Share Me
क्रांति उस चिड़िया का नाम है
जिसे नई पीढ़ी ने जन्म दिया।
पुरानी पीढ़ी उसके पैदा होते ही
उसके पंख काट देना चाहती है।
लेकिन नई पीढ़ी उसे उड़ना सिखाती है।
जब वह उड़ना सीख जाती है
तो पुरानी पीढ़ी
उसके लिए,
एक सोने का पिंजरा बनवाती है
और यह कहकर उसे कैद कर लेती है
कि नई पीढ़ी तो उसे मार ही डालती।
यह तो उसकी सुरक्षा सुविधा का प्रबन्ध है।
वर्षों बाद
जब वह उड़ना भूल जाती है
तो पिंजरा खोल दिया जाता है
क्योंकि
अब तक चिड़िया उड़ना भूल गई है
और सोने का मूल्य भी बढ़ गया है
इसलिए उसे बेच दिया जाता हे
नया लोहे का लिया जाता है
जिसमें नई पीढ़ी को
इस अपराध में बन्द कर दिया जाता है
आजीवन
कि उसने हमें खत्म करने,
मारने का षड्यन्त्र रचा था
हत्या करनी चाही थी हमारी।
Share Me
Write a comment
More Articles
जब जैसी आन पड़े वैसी होती है मां
मां मां ही नहीं होती
पूरा घर होती है मां।
दरवाज़े, खिड़कियां, दीवारें,
चौखट, परछत्ती, परदे, बाग−बगीचे,
बाहर−भीतर सब होती है मां।
चूल्हे की लकड़ी − उपले से लेकर
गैस, माइक्रोवेव और माड्यूल किचन तक होती है मां।
दाल –रोटी, बर्तन –भांडे, कपड़े –लत्ते,
साफ़ सफ़ाई, सब होती है मां।
कैलेण्डर, त्योहार, दिन,तारीख
सब होती है मां।
मीठी चीनी से लेकर नीम की पत्ती, तुलसी,
बर्गर − पिज्जा तक सब होती है मां।
कलम दवात से लेकर
कम्प्यूटर, मोबाईल तक सब होती है मां।
स्कूल की पढ़ाई, कालेज की मस्ती,
जब चाहा जेब खर्च
आंचल मे गलतियों को छुपाती
सब होती है मां।
कभी सोती नहीं, बीमार होती नहीं।
सहज समर्पित,
रिश्तों को बांधती, सहेजती, समेटती,
दुर्गा, काली, चंडी,
सहस्रबाहु, सहस्रवाहिनी,
जब जैसी आन पड़े, वैसी होती है मां।
Share Me
मधुर-मधुर पल
प्रकृति अपने मन से
एक मुस्कान देती है।
कुछ रंग,
कुछ आकार देती है।
प्यार की आहट
और अपनेपन की छांव देती है।
कलियां
नवजीवन की आहट देती हैं।
खिलते हैं फूल
जीवन का आसार देती हैं।
जब गिरती हैं पत्तियां
रक्तवर्ण
मन में एक चाहत का भास देती हैं।
समेट लेती हूं मुट्ठी में
मधुर-मधुर पलों का आभास देती हैं।
Share Me
मोबाईल: आवश्यकता अथवा व्यसन
हमारी एक प्रवृत्ति हो गई है कि हम बहुत जल्दी किसी भी बात की आलोचना अथवा सराहना करने लगते हैं। कोई एक करता है और फिर सब करने लगते हैं जैसे मानों नम्बर बनाने हों कि किसने कितनी आलोचना कर ली अथवा सराहना कर ली। जैसे हमारी विचार-शक्ति समाप्त हो जाती है और हम निर्भाव बहती धारा के साथ बहने लगते हैं।
मोबाईल!!!
आधुनिकता के इस युग में मोबाईल जीवन की आवश्यकता बन चुका है। चाहे कितनी भी आलोचना कर लें किन्तु वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों में इसके महत्व और आवश्यकता को उपेक्षित नहीं किया जा सकता। हाँ, इतना अवश्य है कि आपको मोबाईल किस स्तर का चाहिए और किस कार्य के लिए।
एक समय था जब विद्यालयों में मोबाईल ले जाना प्रतिबन्धित था। फिर समय ऐसा आया कि यही मोबाईल शिक्षा का केन्द्र बन गया। कोराना काल ने आम आदमी के जीवन में इतने परिवर्तन कर दिये कि एक बार तो वह स्वयं ही समझ नहीं पाया कि यह सब क्या हो रहा है। जब तक समझ आती, जीवन की धाराएँ ही बदल चुकीं थीं।
शिक्षा का यह ऐसा काल था, लगभग दो वर्ष का, जिसने शिक्षा, ज्ञान और परीक्षाओं के सारे प्रतिमान ही बदल कर रख दिये। शिक्षा की इस नवीन प्रणाली ने पारिवारिक व्यवस्थाएँ, आवश्यकताएँ, जीवन का ढाँचा ही बदल कर रख दिया। देश के मध्यमवर्गीय परिवारों में रोटी से अधिक महत्वपूर्ण मोबाईल हो उठे। फिर वह पहली कक्षा का विद्यार्थी हो अथवा किसी बड़ी कक्षा का। किसी-किसी परिवार में एक साथ दो-दो लैपटॉप और तीन-चार मोबाईल की आवश्यकता उठ खड़ी हुई अर्थात लाखों का व्यय। आय बन्द, व्यवसाय बन्द, वेतन आधा और मोबाईल ज़रूरी। ऐसे कितने ही परिवार मैंने इस समय में देखे जहाँ माता-पिता के पास एक-एक मोबाईल था और पिता के पास लैपटॉप। अब तीन बच्चे। तीनों की एक समय ऑनलाईन क्लास। माता अध्यापिका। अब एक लैपटॉप और तीन मोबाईल की अनिवार्यता उठ खड़ी हुई। चाहिए भी एंड्राएड अर्थात कम से कम 15-20 हज़ार प्रति। जहाँ मोबाईल पढ़ाई की आवश्यकता बने वहाँ आदत का हिस्सा भी। असीमित ज्ञान का भण्डार। आय-व्यय, बैंकिंग, भुगतान-प्राप्ति का सरल साधन, डिजिटल पेमंट, खेल का माध्यम। बच्चे घर में बैठकर पूरी दुनिया से जुड़ रहे थे, ज्ञान का असीमित भण्डार का पिटारा मानों उनके सामने खुल गया था और वे अचम्भित थे। माता-पिता से जल्दी बच्चे यह सब सीखने लगे। इसमें कहीं भी कुछ भी ग़लत अथवा ठीक नहीं कहा जा सकता था, यह सब समय की आवश्यकता के कारण विकसित हो रहा था, जो धीरे-धीरे हमारे स्वभाव का हिस्सा बनता गया। यदि शिक्षा के क्षेत्र में यह मोबाईल न होता तो बच्चे दो वर्ष पीछे चले जाते और उन्होंने ऑन लाईन जो ज्ञान प्राप्त किया, आधुनिकता से जुड़े, वह एक बहुत बड़ा अभाव रह जाता।
आज का समय ऐसा नहीं है कि बच्चे विद्यालय से निकले और घर। नहीं जी, ट्यूशन, डांस क्लास, स्विमिंग, क्रिकेट और न जाने क्या-क्या। तब माता-पिता और बच्चों के बीच यही एक वार्तालाप का सहारा बनता है
ऐसा नहीं कि कोरोना काल में ही मोबाईल ने हमारे जीवन को प्रभावित किया। इससे पूर्व भी विद्यालयों में सीनियर कक्षाओं में प्रोजेक्ट वर्क, आर्ट वर्क और अनेक गृह कार्य ऐसे दिये जाते थे जो गूगल देवता की सहायता से ही किये जाते थे। कक्षाओं में स्मार्ट बोर्ड और अनेक तकनीक प्रयोग में पहले से ही चल रहे थे, बस मोबाईल की इसमें वृद्धि हुई।
किसी सीमा तक यह बात ठीक है कि जब किसी वस्तु का हम अत्याधिक प्रयोग करने लगत हैं तब आवश्यकता से बढ़कर वह हमारी आदत बन जाती है, हमें उसकी लत लग जाती है और जीवन पर दुष्प्रभाव पड़ने लगता है।
निश्चित रूप से बच्चे आज पक्षियों की भांति स्वतन्त्र पंछी नहीं रह गये हैं। इसका एक कारण मोबाईल हो सकता है किन्तु सारा दोष केवल मोबाईल को नहीं दिया जा सकता। आधुनिकतम जीवन शैली, शिक्षा एवं ज्ञान का माध्यम, बच्चे तो क्या हमारी पीढ़ी भी इसमें उलझी बैठी है। अब यह माता-पिता का कर्तव्य है और शिक्षा-संस्थानों का भी कि बच्चों को मोबाईल के उचित प्रयोग एवं सीमित प्रयोग के लिए प्रेरित करें न कि उन्हें आरोपित।
Share Me
प्रणाम तुम्हें करती हूं
हे भगवान!
इतना उंचा मचान।
सारा तेरा जहान।
कैसी तेरी शान ।
हिमगिरि के शिखर पर
बैठा तू महान।
कहते हैं
तू कण-कण में बसता है।
जहां रहो
वहीं तुझमें मन रमता है।
फिर क्यों
इतने उंचे शिखरों पर
धाम बनाया।
दर्शनों के लिए
धरा से गगन तक
इंसान को दौड़ाया।
ठिठुरता है तन।
कांपता है मन।
हिम गिरता है।
शीत में डरता है।
मन में शिवधाम सृजित करती हूं।
यहीं से प्रणाम तुम्हें करती हूं।
Share Me
और हम यूं ही लिखने बैठ जाते हैं कविता
आज ताज
स्वयं अपने साये में
बैठा है
डूबते सूरज की चपेट में।
शायद पलट रहा है
अपने ही इतिहास को।
निहारता है
अपनी प्रतिच्छाया,
कब, किसने,
क्यों निर्माण किया था मेरा।
एक कब्र थी, एक कब्रगाह।
प्रदर्शन था
सत्ता का, मोह का, धन का
अधिकार का
और शायद प्रेम का।
अथाह जलराशि में
न जाने क्या-क्या समाहित।
डूबता है मन, डूबते हैं भाव
काल के साथ
बदलते हैं अर्थ।
और हम यूं ही
लिखने बैठ जाते हैं कविता,
प्रेम की, विरह की, श्रृंगार की
और वेदना की।
Share Me
कब छूटेगी यह नाटकबाजी
देह पर पुस्तक-सज्जा से
पढ़ना नहीं आ जाता।
मांग में कलम सजाने से
लिखना नहीं आ जाता।
कपोत उड़ाने भर से
स्वाधीनता के द्वार
उन्मुक्त नहीं हो जाते।
पहले हाथ की बेड़ियां
तो तोड़।
फिर सोच,
कान के झुमके,
माथे की टिकुली,
नाक की नथनी,
और नर्तन मुद्रा के साथ,
इन फूलों के बीच
कितनी सजती हो तुम।
Share Me
ज़िन्दगी ज़िन्दगी हो उठी
प्रकृति में
बिखरे सौन्दर्य को
अपनी आँखों में
समेटकर
मैंने आँखें बन्द कर लीं।
हवाओं की
रमणीयता को
चेहरे से छूकर
बस गहरी साँस भर ली।
आकर्षक बसन्त के
सुहाने मौसम की
बासन्ती चादर
मन पर ओढ़ ली।
सुरम्य घाटियों सी गहराई
मन के भावों से जोड़ ली।
और यूँ ज़िन्दगी
सच में ज़िन्दगी हो उठी।
Share Me
मन का ज्वार भाटा
सरित-सागर का ज्वार
आज
मन में क्यों उतर आया है
नीलाभ आकाश
व्यथित हो
धरा पर उतर आया है
चांद लौट जायेगा
अपने पथ पर।
समय के साथ
मन का ज्वार भी
उतर जायेगा।
Share Me
सपने तो सपने होते हैं
सपने तो सपने होते हैं
कब-कब अपने होते हैं
आँखो में तिरते रहते हैं
बातों में अपने होते हैं।
Share Me
पाप की हो या पुण्य की गठरी
पाप की हो या
पुण्य की गठरी
तो भारी होती है।
कौन करेगा निर्णय
पाप क्या
या पुण्य क्या!
तू मेरे गिनता
मैं तेरे गिनती,
कल के डर से
काल के डर से
सहम-सहम
चलते जीवन में।
इहलोक यहीं
परलोक यहीं
सब लोक यहीं
यहीं फ़ैसला कर लें।
कल किसने देखा
चल आज यहीं
सब भूल-भुलाकर
जीवन
जी भर जी लें।