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कहलाते शिव भोले-भाले थे पर गरल उन्होंने पिया था
विषधर उनके आभूषण थे त्रिशूल हाथ में लिया था
भूत-प्रेत संग नरमुण्डों की माला पहने, बजता था डमरू
त्रिनेत्र खोल तीनों लोकों के दुष्टों का संहार उन्होंने किया था
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कड़वाहटों को बो रहे हैं हम
गत-आगत के मोह में आज को खो रहे हैं हम
जो मिला या न मिला इस आस को ढो रहे हैं हम
यहां-वहां, कहां-कहां, किस-किसके पास क्या है
इसी कशमकश में कड़वाहटों को बो रहे हैं हम
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मन गीत गुने
मृदंग बजे
सुर-साज सजे
मन-मीत मिले
मन गीत गुने
निर्जन वन में
वन-फूल खिले
अबोल बोले
मन-भाव बने
इस निर्जन में
इस कथा कहे
अमर प्रेम की
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प्रेम प्रतीक बनाये मानव
चहक-चहक कर
फुदक-फुदक कर
चल आज नया खेल हम खेंलें।
प्रेम प्रतीक बनाये मानव,
चल हम इस पर इठला कर देखें।
तू क्या देखे टुकुर-टुकुर,
तू क्या देखे इधर-उधर,
कुछ बदला है, कुछ बदलेगा।
कर लो तुम सब स्वीकार अगर,
मौसम बदलेगा,
नव-पल्लव तो आयेंगे।
अभी चलें कहीं और
लौटकर अगले मौसम में,
घर हम यहीं बनायेंगे।
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जीवन की गति एक चक्रव्यूह
जीवन की गति
जब किसी चक्रव्यूह में
अटकती है
तभी
अपने-पराये का एहसास होता है।
रक्त-सम्बन्ध सब गौण हो जाते हैं।
पता भी नहीं लगता
कौन पीठ में खंजर भोंक गया ,
और किस-किस ने सामने से
घेर लिया।
व्यूह और चक्रव्यूह
के बीच दौड़ती ज़िन्दगी,
अधूरे प्रश्र और अधूरे उत्तर के बीच
धंसकर रह जाती है।
अधसुनी, अनसुनी कहानियां
लौट-लौटकर सचेत करती हैं,
किन्तु हम अपनी रौ में
चेतावनी समझ ही नहीं पाते,
और अपनी आेर से
एक अधबुनी कहानी छोड़कर
चले जाते हैं।
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कांगड़ी बोली में छन्दमुक्त कविता
चल मनां अज्ज सिमले चलिए,
पहाड़ां दी रौनक निरखिए।
बसा‘च जाणा कि
छुक-छुक गड्डी करनी।
टेडे-फेटे मोड़़ा‘च न डरयां,
सिर खिड़किया ते बा‘र न कड्यां,
चल मनां अज्ज सिमले चलिए।
-
माल रोडे दे चक्कर कटणे
मुंडु-कुड़ियां सारे दिखणे।
भेडुआं साई फुदकदियां छोरियां,
चुक्की लैंदियां मणा दियां बोरियां।
बालज़ीस दा डोसा खादा
जे न खादे हिमानी दे छोले-भटूरे
तां सिमले दी सैर मनदे अधूरे।
रिज मदानां गांधी दा बुत
लकड़ियां दे बैंचां पर बैठी
खांदे मुंगफली खूब।
गोल चक्कर बणी गया हुण
गुफ़ा, आशियाना रैस्टोरैंट।
लक्कड़ बजारा जाणा जरूर
लकड़िया दी सोटी लैणी हजूर।
जाखू जांगें तां लई जाणी सोटी,
चड़दे-चड़दे गोडे भजदे,
बणदी सा‘रा कन्ने
बांदरां जो नठाणे‘, कम्मे औंदी।
स्कैंडल पाईंट पर खड़े लालाजी
बोलदे इक ने इक चला जी।
मौसम कोई बी होये जी
करना नीं कदी परोसा जी।
सुएटर-छतरी लई ने चलना
नईं ता सीत लई ने हटणा।
यादां बड़ियां मेरे बाॅल
पर बोलदे लिखणा 26 लाईनां‘च हाल।
हिन्दी अनुवाद
चल मन आज शिमला चलें,
पहाडों की रौनक देखें।
बस में जाना या
छुक-छुक गाड़ी करनी।
टेढ़े-मेढ़े मोड़ों से न डरना
सिर खिड़की से बाहर न निकालना
चल मन आज शिमला चलें।
माल रोड के चक्कर काटने
लड़के-लड़कियां सब देखने
भेड़ों की तरह फुदकती हैं लड़कियां
उठा लेती हैं मनों की बोरियां।
बालज़ीस का डोसा खाया
और यदि न खाये हिमानी के भटूरे
तो शिमले की सैर मानेंगे अधूरे।
रिज मैदान पर गांधी का बुत।
लकड़ियों के बैंचों पर बैठकर
खाई मूंगफ़ली खूब।
गोल चक्कर बन गया अब
गुफ़ा, आशियाना रैस्टोरैंट।
लक्कड़ बाज़ार जाना ज़रूर।
लकड़ी की लाठी लेना हज़ूर।
जाखू जायेंगे तो ले जाना लाठी,
चढ़ते-चढ़ते घुटने टूटते
साथ बनती है सहारा,
बंदरों को भगाने में आती काम।
स्कैंडल प्वाईंट पर खड़े लालाजी
कहते हैं एक के साथ एक चलो जी।
मौसम कोई भी हो
करना नहीं कभी भरोसा,
स्वैटर-छाता लेकर चलना,
नहीं तो शीत लेकर हटना।
यादें बहुत हैं मेरे पास
पर कहते हैं 26 पंक्तियों में लिखना है हाल।
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जब मन में कांटे उगते हैं
हमारी आदतें भी अजीब सी हैं
बस एक बार तय कर लेते हैं
तो कर लेते हैं।
नज़रिया बदलना ही नहीं चाहते।
वैसे मुद्दे तो बहुत से हैं
किन्तु इस समय मेरी दृष्टि
इन कांटों पर है।
फूलों के रूप, रस, गंध, सौन्दर्य
की तो हम बहुत चर्चा करते हैं
किन्तु जब भी कांटों की बात उठती है
तो उन्हें बस फूलों के
परिप्रेक्ष्य में ही देखते हैं।
पता नहीं फूलों के संग कांटे होते हैं
अथवा कांटों के संग फूल।
लेकिन बात दाेनों की अक्सर
साथ साथ होती है।
बस इतना ही याद रखते हैं हम
कि कांटों से चुभन होती है।
हां, होती है कांटों से चुभन।
लेकिन कांटा भी तो
कांटे से ही निकलता है।
आैर कभी छीलकर देखा है कांटे को
भीतर से होता है रसपूर्ण।
यह कांटे की प्रवृत्ति है
कि बाहर से तीक्ष्ण है,
पर भीतर ही भीतर खिलते हैं फूल।
संजोकर देखना इन्हें,
जीवन भर अक्षुण्ण साथ देते है।
और
जब मन में कांटे उगते हैं
तो यह पलभर का उद्वेलन नहीं होता।
जीवन रस
सूख सूख कर कांटों में बदल जाता है।
कोई जान न पाये इसे
इसलिए कांटों की प्रवृत्ति के विपरीत
हम चेहरों पर फूल उगा लेते हैं
और मन में कांटे संजोये रहते हैं ।
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उल्लू बोला मिठू से
उल्लू बोला मिठू से
चल आज नाम बदल लें
तू उल्लू बन जा
और मैं बनता हूँ तोता,
फिर देखें जग में
क्या-क्या होता।
जो दिन में होता
गोरा-गोरा,
रात में होता काला।
मैं रातों में जागूँ
दिन में सोता
मैं निद्र्वंद्व जीव
न मुझको देखे कोई
न पकड़ सके कोई।
-
आजा नाम बदल लें।
-
फिर तुझको भी
न कोई पिंजरे में डालेगा,
और आप झूठ बोल-बोलकर
तुझको न बोलेगा कोई
हरि का नाम बोल।
-
चल आज नाम बदल लें
चल आज धाम बदल लें
कभी तू रातों को सोना
कभी मैं दिन में जागूँ
फिर छानेंगे दुनिया का
सच-झूठ का कोना-कोना।
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ऋद्धि सिद्धि बुध्दि के नायक
वक्रतुण्ड , एकदन्त, चतुर्भुज, फिर भी रूप तुम्हारा मोहक है
शांत चित्त, स्थिर पद्मासन में बैठै प्रिय भोज तुम्हारा मोदक है
ऋद्धि सिद्धि बुध्दि के नायक, क्षुद्र मूषक को सम्मान दिया
शिव गौरी के सुत, मां के वचन हेतु अपना मस्तक बलिदान किया
शांत चित्त, स्थिर पद्मासन में बैठै जग का नित कल्याण किया
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मैंने तो बस यूं बात की
न मिलन की आस की , न विरह की बात की
जब भी मिले बस यूं ही ज़रा-सी बात ही बात की
ये अच्छा रहा, न चिन्ता बनी, न मन रमा कहीं
कुछ और न समझ लेना मैंने तो बस यूं बात की
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अभिनन्दन करते मातृभूमि का
वन्दन करते, अभिनन्दन करते मातृभूमि का जिस पर हमने जन्म लिया।
लोकतन्त्र देता अधिकार असीमित, क्या कर्त्तव्यों की ओर कभी ध्यान दिया।
देशभक्ति के नारों से, कुछ गीतों, कुछ व्याखानों से, जय-जय-जयकारों से ,
पूछती हूं स्वयं से, इससे हटकर देशहित में और कौन-कौन-सा कर्म किया।