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More Articles
कर्मनिष्ठ जीवन तो जीना होगा
ये कैसा रंगरूप अब तुम ओढ़कर चले हो,
क्यों तुम दुनिया से यूं मुंह मोड़कर चले हो,
कर्मनिष्ठ-जीवन में विपदाओं से जूझना होगा,
त्याग के नाम पर कौन से सफ़र पर चले हो।
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आई आंधी टूटे पल्लव पल भर में सब अनजाने
जीवन बीत गया बुनने में रिश्तों के ताने बाने।
दिल बहला था सबके सब हैं अपने जाने पहचाने।
पलट गए कब सारे पन्ने और मिट गए सारे लेख
आई आंधी, टूटे पल्लव,पल भर में सब अनजाने !!
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ये सूर्य रश्मियां
वृक्षों की आड़ से
झांकती हैं कुछ रश्मियां
समझ-बूझकर चलें
तो जीवन का अर्थ
समझाती हैं ये रश्मियां
मन को राहत देती हैं
ये खामोशियां
जीवन के एकान्त को
मुखर करती हैं ये खामोशियां
जीवन के उतार-चढ़ाव को
समझाती हैं ये सीढ़ियां
दुख-सुख के पल आते-जाते हैं
ये समझा जाती हैं ये सीढ़ियां
पाषाणों में
पढ़ने को मिलती हैं
जीवन की अनकही कठोर दुश्वारियां
समझ सकें तो समझ लें
हम ये कहानियां
अपनेपन से बात करती
मन को आश्वस्त करती हैं
ये तन्हाईयां
अपने लिए सोचने का
समय देती हैं ये तन्हाईयां
और जीवन में
आनन्द दे जाती हैं
छू कर जातीं
मौसम की ये पुरवाईयां
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मेरे पास बहुत सी उम्मीदें हैं
मेरे पास बहुत सी उम्मीदें हैं
जिन्हें रखने–सहेजने के लिए,
मैं बार बार पर्स खरीदती हूं–
बहुत सी जेबों वाले
चेन, बटन, खुले मुंह
और ताले वाले।
फिर अलग अलग जेबों में
अलग अलग उम्मीदों को
सम्हालकर रख देती हूं।
और चिट लगा देती हूं
कि कहीं
किसी उम्मीद को भुनाते समय
कोई और उम्मीद न निकल जाये।
पर पता नहीं, कब
सब उम्मीदें गड्ड मड्ड हो जाती हैं।
कभी कहीं कोई उम्मीद गिर जाती है
तो कभी बिखर जाती है।
चिट लगी रहने के बावजूद,
ताला और चेन जड़े रहने के बावजूद,
उम्मीदों का रंग बदल जाता है,
तो कभी चिट पर लिखा नाम ही
और कभी उसका स्थान।
फिर पर्स में कहीं कोई छिद्र भी नहीं
फिर भी सिलती हूं, टांकती हूं, बदलती हूं।
पर उम्मीद है कि टिकती नहीं
पर मुझे
अभी भी उम्मीद है
कि एक दिन हर उम्मीद पूरी होगी।
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कुछ तो हुआ होगा
कुछ तो हुआ होगा
जो हाथों में मशालें उठीं
कुछ तो किया होगा
जो सड़कों पर आहें उगीं
कुछ तो जला होगा
जो नारों से गलियां गूंजीं
कुछ तो सहा होगा
जो शहर-शहर भीड़ उमड़ी
इतना आसान नहीं लगता मुझे
कि शहर-शहर
किसी एक बात को लेकर
किसी को यूं भड़काया जा सके
युवक ही नहीं
युवतियों को भी उकसाया जा सके
पुस्तकालयों में पढ़ते बच्चे
कैसे सड़कों पर आ बैठे
नहीं जानते हम, नहीं पढ़ते हम
नहीं समझते हम
सुनी-सुनाई, अधकचरी सूचनाओं से
भड़कते हम।
बस , कचरा परोसा जा रहा
गली-गली परनाले बहते
हम उसे उंडेल उंडेल कर
नाक सिकुड़ते, भौं मरोड़ते
सच्चाई के पीछे भागते
तो हाथ जलते
कहां से शुरू हो रहा
और कहां होगा अन्त
नहीं जानते हम।
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कूड़े-कचरे में बचपन बिखरा है
आंखें बोलती हैं
कहां पढ़ पाते हैं हम
कुछ किस्से खोलती हैं
कहां समझ पाते हैं हम
किसी की मानवता जागी
किसी की ममता उठ बैठी
पल भर के लिए
मन हुआ द्रवित
भूख से बिलखते बच्चे
बेसहारा अनाथ
चल आज इनको रोटी डालें
दो कपड़े पुराने साथ।
फिर भूल गये हम
इनका कोई सपना होगा
या इनका कोई अपना होगा,
कहां रहे, क्या कह रहे
क्यों ऐसे हाल में है
हमारी एक पीढ़ी
कूड़े-कचरे में बचपन बिखरा है
किस पर डालें दोष
किस पर जड़ दें आरोप
इस चर्चा में दिन बीत गया !!
सांझ हुई
अपनी आंखों के सपने जागे
मित्रों की महफ़िल जमी
कुछ गीत बजे, कुछ जाम भरे
सौ-सौ पकवान सजे
जूठन से पंडाल भरा
अनायास मन भर आया
दया-भाव मन पर छाया
उन आंखों का सपना भागा आया
जूठन के ढेर बनाये
उन आंखों में सपने जगाये
भर-भर उनको खूब खिलाये
एक सुन्दर-सा चित्र बनाया
फे़सबुक पर खूब सजाया
चर्चा का माहौल बनाया
अगले चुनाव में खड़े हो रहे हम
आप सबको अभी से करते हैं नमन
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अजब-सी भटकन है
फ़िरकी की तरह
घूमती है ज़िन्दगी।
कभी इधर, कभी उधर।
दुनियादारी में उलझी
कभी सुलझी, कभी न सुलझी।
अपनी-सी न लगती
जैसे उधारी किसी की।
अजब-सी भटकन है
कामनाओं का पर्वत है
उम्र पूछती है नाम।
अक्सर मन करता है
चादर ले
सिर ढक और लम्बी तान।
किन्तु
उन सलवटों का क्या करुं
जिन्हें वर्षों से छुपाती आ रही हूँ,
उन धागों का क्या करुँ
जिन्हें दुनिया-भर में तानती आ रही हूँ।
.
यार ! छोड़ अब ये ढकोसले।
बस, अपनी छान।
चादर ले
सिर ढक और लम्बी तान।
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मां तो बस मां होती है
मां का कोई नाम नहीं होता,
मां का कोई दाम नहीं होता
मां तो बस मां होती है
उसका कोई अलग पता नहीं होता ।
मेरे संग पढ़ती,
खेल खिलौने देती,
रातों की नींदों में,
सपनों में,
लोरी में,
परियों की कथा कहानी में,
कपड़े लत्ते में,
रोटी टिफिन में ,
सब जगह रहती है मां ।
कब सोती है
कब उठती,
पता नहीं होता ।
जो चाहिए वो देती है मां।
मेरे अन्दर बाहर है मां,
मां तो बस मां होती है ।
कोई मुझसे पूछे ,
कहां कहां होती है मां।
क्या होती है मां।
मां तो बस मां होती है ।
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कृष्ण की पुकार
न कर वन्दन मेंरा
न कर चन्दन मेरा
अपने भीतर खोज
देख क्रंदन मेरा।
हर युग में
हर मानव के भीतर जन्मा हूं।
न महाभारत रचा
न गीता पढ़ी मैंने
सब तेरे ही भीतर हैं
तू ही रचता है।
ग्वाल-बाल, गैया-मैया, रास-रचैया
तेरी अभिलाषाएं
नाम मेरे मढ़ता है।
बस राह दिखाई थी मैंने
न आयुध बांटे
न चक्रव्यूह रचे मैंने
लाक्षाग्रह, चीर-वीर,
भीष्म-प्रतिज्ञाएं
सब तू ही करता है
और अपराध छुपाने को अपना
नाम मेरा रटता है।
पर इस धोखे में मत रहना
तेरी यह चतुराई
कभी तुझे बचा पायेगी।
कुरूक्षेत्र अभी लाशों से पटा पड़ा है
देख ज़रा जाकर
तू भी वहीं कहीं पड़ा है।
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मैं और मेरी बिल्लो रानी
छुप्पा छुप्पी खेल रहे थे
कहां गये सब साथी
हम यहां बैठे रह गये
किसने मारी भांजी
शाम ढली सब घर भागे
तू मत डर बिल्लो रानी
मेरे पीछे आजा
मैं हूं आगे आगे
दूध मलाई रोटी दूंगी
मां मंदिर तो जा ले।