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कहलाते शिव भोले-भाले थे पर गरल उन्होंने पिया था
विषधर उनके आभूषण थे त्रिशूल हाथ में लिया था
भूत-प्रेत संग नरमुण्डों की माला पहने, बजता था डमरू
त्रिनेत्र खोल तीनों लोकों के दुष्टों का संहार उन्होंने किया था
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रोज़ पढ़ती हूं भूल जाती हूं
जीवन के सिखाये गये पाठ
बार बार दोहराती हूं।
रोज़ याद करती हूं, पर भूल जाती हूं ।
पुस्तकें पढ़कर नहीं चलता जीवन,
यह जानकर भी
वही पाठ बार-बार दोहराती हूं ।
सब कहते हैं, पढ़ ले, पढ़ ले,
जीवन में कुछ आगे बढ़ ले ।
पर मेरी बात
कोई क्यों नहीं समझ पाता।
कुछ पन्ने, कुछ हिसाब-बेहिसाब
कभी समझ ही नहीं पाती हूं,
लिख-लिखकर दोहराती हूं ।
कभी स्याही चुक जाती है ,
कभी कलम छूट जाती है,
अपने को बार-बार समझाती हूं ।
फिर भी,
रोज़ याद करती हूं ,भूल जाती हूं ।
ज़्यादा गहराईयों से
डर लगता है मुझे
इसलिए कितने ही पन्ने
अधपढ़े छोड़ आगे बढ़ जाती हूं ।
कोई तो समझे मेरी बात ।
कहते हैं,
तकिये के नीचे रख दो किताब,
जिसे याद करना हो बेहिसाब,
पर ऐसा करके भी देख लिया मैंने
सपनों में भी पढ़कर देख लिया मैंने,
बस, इसी तरह जीती चली जाती हूं ।
.
रोज़ पढ़ती हूं भूल जाती हूं ।
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पाप की हो या पुण्य की गठरी
पाप की हो या
पुण्य की गठरी
तो भारी होती है।
कौन करेगा निर्णय
पाप क्या
या पुण्य क्या!
तू मेरे गिनता
मैं तेरे गिनती,
कल के डर से
काल के डर से
सहम-सहम
चलते जीवन में।
इहलोक यहीं
परलोक यहीं
सब लोक यहीं
यहीं फ़ैसला कर लें।
कल किसने देखा
चल आज यहीं
सब भूल-भुलाकर
जीवन
जी भर जी लें।
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रंगों में बहकता है
यह अनुपम सौन्दर्य
आकर्षित करता है,
एक लम्बी उड़ान के लिए।
रंगों में बहकता है
किसी के प्यार के लिए।
इन्द्रधनुष-सा रूप लेता है
सौन्दर्य के आख्यान के लिए।
तरू की विशालता
संवरती है बहार के लिए।
दूर-दूर तम फैला शून्य
समझाता है एक संवाद के लिए।
परिदृश्य से झांकती रोशनी
विश्वास देती है एक आस के लिए।
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जीवन की डगर चल रही
राहें पथरीली
सुगम सुहातीं।
कदम-दर कदम
चल रहे
साथ न छूटे
बात न छूटे,
अगली-पिछली भूल
बस बढ़ते जाते।
साथ-साथ
चलते जाते।
क्यों आस करें किसी से
हाथों में हाथ दे
बढ़ते जाते।
जीवन की डगर चल रही,
मंज़िल की ओर बढ़ रही,
न किसी से शिकवा
न शिकायत।
धीरे-धीरे
पग-भर सरक रही,
जीवन की डगर चल रही।
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कहां जानती है ज़िन्दगी
कदम-दर-कदम
बढ़ती है ज़िन्दगी।
कभी आकाश
तो कभी पाताल
नापती है ज़िन्दगी।
पंछी-सा
उड़ान भरता है कभी मन,
तो कभी
रंगीनियों में खेलता है।
कब उठेंगे बवंडर
और कब फंसेंगे भंवर में,
यह बात कहां जानती है ज़िन्दगी।
यूं तो
साहस बहुत रखते हैं
आकाश छूने का
किन्तु नहीं जानते
कब धरा पर
ला बिठा देगी ज़िन्दगी।
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नदिया से मैंने पूछा
नदिया से मैंने पूछा
कल-कल कर क्यों बहती हो।
बहते-बहते
कभी सिमट-सिमट कर
कभी बिखर-बिखर जाती हो।
कभी मधुर संगीत छेड़ती
कभी विकराल रूप दिखाती हो।
कभी सूखी,
कभी लहर-लहर लहराती हो।
नदिया बोली,
मुझसे क्या पूछ रहे
तुम भी तो ऐसे ही हो मानव।
पर मैं आज तुम्हें चेताती हूं।
इसीलिए,
कल-कल की बातें कहती हूं।
समझ सको तो, सम्हल सको तो
रूक कर, ठहर-ठहर कर
सोचो तुम।
बहते-बहते, सिमट-सिमट कर
अक्सर क्यों बिखर-बिखर जाती हूं ।
मधुर संगीत छेड़ती
क्यों विकराल रूप दिखाती हूं।
जब सूखी,
फिर कहां लहर-लहर लहराती हूं।
मैं आज तुम्हें चेताती हूं।
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श्रम की धरा पर पांव धरते हैं
श्रम की धरा पर पांव धरते हैं
न इन राहों से डरते हैं
दिन-भर मेहनत कर
रात चैन की नींद लेते हैं
कहीं भी कुछ नया
या अटपटा नहीं लगता
यूं ही
जीवन की राहों पर चलते हैं
न बड़े सपनों में जीते हैं
न आहें भरते हैं।
न किसी भ्रम में रहते हैं
न आशाओं का
अनचाहा जाल बुनते हैं।
पर इधर कुछ लोग आने लगे हैं
हमें औरत होने का एहसास
कराने लगे हैं
कुछ अनजाने-से
अनचाहे सपने दिखाने लगे हैं
हमें हमारी मेहनत की
कीमत बताने लगे हैं
दया, दुख, पीड़ा जताने लगे हैं
महल-बावड़ियों के
सपने दिखाने लगे हैं
हमें हमारी औकात बताने लगे हैं
कुछ नारे, कुछ दावे, कुछ वादे
सिखाने लगे हैं
मिलें आपसे तो
मेरी ओर से कहना
एक बार धरा पर पांव रखकर देखो
काम को छोटा या बड़ा न देखकर
बस मेहनत से काम करके देखो
ईमान की रोटी तोड़ना
फिर रात की नींद लेकर देखो
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न स्वर्ण रहा न स्वर्णाभा रही
कुन्दन अब रहा किसका मन
बहके-बहके हैं यहां कदम
न स्वर्ण रहा न स्वर्णाभा रही
पारस पत्थर करता है क्रन्दन
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माँ का प्यार
माँ का अँक
एक सुरक्षा-कवच
कभी न छूटे
कभी न टूटे
न हो विलग।
माँ के प्राण
किसी तोते समान
बसते हैं
अपने शिशु में
कभी न हों विलग।
जीवन की आस
बस तेरे साथ
जीवन यूँ ही बीते
तेरी साँस मेरी आस।
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और भर दे पिचकारी में
शब्दों में नवरस घोल और भर दे पिचकारी में
स्नेह की बोली बोल और भर दे पिचकारी में
आशाओं-विश्वासों के रंग बना, फिर जल में डाल
इस रंग को रिश्तों में घोल और भर दे पिचकारी में
मन की सारी बातें खोल और भर दे पिचकारी में
मन की बगिया में फूल खिला, और भर दे पिचकारी में
अगली-पिछली भूल, नये भाव जगा,और भर दे पिचकारी में
हंसी-ठिठोली की महफिल रख और भर दे पिचकारी में
सब पर रंग चढ़ा, सबके रंग उड़ा, और भर दे पिचकारी में
मीठे में मिर्ची डाल, मिर्ची में मीठा घोल और भर दे पिचकारी में
इन्द्रधनुष को रोक, रंगों के ढक्कन खोल और भर दे पिचकारी में
मीठा-सा कोई गीत सुना, नई धुन बना और भर दे पिचकारी में
भावों के तार मिला, सुर सजा और भर दे पिचकारी में
तारों की झिलमिल, चंदा की चांदनी धरा पर ला और भर दे पिचकारी में
बच्चे की किलकारी में चिड़िया की चहक मिला और भर दे पिचकारी में
छन्द की चिन्ता छोड़, टूटा फूटा जोड़ और भर दे पिचकारी में
मात्राओं के बन्धन तोड़, कर ले तू भी होड़ और भर दे पिचकारी में
भावों के तार मिला, सुर सजा और भर दे पिचकारी में
तारों की झिलमिल, चंदा की चांदनी धरा पर ला और भर दे पिचकारी में
बच्चे की किलकारी में चिड़िया की चहक मिला और भर दे पिचकारी में
इतना ही सूझा है जब और सूझेगा तब फिर भर दूंगी पिचकारी में