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चाहती हूं खोल दूं कपाट सारे
पर स्वतन्त्र नहीं हैं ये कपाट
चिटखनियों, कुण्डों
और कब्ज़ों में जकड़े ये कपाट।
जंग खाया हुआ सब।
पुराना और अर्थहीन।
कहीं से टेढ़े, टूटे, उलझे
ये पुरातात्विक पहरेदार।
चाहती हूं
उखाड़ फेंकूं इन सबको।
बदल देना चाहती हूं
सब पल भर में ।
औज़ार भी जुटाये हैं मैंने।
पर मैं ! विवश !
कपाट को कपाट के रूप में
प्रयोग करने में असमर्थ।
मेरे औज़ार छोटे
पहरेदार बड़े, मंजे हुए।
फिर इन्हें जंग भी पसन्द है
और अपना टेढ़ा टूटापन भी।
मेरे औज़ार इन्हें
विपक्ष का समझौता लगते हैं।
ताज़ी हवा को ये
घुसपैठिया समझते हैं।
और फूलों की गंध से इन्हें
विदेशी हस्तक्षेप की बू आती है।
इनका कहना है
कि कपाट खोल का प्रयास
हमारा षड्यन्त्र है।
पुरातात्विक अवशेषों,
इतिहास और संस्कृति को
नष्ट कर देने का।
पर अद्भुत तो यह
कि ये पुरातात्विक अवशेष
इतिहास और संस्कृति के ये जड़ प्रतीक
बन्द कपाटों के भीतर भी
बढ़ते ही जा रहे हैं दिन प्रति दिन।
ज़मीन के भीतर भी
और ज़मीन के बाहर भी।
वैसे, इतना स्वयं भी नहीं जानते वे
कि यदि उनका जंग घिसा नहीं गया
तेल नहीं दिया गया इनमें
तो स्वयं ही काट डालेगा
इन्हें एक दिन।
और अनजाने में ही
बन्द कपाटों पर
इनकी पकड़ कमज़ोर हो जायेगी।
कपाट खोलने
बहुत ज़रूरी हो गये हैं।
क्योंकि, हम सब
बाहर होकर भी कहीं न कहीं
कपाटों के भीतर जकड़े गये हैं।
अत: मैंने सोच लिया है
कि यदि औज़ार काम नहीं आये
तो मैं दीमक बनकर
कपाटों पर लग जाउंगी।
न सही तत्काल, धीरे धीरे ही सही
कपाट अन्दर ही अन्दर मिट्टी होने लगेंगे।
पहरेदार समझेंगे
उनके हाथ मज़बूत हो रहे हैं।
फिर एक दिन
पहरेदार, खड़े के खड़े रह जायेंगे
और बन्द दरवाज़े, टूटी खिड़कियां
पुरानी दीवारें
सब भरभराकर
गिर जायेंगे
कपाट स्वयंमेव खुल जायेंगे।
फिर रोशनी ही रोशनी
नयापन, ताज़ी हवा और ज़िन्दगी
सब मिलेगा एक दिन
सब बदलेगा एक दिन।
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मेरी कागज़ की नाव खो गई
कागज़ की नाव में
जितने सपने थे
सब अपने थे।
छोटे-छोटे थे
पर मन के थे ।
न डूबने की चिन्ता
न सपनों के टूटने की चिन्ता।
तिरती थी,
पलटती थी,
टूट-फूट जाती थी,
भंवर में अटकती थी,
रूक-रूक जाती थी,
एक जाती थी,
एक और आ जाती थी।
पर सपने तो सपने थे
सब अपने थे]
न टूटते थे न फूटते थे,
जीवन की लय
यूं ही बहती जाती थी।
फिर एक दिन
हम बड़े हो गये
सपने भारी-भारी हो गये।
अपने ही नहीं
सबके हो गये।
पता ही नहीं लगा
वह कागज़ की नाव
कहां खो गई।
कभी अनायास यूं ही
याद आ जाती है
तो ढूंढने निकल पड़ते हैं,
किन्तु भारी सपने कहां
पीछा छोड़ते हैं।
सपने सिर पर लादे घूम रहे हैं,
अब नाव नहीं बनती।
मेरी कागज़ की नाव
न जाने कहां खो गई
मिल जाये तो लौटा देना।
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हम श्मशान बनने लगते हैं
इंसान जब मर जाता है,
शव कहलाता है।
जिंदा बहुत शोर करता था,
मरकर चुप हो जाता है।
किन्तु जब मर कर बोलता है,
तब प्रेत कहलाता है।
.
श्मशान में टूटती चुप्पी
बहुत भयंकर होती है।
प्रेतात्माएं होती हैं या नहीं,
मुझे नहीं पता,
किन्तु जब
जीवित और मृत
के सम्बन्ध टूटते हैं,
तब सन्नाटा भी टूटता है।
कुछ चीखें
दूर तक सुनाई देती हैं
और कुछ
भीतर ही भीतर घुटती हैं।
आग बाहर भी जलती है
और भीतर भी।
इंसान है, शव है या प्रेतात्मा,
नहीं समझ आता,
जब रात-आधी-रात
चीत्कार सुनाई देती है,
सूर्यास्त के बाद
लाशें धधकती हैं,
श्मशान से उठती लपटें,
शहरों को रौंद रही हैं,
सड़कों पर घूम रही हैं,
बेखौफ़।
हम सिलेंडर, दवाईयां,
बैड और अस्पताल का पता लिए,
उनके पीछे-पीछे घूम रहे हैं
और लौटकर पंहुच जाते हैं
फिर श्मशान घाट।
.
फिर चुपचाप
गणना करने लगते हैं, भावहीन,
आंकड़ों में उलझे,
श्मशान बनने लगते हैं।
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छोटा हूं पर समझ बड़ी है
छोटा हूं पर समझ बड़ी है।
मुझको छोटा न जानो।
बड़के भैया, छुटके भैया,
बहना मेरी और बाबा
सब अच्छे-अच्छे कपड़े पहनें।
सज-धजकर रोज़ जाते,
मैं और अम्मां घर रह जाते।
जब मैं कहता अम्मां से
मुझको भी अच्छे कपड़े दिलवा दे,
मुझको भी बाहर जाना है।
तब-तब मां से पड़ती डांट
तू अभी छोटा छौना है।
यह छौना क्या होता है,
न बतलाती मां।
न नहलाती, न कपड़े पहनाती,
बस कहती, ठहर-ठहर।
भैया जाते बड़की साईकिल पर
बहना जाती छोटी साईकिल पर।
बाबा के पास कार बड़ी।
मैं भी मांगू ,
मां मुझको घोड़ा ला दे रे।
मां के पीछे-पीछे घूम रहा,
चुनरी पकड़कर झूम रहा।
मां मुझको कपड़े पहना दे,
मां मुझको घोड़ा ला दे।
मां ने मुझको गैया पर बिठलाया।
यह तेरा घोड़ा है, बतलाया।
मां बड़ी सीधी है,
न जाने गैया और घोड़ा क्या होता है।
पर मैंने मां को न समझाया,
न मैंने सच बतलाया,
कि मां यह तो गैया है, मैया है।
संध्या बाबा आयेंगे।
उनको बतलाउंगा,
मां गैया को घोड़ा कहती है,
मां को इतना भी नहीं पता।
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कभी तुम भी अग्नि-परीक्षा में खरे उतरो
ममता, नेह, मातृछाया बरसाने वाली नारी में भी चाहत होती है
कोई उसके मस्तक को भी सहला दे तो कितनी राहत होती है
पावनता के सारे मापदण्ड बने हैं बस एक नारी ही के लिए
कभी तुम भी अग्नि-परीक्षा में खरे उतरो यह भी चाहत होती है
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चल आगे बढ़ जि़न्दगी
भूल-चूक को भूलकर, चल आगे बढ़ जि़न्दगी
अच्छा-बुरा सब छोड़कर, चल आगे बढ़ जि़न्दगी
हालातों से कभी-कभी समझौता करना पड़ता है
बदले का भाव छोड़कर, चल आगे बढ़ जि़न्दगी
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खाली कागज़ पर लकीरें खींचता रहता हूं मैं
खाली कागज पर लकीरें
खींचती रहती हूं मैं।
यूं तो
अपने दिल का हाल लिखती हूं,
पर सुना नहीं सकती
इस जमाने को,
इसलिए कह देती हूं
यूं ही
समय बिताने के लिए
खाली कागज पर लकीरें
खींचती रहती हूं मैं।
जब कोई देख लेता है
मेरे कागज पर
उतरी तुम्हारी तस्वीर,
पन्ना पलट कर
कह देती हूं,
यूं ही
समय बिताने के लिए
खाली कागज पर
लकीरें
खींचती रहती हूं मैं।
कोई गलतफहमी न
हो जाये किसी को
इसलिए
दिल का हाल
कुछ लकीरों में बयान कर
यूं ही
खाली कागज पर
लकीरें
खींचती रहती हूं मैं।
पर समझ नहीं पाती,
यूं ही
कागज पर खिंची खाली लकीरें
कब रूप ले लेती हैं
मन की गहराईयों से उठी चाहतों का
उभर आती है तुम्हारी तस्वीर ,
डरती हूं जमाने की रूसवाईयों से
इसलिए
अब खाली कागज पर लकीरें
भी नहीं खींचती हूं मैं।
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मौत की दस्तक
कितनी
सरल-सहज लगती थी ज़िन्दगी।
खुली हवाओं में सांस लेते,
जैसी भी मिली है
जी रहे थे ज़िन्दगी।
कभी ठहरी-सी,
कभी मदमाती, हंसाती,
छूकर, मस्ती में बहती,
कभी रुलाती,
हवाओं संग
लहराती, गाती, मुस्काती।
.
पर इधर
सांसें थमने लगी हैं।
हवाओं की
कीमत लगने लगी है।
आज हवाओं ने
सांसों की कीमत बताई है।
जिन्दगी पर
पहरा बैठा दिया है हवाओं ने।
मौत की दस्तक सुनाने लगी हैं।
रुकती हैं सांसें, बिंधती हैं सांसें,
कीमत मांगती हैं सांसें।
अपनों की सांसें चलाने के लिए
हवाओं से जूझ रहे हैं अपने।
.
शायद हम ही
बदलती हवाओं का रुख
पहचान नहीं पाये,
इसीलिए हवाएं
आज
हमारी परीक्षा ले रही हैं।
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मुखौटे बहुत चढ़ाते हैं लोग
गुब्बारों में हँसी लाया हूँ
चेहरे पर चेहरा लगाकर
खुशियों का
सामान बांटने आया हूँ।
कुछ पल बांट लो मेरे साथ
जीवन को हँसी
बनाने आया हूँ।
चेहरों पर
मुखौटे बहुत चढ़ाते हैं लोग
पर मैं अपने मुखौटै से
तुम्हें हँसाने आया हूँ।
गुब्बारे फूट जायेंगे
हवा बिखर जायेगी,
या उड़ जायेंगे आकाश में
ग़म न करना
ज़िन्दगी का सच
समझाने आया हूँ।
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बोध
बोध
खण्डित दर्पण में चेहरा देखना
अपशकुन होता है
इसलिए तुम्हें चाहिए
कि तुम
अपने इस खण्डित दर्पण को
खण्ड-खण्ड कर लो
और हर टुकड़े में
अपना अलग चेहरा देखो।
फिर पहचानकर
अपना सही चेहरा अलग कर लो
इससे पहले
कि वह फिर से
किन्हीं गलत चेहरों में खो जाये।
असलियत तो यह
कि हर टुकड़े का
अपना एक चेहरा है
जो हर दूसरे से अलग है
हर चेहरा एक टुकड़ा है
जो दर्पण में बना करता है
और तुम, उस दर्पण में
अपना सही चेहरा
कहीं खो देते हो
इसलिए तुम्हें चाहिए
कि दर्पण मत संवरने दो।
पर अपना सही चेहरा अलगाते समय
यह भी देखना
कि कभी-कभी, एक छोटा-टुकड़ा
अपने में
अनेक चेहरे आेढ़ लिया करता है
इसलिए
अपना सही अलगाते समय
इतना ज़रूर देखना
कि कहीं तुम
गलत चेहरा न उठा डालो।
आश्चर्य तो यह
कि हर चेहरे का टुकड़ा
तुम्हारा अपना है
और विडम्बना यह
कि इन सबके बीच
तुम्हारा सही चेहरा
कहीं खो चुका है।
ढू्ंढ सको तो अभी ढूंढ लो
क्योंकि दर्पण बार-बार नहीं टूटा करते
और हर खण्डित दर्पण
हर बार
अपने टुकड़ों में
हर बार चेहरे लेकर नहीं आया करता
टूटने की प्रक्रिया में
अक्सर खरोंच भी पड़ जाया करती है
तब वह केवल
एक शीशे का टुकड़ा होकर रह जाता है
जिसकी चुभन
तुम्हारे अलग-अलग चेहरों की पहचान से
कहीं ज़्यादा घातक हो सकती है।
जानती हूं,
कि टूटा हुआ दर्पण कभी जुड़ा नहीं करता
किन्तु जब भी कोई दर्पण टूटता है
तो मैं भीतर ही भीतर
एक नये सिरे से जुड़ने लगती हूं
और उस टूटे दर्पण के
छोटे-छोटे, कण-कण टुकड़ों में बंटी
अपने-आपको
कई टुकड़ों में पाने लगती हूं।
समझने लगती हूं
टूटना
और टूटकर, भीतर ही भीतर
एक नये सिरे से जुड़ना।
टूटने का बोध मुझे
सदा ही जोड़ता आया है।
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एक संस्मरण आम का अचार
आम का अचार डालना भी
एक पर्व हुआ करता था परिवार में।
आम पर बूर पड़ने से पहले ही
घर भर में चर्चा शुरू हो जाती थी।
इतनी चर्चा, इतनी बात
कि होली दीपावली पर्व भी फीके पड़ जायें।
परिवार में एक शगुन हुआ करता था
आम का अचार।
इस बार कितने किलो डालना है अचार
कितनी तरह का।
कुतरा भी डलेगा, और गुठली वाला भी
कतौंरा किससे लायेंगे
फिर थोड़ी-सी सी चटनी भी बनायेंगे।
तेल अलग से लाना होगा
मसाले मंगवाने हैं, धूप लगवानी है
पिछली बार मर्तबान टूट गया था
नया मंगवाना है।
तनाव में रहती थी मां
गर्मी खत्म होने से पहले
और बरसात शुरू होने से पहले
डालना है अचार।
और हम प्रतीक्षा करते थे
कब आयेंगे घर में अचार के आम।
और जब आम आ जाते थे घर में
सुच्चेपन का कर्फ्यू लग जाता था।
और हम आंख बचाकर
दो एक आम चुरा ही लिया करते थे
और चाहते थे कि दो एक आम
तो पके हुए निकल आयें
और हमारे हवाले कर दिये जायें।
लाल मिर्च और नमक लगाकर
धूप में बैठकर दांतों से गुठलियां रगड़ते
और मां चिल्लाती
“ओ मरी जाणयो दंद टुटी जाणे तुहाड़े”।
और जब नया अचार डल जाता था
तो पूरा घर एक आनन्द की सांस लेता था
और दिनों तक महकता था घर
और जब नया अचार डल जाता था
तब दिनों दिनों तक महकता था घर
उस खुशनुमा एहसास और खुशबू से
और जब नया अचार डल जाता था
मानों कोई किला फ़तह कर लिया जाता था।
और उस रात बड़ी गहरी नींद सोती थी मां।
अब चिन्ता शुरू हो जाती थी
खराब न हो जाये
रोज़ धूप लगवानी है
सीलन से बचाना है
तेल डलवाना है।
फिर पता नहीं किस जादुई कोने से
पिछले साल के अचार का एक मर्तबान
बाहर निकल आता था।
मां खूब हंसती तब
छिपा कर रख छोड़ा था
आने जाने वालों के लिए
तुम तो एक गुठली नहीं छोड़ते।