ढंग नहीं है।
भागम-भाग पड़ी है।
और चाहिए, और चाहिए।
बस यूं ही मार-काट पड़ी है।
घर-संसार भरा-पूरा है,
तो भी लूट-खसोट पड़ी है।
उड़ते हैं, चलते हैं, गिरते हैं,
मरते हैं
पता नहीं क्या क्या करते है।
चाहतें हैं कि बढ़ती जातीं।
बच्चों पर भी डाली जातीं।
बचपन मानों बोझ बना
मां-पिता की इच्छाओं का संसार घना।
अब क्या –क्या बतलाउं मैं।
आज बस इतना ही,
दाना लो और पिओ
जी भरकर विश्राम करो।
बस इतना ही जानो कि
इन तिनकों, पत्तों में,
रूखे-सूखे चुग्गे में,
बूंद-बूंद पानी में,
अपनी इस छोटी सी कहानी में,
जीवन में आनन्द भरा है।
उड़ना तुमको सिखलाती हूं।
बस इतना ही बतलाती हूं।
पंख पसारे
उड़ जाना तुम,
अपनी दुनिया में रहना तुम।
अपना कर्त्तव्य निभाना तुम।
अगली पीढ़ी को
अपने पंखों पर उड़ना सिखलाना तुम।
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रोशनी की एक लकीर
राहें कितनी भी सूनी हों
अंधेरे कितने भी गहराते हों
वक्त के किसी कोने से
रोशनी की एक लकीर
कभी न कभी,
ज़रूर निकलती ही है।
फिर वह एक रेखा हो,
चांद का टुकड़ा
अथवा चमकता सूरज।
इसलिए कभी भी
निराश न होना
अपने जीवन के सूनेपन से
अथवा अंधेरों से
और साथ ही
ज़रूरत से ज़्यादा रोशनी से भी ।
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आशाओं का उगता सूरज
चिड़िया को पंख फैलाए नभ में उड़ते देखा
मुक्त गगन में आशाओं का उगता सूरज देखा
सूरज डूबेगा तो चंदा को भेजेगा राह दिखाने
तारों को दोनों के मध्य हमने विहंसते देखा
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पुष्प निःस्वार्थ भाव से
पुष्प निःस्वार्थ भाव से नित बागों को महकाते।
पंछी को देखो नित नये राग हमें मधुर सुनाते।
चंदा-सूरज दिग्-दिगन्त रोशन करते हरपल,
हम ही क्यों छल-कपट में उलझे सबको बहकाते।
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मन तो घायल होये
मन की बात करें फिर भी भटकन होये
आस-पास जो घटे मन तो घायल होये
चिन्तन तो करना होगा क्यों हो रहा ये सब
आंखें बन्द करने से बिल्ली न गायब होये
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दोराहों- चौराहों को सुलझाने बैठी हूं
छोटे-छोटे कदमों से
जब चलना शुरू किया,
राहें उन्मुक्त हुईं।
ज़िन्दगी कभी ठहरी-सी
कभी भागती महसूस हुई।
अनगिन सपने थे,
कुछ अपने थे,
कुछ बस सपने थे।
हर सपना सच्चा लगता था।
हर सपना अच्छा लगता था।
मन की भटकन थी
राहों में अटकन थी।
हर दोराहे पर, हर चौराहे पर,
घूम-घूमकर जाते।
लौट-लौटकर आते।
जीवन में कहीं खो जाते।
समझ में ही थी तकरार
दुविधा रही अपार।
सब पाने की चाहत थी,
पर भटके कदमों की आहट थी।
क्या पाया, क्या खोया,
कभी कुछ समझ न आया।
अब भी दोराहों- चौराहों को
सुलझाने बैठी हूं,
न जाने क्यों ,
अब तक इस में उलझी बैठी हूं।
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तितलियां
फूल-फूल से पराग चुराती तितलियां
उड़ती-फिरती, मुस्कुराती तितलियां
पंख जोड़ती, पंख खोलतीं रंग सजाती
उड़-उड़ जातीं, हाथ न आतीं तितलियां