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सहज भाव से जीना है जीवन
कल क्या था,बीत गया,कुछ रीत गया,छोड़ उन्हें
खट्टी थीं या मीठी थीं या रिसती थीं,अब छोड़ उन्हें
कुछ तो लेख मिटाने होंगे बीते,नया आज लिखने को
सहज भाव से जीना है जीवन,कल की गांठें,खोल उन्हें
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अन्तर्मन की आवाजें
अन्तर्मन की आवाजें अब कानों तक पहुंचती नहीं
सन्नाटे को चीरकर आती आवाजें अन्तर्मन को भेदती नहीं
यूं तो पत्ता भी खड़के, तो हम तलवार उठा लिया करते हैं
पर बडे़-बडे़ झंझावातों में उजडे़ चमन की बातें झकझोरती नहीं
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अपने केश संवरवा लेना
बंसी बजाना ठीक था
रास रचाना ठीक था
गैया चराना ठीक था
माखन खाना,
ग्वाल-बाल संग
वन-वन जाना ठीक था।
यशोदा मैया
गूँथती थी केश मेरे
उसको सताना ठीक था।
कुरुक्षेत्र की यादें
अब तक मन को
मथती हैं
बड़े-बड़े महारथियों की
कथाएँ अब तक
मन में सजती हैं।
पर राधे !
अब मुझको यह भी करना होगा!!
अब मुझको
राजनीति छोड़
तुम्हारी लटों में उलझना होगा!!!
न न न, मैं नहीं अब आने वाला
तेरी उलझी लटें
मैं न सुलझाने वाला।
और काम भी करने हैं मुझको
चक्र चलाना, शंख बजाना,
मथुरा, गोकुल, द्वापर, हस्तिनापुर
कुरुक्षेत्र
न जाने कहाँ-कहाँ मुझको है जाना।
मेरे जाने के बाद
न जाने कितने नये-नये युग आये हैं
जिनका उलटा बजता ढोल
मुझे सताये है।
इन सबको भी ज़रा देख-परख लूँ
और समझ लूँ,
कैसे-कैसे इनको है निपटाना।
फिर अपने घर लौटूँगा
थक गया हूँ
अवतार ले-लेकर
अब मुझको अपने असली रूप में है आना
तुम्हें एक लिंक देता हूँ
पार्लर से किसी को बुलवा लेना
अपने केश संवरवा लेना।
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वक्त की रफ्तार देख कर
वक्त की रफ्तार देख कर
मैंने कहा, ठहर ज़रा,
साथ चलना है मुझे तुम्हारे।
वक्त, ऐसा ठहरा
कि चलना ही भूल गया।
आज इस मोड़ पर समझ आया,
वक्त किसी के साथ नहीं चलता।
वक्त ने बहुत आवाज़ें दी थीं,
बहुत बार चेताया था मुझे,
द्वार खटखटाया था मेरा,
किन्तु न जाने
किस गुरूर में था मेरा मन,
हवा का झोंका समझ कर
उपेक्षा करती रही।
वक्त के साथ नहीं चल पाते हम।
बस हर वक्त
किसी न किसी वक्त को कोसते हैं।
एक भी
ईमानदार कोशिश नहीं करते,
अपने वक्त को,
अपने सही वक्त को पहचानने की ।
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कौन हैं अपने कौन पराये
कुछ मुखौटै चढ़े हैं, कुछ नकली बने हैं
किसे अपना मानें, कौन पराये बने हैं
मीठी-मीठी बातों पर मत जाना यारो
मानों खेत में खड़े बिजूका से सजे हैं
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मेरा नाम श्रमिक है
कहते हैं
पैरों के नीचे
ज़मीन हो
और सिर पर छत
तो ज़िन्दगी
आसान हो जाती है।
किन्तु
जिनके पैरों के नीचे
छत हो
और सिर पर
खुला आसमान
उनका क्या !!!
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दर्दे दिल के निशान
काश! मेरा मन रेत का कोई बसेरा होता।
सागर तट पर बिखरे कणों का घनेरा होता।
दर्दे दिल के निशान मिटा देतीं लहरें, हवाएं,
सागर तल से उगता हर नया सवेरा होता।
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मुस्कानों की भाषा लिखूं
छलक-छलक-छलकती बूंदें,
मन में रस भरती बूंदें
लहर-लहर लहराता आंचल
मन हरषे जब घन बरसे
मुस्कानों की भाषा लिखूं
हवाओं संग उड़ान भरूं मैं
राग बजे और साज बजे
मन ही मन संगीत सजे
धारा संग बहती जाती
अपने में ही उड़ती जाती
कोई न रोके कोई न टोके
जीवन-भर ये हास सजे।
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खुले हैं वातायन
इन गगनचुम्बी भवनों में भी
भाव रहते हैं ।
कुछ सागर से गहरे
कुछ आकाश को छूते
परस्पर सधे रहते हैं।
यहां भी उन्मुक्त हैं द्वार,
खुले हैं वातायन, घूमती हैं हवाएं
यहां भी गूंजती हैं किलकारियां ,
हंसता है सावन ।
बादल उमड़ते-घुमड़ते हैं ।
हां, यह हो सकता है
कुछ कम या ज़्यादा होता हो,
पर समय की मांग है यह सब ।
कितनी भी अवहेलना कर लें
किन्तु हम मन ही मन
यही चाहते हैं ।
फिर भी
पता नहीं क्यों हम
बस यूं ही डरे-डरे रहते हैं।
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गरीबी हटेगी, गरीबी हटेगी
पिछले बहत्तर साल से
देश में
योजनाओं की भरमार है
धन अपार है।
मन्दिर-मस्जिद की लड़ाई में
धन की भरमार है।
चुनावों में अरबों-खरबों लुट गये
वादों की, इरादों की ,
किस्से-कहानियों की दरकार है।
खेलों के मैदान पर
अरबों-खरबों का खिलवाड़ है।
रोज़ पढ़ती हूं अखबार
देर-देर तक सुनती हूं समाचार।
गरीबी हटेगी, गरीबी हटेगी
सुनते-सुनते सालों निकल गये।
सुना है देश
विकासशील से विकसित देश
बनने जा रहा है।
किन्तु अब भी
गरीब और गरीबी के नाम पर
खूब बिकते हैं वादे।
वातानूकूलित भवनों में
बन्द बोतलों का पानी पीकर
काजू-मूंगफ़ली टूंगकर
गरीबी की बात करते हैं।
किसकी गरीबी,
किसके लिए योजनाएं
और किसे घर
आज तक पता नहीं लग पाया।
किसके खुले खाते
और किसे मिली सहायता
आज तक कोई बता नहीं पाया।
फिर वे
अपनी गरीबी का प्रचार करते हैं।
हम उनकी फ़कीरी से प्रभावित
बस उनकी ही बात करते हैं।
और इस चित्र को देखकर
आहें भरते हैं।
क्योंकि न वे कुछ करते हैं।
और न हम कुछ करते हैं।