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कल डाली पर था आज गुलदान में
कवियों की सोच को न जाने क्या हुआ है, बस फूलों पर मन फिदा हुआ है
किसी के बालों में, किसी के गालों में, दिखता उन्हें एक फूल सजा हुआ है
प्रेम, सौन्दर्य, रस का प्रतीक मानकर हरदम फूलों की चर्चा में लगे हुये हैं
कल डाली पर था, आज गुलदान में, और अब देखो धरा पर पड़ा हुआ है।
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अपनी कमज़ोरियों को बिखेरना मत
ज़रा सम्हलकर रहना,
अपनी पकड़ बनाकर रखना।
मन की सीमाओं पर
प्रहरी बिठाकर रखना।
मुट्ठियां बांधकर रखना।
भौंहें तानकर रखना।
अपनी कमज़ोरियों को
मंच पर
बिखेरकर मत रखना।
मित्र हो या शत्रु
नहीं पहचान पाते,
जब तक
ठोकर नहीं लगती।
फिर आंसू मत बहाना,
कि किसी ने धोखा दिया,
या किया विश्वासघात।
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परिवर्तन नित्य है
सन्मार्ग पर चलने के लिए रोशनी की बस एक किरण ही काफ़ी है
इरादे नेक हों, तो, राही दो हों न हों, बढ़ते रहें, इतना ही काफ़ी है
सूर्य अस्त होगा, रात आयेगी, तम भी फैलेगा, संगी साथ छोड़ देंगे,
तब भी राह उन्मुक्त है, परिवर्तन नित्य है, इतना जानना ही काफ़ी है
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कौन-सा विषय चुनूँ
यह दुनिया है। आप कहेंगे कि आपको पता है कि यह दुनिया है। किन्तु बहुत बार ऐसा होता है कि हमें वह भी स्मरण करना पड़ता है जो है, जो दिखाई देता है, सुनाई देता है, चुभता है, चीखता है अथवा जो हम जानते हैं। क्योंकि सत्य का सामना करने में बहुत जोखिम होते हैं, उलझनें, समस्याएँ होती हैं। इस कारण इसे हम नकारते हैं और बस अपना राग अलापते हैं। क्या सच में ही आपके आस-पास कोई हलचल, खलबली, हंगामा, उपद्रव, उथल-पुथल, सनसनी, आन्दोलन नहीं है ? आस-पास, आपके परिवेश में, सड़क पर, समाचार-पत्रों से मिल रहे ज्ञान से, मीडिया से मिलने वाले समाचारों से, न जाने कितने विषय हैं जो हमारे आस-पास तैरते रहते हैं किन्तु हम उन्हें नकारते रहते हैं।
ऐसा तो नहीं हो सकता, कुछ तो होगा और अवश्य होगा। और हम जो तथाकथित कवि अथवा साहित्यकार कहलाते हैं या अपने को ऐसा समझते हैं तो हम ज़्यादा भावुक और संवेदनशील कहलातेे हैं। फिर हमें आज ऐसी आवाज़ें क्यों सुनाई नहीं दे रहीं। सबसे बड़ी समस्या यह कि यदि हम भुक्तभोगी भी होते हैं तब भी ऐसी बात कहने से, अथवा खुली चर्चा से डरने लगे हैं।
कुछ बने-बनाये विषय हैं आज हमारे पास लेखन के लिए। सबसे बड़ा विषय नारी है, बेचारी है, मति की मारी है, संस्कारी है, लेकिन है बुरी। या तो गंवार है अथवा आधुनिका, किन्तु दोनों ही स्थितियों में वह सामान्य नहीं है। भ्रूण हत्या है, बेटी है, निर्धनता है आदि-आदि। कहीं बहू बुरी है तो कहीं सास। कहीं दोनों ही। बेटा कुपूत है। बुरे बहू-बेटा हैं, कुपूत हैं, माता-पिता के धन के लालची हैं, उनकी सेवा न करने वाले बुरे बच्चे हैं। उनकी सम्पत्ति पर नज़र रखे हैं।जितने पति हैं सब पत्नियों के गुलाम हैं। उनके कहने से अपने माता-पिता की सेवा नहीं करते उन्हें वृद्धाश्रम भेज देते हैं। और जब यह सब चुक जाये तो हम अत्यन्त आस्तिक हैं और इस विषय पर हम अबाध अपनी कलम चला सकते हैं। विशेषकर फ़ेसबुक का सारा कविता संसार इन्हीं विषयों से घिरा हुआ है। मुझे क्यों आपत्ति? मुझे नहीं आपत्ति। मैं भी तो आप सबके साथ ही हूँ।
सोचती हूँ आज इनमें से कौन-सा विषय चुनूँ कि रचना नवीन प्रतीत हो।
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दादाजी से गुड़िया बोली
दादाजी से गुड़िया बोली,
स्कूल चलो न, स्कूल चलो न।
दादाजी को गुड़िया बोली
मेरे संग पढ़ो न, मेरे संग पढ़ो न।
मां हंस हंस होती लोट-पोट,
भैया देखे मुझको।
दादाजी बोले,
स्कूल चलूंगा, स्कूल चलूंगा।
मुझको एक ड्र्ैस सिलवा दे न।
सुन्दर सा बस्ता,
काॅपी-पैन ला दे न।
अपनी क्लास में
मेरा नाम लिखवा दे न।
तू मुझको ए बी सी सिखलाना,
मैं तुझको अ आ इ ई सिखलाउंगा।
मेरी काम करेगी तू,
मैं तुझको टाॅफ़ी दिलवाउंगा।
मेरी रोटी भी बंधवा लेना
नहीं तो मैं तेरी खा जाउंगा।
गुड़िया बोली,
न न न न, दादाजी,
मैं अपनी रोटी न दूंगी,
आप अभी बहुत छोटे हैं,
थोड़े बड़े हो जाओ न।
अभी तो तुम
मेरे घोड़े ही बन जाओ न।
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है हौंसला बुलन्द
उन राहों पर निकले हैं जिनका आदि न कोई अन्त
न आगे है कोई न पीछे है, दिखता दूर कहीं दिगन्त
देखने में रंगीनियां हैं, सफ़र है, समां सुहाना लगता है
टेढ़ी-मेढ़ी राहें हैं, पथ दुर्गम है, पर है हौंसला बुलन्द
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इंसानियत को जीत
अपने भीतर झांककर इंसानियत को जीत
कर सके तो कर अपनी हैवानियत पर जीत
क्या करेगा किसी के गुण दोष देखकर
पूजा, अर्चना, आराधना का अर्थ है बस यही
कर ऐसे कर्म बनें सब इंसानियत के मीत
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मन के पिंजरे खोल रे मनवा
मन विहग!
मन के पिंजरे खोल रे मनवा,
मन के बंधन तोड़ रे मनवा।
कुछ तो टूटेगा,
कुछ तो बिखरेगा,
कुछ तो बदलेगा।
गगन विशाल,
उड़ान बड़ी है,
पंख मिले छोटे,
कुछ कतरे गये।
कुछ टूटे,
कुछ बिखर गये।
चाहत न छोड़,
मन को न मोड़,
उड़ान भर,
आज नहीं तो कल,
कल नहीं तो कभी,
या फिर अभी
चाहतों को जोड़,
मन को न मोड़।
उड़ान भर।
न डर, बस
मन के पिंजरे खोल रे मनवा,
मन के बंधन तोड़ रे मनवा।
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कुछ और नाम न रख लें
समाचार पत्र
कभी मोहल्ले की
रौनक हुआ करते थे।
एक आप लेते थे
एक पड़ोसियों से
मांगकर पढ़ा करते थे।
पूरे घर की
माँग हुआ करते थे।
दिनों-दिन
बातचीत का
आधार हुआ करते थे,
चैपाल और काॅफ़ी हाउस में
काफ़ी से ज़्यादा गर्म
चर्चा का आधार हुआ करते थे।
विश्वास का
नाम हुआ करते थे।
ज्ञान-विज्ञान की
खान हुआ करते थे।
नित नये काॅलम
पूरे परिवार के
मनोरंजन का
आधार हुआ करते थे।
-
मानों
युग बदल गया।
अब
समाचार पत्रों में
सब मिलता है
बस
समाचार नहीं मिलते।
कोई मुद्दे,
कोई भाव नहीं मिलते।
पृष्ठ घटते गये
विज्ञापन बढ़ते गये।
चार पन्नों को
उलट-पुलटकर
पलभर में रख देते हैं।
चित्र बड़े हो रहे हैं
पर कुछ बोलते नहीें।
बस
डराते हैं
धमकाते हैं
और चले जाते हैं।
कहानियाँ रह गईं
सत्य कहीं बिखर गया।
अन्त में लिखा रहता है
अनेक जगह
इन समाचारों/विचारों का
हमारा कोई दायित्व नहीं।
तो फिर
इनका
कुछ और नाम न रख लें।
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कैसा दुर्भाग्य है मेरा
कैसा दुर्भाग्य है मेरा
कि जब तक
मेरे साथ दो बैल
और ग़रीबी की रेखा न हो
मुझे कोई पहचानता ही नहीं।
जब तक
मैं असहाय, शोषित न दिखूँ
मुझे कोई किसान
मानता ही नहीं।
मेरी
इस हरी-भरी दुनियाँ में
एक सुख भरा संसार भी है
लहलहाती कृषि
और भरा-पूरा
परिवार भी है।
गुरूर नहीं है मुझे
पर गर्व करता हूँ
कि अन्न उपजाता हूँ
ग्रीष्म-शिशिर सब झेलता हूँ,
आशाओं में जीता हूँ
आशाएँ बांटता हूँ।
दुख-सुख तो
आने-जाने हैं।
अरबों-खरबों के बड़े-बड़े महल
अक्सर भरभराकर गिर जाते हैं,
तो कृषि की
असामयिक आपदा के लिए
हम सदैव तैयार रहते हैं,
हमारे लिए
दान-दया की बात कौन करता है
हम नहीं जानते।
अपने बल पर जीते हैं
श्रम ही हमारा धर्म है
बस इतना ही हम मानते।