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निद्रा पर एक झलकी
जब खरी–खरी कह लेते हैं,नींद भली-सी आती है
ज़्यादा चिकनी-चुपड़ी ठीक नहीं,चर्बी बढ़ जाती है
हृदयाघात का डर नहीं, औरों की नींद उड़ाते हैं
हमको तो जीने की बस ऐसी ही शैली आती है
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नेह की डोर
कुछ बन्धन
विश्वास के होते हैं
कुछ अपनेपन के
और कुछ एहसासों के।
एक नेह की डोर
बंधी रहती है इनमें
जिसका
ओर-छोर नहीं होता
गांठें भी नहीं होतीं
बस
अदृश्य भावों से जुड़ी
मन में बसीं
बेनाम
बेमिसाल
बेशकीमती।
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अटल बिहारी वाजपेयी के प्रति
हिन्दी को वे नाम दे गये, हिन्दी को पहचान दे गये ।
अटल वाणी से वे जग में अपनी अलग पहचान दे गये।
शत्रु से हाथ मिलाकर भी ताकत अपनी दिखलाई थी ,
विश्व-पटल पर अपनी वाणी से भारत को पहचान दे गये।
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किसने मेरी तक़दीर लिखी
न जाने कौन था वह
जिसने मेरी तक़दीर लिखी
ढूँढ रही हूँ उसे
जिसने मेरी तस्वीर बनाई।
मिले कभी तो पूछूँगी,
किसी जल्दी में थे क्या
आधा-अधूरा लिखा पन्ना
छोड़कर चल दिये।
आधे काॅलम मुझे खाली मिले।
अब बताओ भला
ऐसे कैसे जीऊँ भरपूर ज़िन्दगी।
मिलो तो कभी,
अपनी तक़दीर देना मेरे हाथ
फिर बताऊँगी तुम्हें
कैसे बीतती है ऐसे
आधी-अधूरी ज़िन्दगी।
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कितना मुश्किल होता है
कितना मुश्किल होता है
जब रोटी गोल न पकती है
दूध उफ़नकर बहता है
सब बिखरा-बिखरा रहता है।
तब बच्चा दिनभर रोता है
न खाता है न सोता है
मन उखड़ा-उखडा़ रहता है।
कितना मुश्किल होता है
जब पैसा पास न होता है
रोज़ नये तकाज़े सुनता
मन सहमा-सहमा रहता है।
तब आंखों में रातें कटती हैं
पल-भर काम न होता है
मन हारा-हारा रहता है।
कितना मुश्किल होता है,
जब वादा मिलने का करते हैं
पर कह देते हैं भूल गये,
मन तनहा-तनहा रहता है।
तब तपता है सावन में जेठ,
आंखों में सागर लहराता है
मन भीगा-भीगा रहता है ।
कितना मुश्किल होता है
जब बिजली गुल हो जाती है
रात अंधेरी घबराती है
मन डरा-डरा-सा रहता है।
तब तारे टिमटिम करते हैं
चांदी-सी रात चमकती है
मन हरषा-हरषा रहता है।
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ऋद्धि सिद्धि बुध्दि के नायक
वक्रतुण्ड , एकदन्त, चतुर्भुज, फिर भी रूप तुम्हारा मोहक है
शांत चित्त, स्थिर पद्मासन में बैठै प्रिय भोज तुम्हारा मोदक है
ऋद्धि सिद्धि बुध्दि के नायक, क्षुद्र मूषक को सम्मान दिया
शिव गौरी के सुत, मां के वचन हेतु अपना मस्तक बलिदान किया
शांत चित्त, स्थिर पद्मासन में बैठै जग का नित कल्याण किया
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मन में एक जंगल है
मन में एक जंगल है
विचारों का, भावों का।
एक झंझावात की तरह आते हैं
अन्तर्मन को झिंझोड़ते हैं,
तहस-नहस करते हैं
और हवा के झोंके के साथ
अचानक
कहीं दूर उड़ जाते हैं।
कभी शब्द दे पाती हूं
और कभी नहीं।
लिखे शब्द पिघलने लगते हैं
आसमानी बादलों की तरह।
कहीं दूर उड़ जाते हैं
पक्षी की तरह।
हर बार एक कही-अनकही
आधी-अधूरी कहानी रह जाती है।
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सुनो कृष्ण
सुनो कृष्ण !
मैं नहीं चाहती
किसी द्रौपदी को
तुम्हें पुकारना पड़े।
मैं नहीं चाहती
किसी युद्ध का तुम्हें
मध्यस्थ बनना पड़े।
नहीं चाहती मैं
किसी ऐसे युद्ध के
साक्षी बनो तुम
जहाँ तुम्हें
शस्त्र त्याग कर
दर्शक बनना पड़े।
नहीं चाहती मैं
तुम युद्ध भी न करो
किन्तु संचालक तुम ही बनो।
मैं नहीं चाहती
तुम ऐसे दूत बनो
जहाँ तुम
पहले से ही जानते हो
कि निर्णय नहीं होगा।
मैं नहीं चाहती
गीता का
वह उपदेश देना पड़े तुम्हें
जिसे इस जगत में
कोई नहीं समझता, सुनता,
पालन करता।
मैं नहीं चाहती
कि तुम इतना गहन ज्ञान दो
और यह दुनिया
फिर भी दूध-दहीं-ग्वाल-बाल
गैया-मैया-लाड़-लड़ैया में उलझी रहे,
राधा का सौन्दर्य
तुम्हारी वंशी, लालन-पालन
और तुम्हारी ठुमक-ठुमैया
के अतिरिक्त उन्हें कुछ स्मरण ही न रहे।
तुम्हारा चक्र, तुम्हारी शंख-ध्वनि
कुछ भी स्मरण न करें,
न करें स्मरण
युद्धों का उद्घोष
समझौतों का प्रयास
अपने-पराये की पहचान की समझ,
न समझें तुम्हारी निर्णय-क्षमता
अपराधियों को दण्डित करने की नीति।
झुकने और समझौतों की
क्या सीमा-रेखा होती है
समझ ही न सकें।
मैं नहीं चाहती
कि तुम्हारे नाम के बहाने
उत्सवों-समारोहों में
इतना खो जायें
तुम पर इतना निर्भर हो जायें
कि तनिक-से कष्ट में
तुम्हें पुकारते रहें
कर्म न करें,
प्रयास न करें,
अभ्यास न करें।
तुम्हारे नाम का जाप करते-करते
तुम्हें ही भूल जायें,
बस यही नहीं चाहती मैं
हे कृष्ण !
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मन में सुबोल वरण कर
तर्पण कर,
मन अर्पण कर,
कर समर्पण।
भाव रख, मान रख,
प्रण कर, नमन कर,
सबके हित में नाम कर।
अंजुरि में जल की धार
लेकर सत्य की राह चुन।
मन-मुटाव छांटकर
वैर-भाव तिरोहित कर।
अपनों को स्मरण कर,
उनके गुणों का मनन कर।
राहों की तलाश कर
जल-से तरल भाव कर।
कष्टों का हरण कर,
मन में सुबोल वरण कर।