Share Me
कभी गोल हुआ करता था पैसा
इसलिए कहा जाता था
टिकता नहीं किसी के पास।
पता नहीं
कब लुढ़क जाये,
और हाथ ही न आये।
फिर खन-खन भी करता था पैसा।
भरी और भारी रहती थीं
जेबें और पोटलियां।
बचपन में हम
पैसों का ढेर देखा करते थे,
और अलग-अलग पैसों की
ढेरियां बनाया करते थे।
घर से एक पैसा मिलता था
स्कूल जाते समय।
जिस दिन पांच या दस पैसे मिलते थे,
हमारे अंदाज़ शाही हुआ करते थे।
लेकिन अब कहां रह गये वे दिन,
जब पैसों से आदमी
शाह हुआ करता था।
अब तो कागज़ से सरक कर
एक कार्ड में पसर कर
रह गया है पैसा।
वह आनन्द कहां
जो रेज़गारी गिनने में आता था।
तुम क्या समझोगे बाबू!!!
Share Me
Write a comment
More Articles
कोई बात ही नहीं
आज तो कोई बात ही नहीं है बताने के लिए
बस यूँ ही लिख रहे हैं कुछ जताने के लिए
दर्दे-दिल की बात तो अब हम करते ही नहीं
वे झट से आँसू बहाने लगते हैं दिखाने के लिए।
Share Me
तेरा ख़याल
उदास कर जाता है तेरा ख़याल
यादों में ले जाता है तेरा ख़याल
यूँ लगता है मानों युग बीत गये
मिलन की आस है तेरा ख़याल
Share Me
हमारा हिन्दी दिवस
वर्ष 1975 में पहली बार किसी राज्य स्तरीय कवि सम्मेलन में हिस्सा लिया और उसके बाद मेरी प्रतिक्रिया ।
उस समय कवि सम्मेलन में कवियों को सौ रूपये मानदेय मिलता था
**************
हमारा हिन्दी दिवस।
14 सितम्बर हमारा हिन्दी दिवस।
भाषण माला हमारा हिन्दी दिवस।
कवि गोष्ठी हमारा हिन्दी दिवस।
कवि कवि, कवि श्रोता, श्रोता कवि
सारे कवि सारे श्रोता , बस कवि कवि,
सारे श्रोता सारे कवि हमारा हिन्दी दिवस।
-
कुछ नेता कुछ नेता वेत,्ता
कुछ मंत्री, मंत्री के साथ संतरी
हल्ला गुल्ला, तालियां हार मालाएं, उद्घाटन,
फ़ोटो, कैमरा, रेडियो, टी.वी. हमारा हिन्दी दिवस।
वादा है सौ रूपये का, कुछ पुरस्कारों,
मान चिन्हों का, सम्मान पदकों का। मिलेंगे।
कविता, भाषण, साहित्य, सम्मान भाड़ में।
सौ रूपया है, किराया, नई जगह घूमना।
रसद पानी, वाह वाही,
कुछ उखड़ी बिखरी कुछ टूटी फूटी हिन्दी।
हमारा हिन्दी दिवस सम्पन्न।
फिर वर्ष भर का अवकाश।
न हिन्दी न दिवस। न गोष्ठी न रूपये।
वर्ष भर की बेकारी।
मुझे लगता है
हमारा हिन्दी दिवस
सरकार का एक दत्तक पुत्र है
14 सितम्बर 1949 को गोद लिया
और उसी दिन उसकी हत्या कर दी।
अब सरकार हर 14 सितम्बर को
उसकी पुण्य तिथि धूमधाम से मनाती है
उनके नाम पर वर्ष भर से रूके
अपने कई काम पूरे करवाती है
वर्ष भर बाद
कुछ दक्षिणा मिल पाती है।
-
आह ! एक वर्ष !
फिर हिन्दी दिवस ! फिर सौ रूपये
फिर एक वर्ष ! फिर हिन्दी दिवस !
फिर ! फिर ! शायद अब तक
हिन्दी का रेट कुछ बढ़ गया हो।
अच्छा ! अगले वर्ष फिर मिलेंगे
हर वर्ष मिलेंगे।
हम हिन्दी के चौधरी हैं
हिन्दी सिर्फ हमारी बपौती है।
Share Me
असली-नकली की पहचान कहाँ
पीतल में सोने से ज़्यादा चमक आने लगी है
सत्य पर छल-कपट की परत चढ़ने लगी है
असली-नकली की पहचान कहाँ रह गई अब
बस जोड़-तोड़ से अब ज़िन्दगी चलने लगी है।
Share Me
निरन्तर बढ़ रही हैं दूरियां
कुछ शहरों की हैं दूरियां, कुछ काम-काज की दूरियां।
मेल-मिलाप कैसे बने, निरन्तर बढ़ रही हैं दूरियां।
परिवार निरन्तर छिटक रहे, दूर-पार सब जा रहे,
तकनीक आज मिटा रही हम सबके बीच की दूरियां।
Share Me
मन का दीप प्रज्वलित हो
अपनों का साथ हो
सपनों का राग हो
सम्बन्धों का उन्माद हो
सबसे संवाद हो
मन बाग बाग हो
जीवन में राग राग हो
मधुर मधुर तान हो
भावों में अनुराग हो
मलिनता मिट जाए
दूरियां सिमट जाएं
रिश्तों की गरिमा हो
अपनों की महिमा हो
विश्वास की दमक हो
अपनेपन की महक हो
सहज सहज जीवन हो
सरल पावन मन हो
मन से मन का मिलन हो
न द्वेष का राग हो,
न सत्य से विराग हो
जीवन की सुंदर कहानी हो
अपनों की जु़बानी हो
जगमग जगमग संसार हो
खुशियां अपार हों
पर्वों की सी हरदम आहट हो
बस मन का दीप प्रज्वलित हो।
Share Me
हादसे तो होते ही रहते हैं
2008 में भगदड़ मच जाने से करीब 145 लोगा की जान चली गई थी
नैना देवी में हादसा हुआ। श्रावण मेला था। समाचारों की विश्वसनीयता के अनुसार वहां लगभग बीस हज़ार लोग उपस्थित थे। पहाड़ी स्थान। उबड़-खाबड़, टेढ़े-मेढ़े संकरे रास्ते। सावन का महीना। मूसलाधार बारिश। ऐसी परिस्थितियों में एक हादसा हुआ। क्यों हुआ कोई नहीं जानता। कभी जांच समिति की रिपोर्ट आयेगी तब भी किसी को पता नहीं लगेगा।
किन्तु जैसा कि कहा गया कि शायद कोई अफवाह फैली कि पत्थर खिसक रहे हैं अथवा रेलिंग टूटी। यह भी कहा गया कि कुछ लोगों ने रेंलिंग से मन्दिर की छत पर चढ़ने का प्रयास किया तब यह हादसा हुआ।
किन्तु कारण कोई भी रहा हो, हादसा तो हो ही गया। वैसे भी ऐसी परिस्थितियों मंे हादसों की सम्भावनाएँ बनी ही रहती हैं। किन्तु ऐसी ही परिस्थितियों में आम आदमी की क्या भूमिका हो सकती है अथवा होनी चाहिए। जैसा कि कहा गया वहां बीस हज़ार दर्शनार्थी थे। उनके अतिरिक्त स्थानीय निवासी, पंडित-पुजारी; मार्ग में दुकानें-घर एवं भंडारों आदि में भी सैंकड़ों लोग रहे होंगे। बीस हज़ार में से लगभग एक सौ पचास लोग कुचल कर मारे गये और लगभग दो सौ लोग घायल हुए। अर्थात् उसके बाद भी वहां सुरक्षित बच गये लगभग बीस हज़ार लोग थे। किन्तु जैसा कि ऐसी परिस्थितियों में सदैव होता आया है उन हताहत लोगों की व्यवस्था के लिए पुलिस नहीं आई, सरकार ने कुछ नहीं किया, व्यवस्था नहीं थी, चिकित्सा सुविधाएँ नहीं थीं, सहायता नहीं मिली, जो भी हुआ बहुत देर से हुआ, पर्याप्त नहीं हुआ, यह नहीं हुआ, वह नहीं हुआ; आदि -इत्यादि शिकायतें समाचार चैनलों, समाचार-पत्रों एवं लोगों ने की।
किन्तु प्रश्न यह है कि हादसा क्यों हुआ और हादसे के बाद की परिस्थितियों के लिए कौन उत्तरदायी है ? निश्चित रूप से इस हादसे के लिए वहां उपस्थित बीस हज़ार लोग ही उत्तरदायी हैं। यह कोई प्राकृतिक हादसा नहीं था, उन्हीं बीस हज़ार लोगों द्वारा उत्पे्ररित हादसा था यह। लोग मंदिरों में दर्शनों के लिए भक्ति-भाव के साथ जाते हैं। सत्य, ईमानदारी, प्रेम, सेवाभाव का पाठ पढ़ते हैं। ढेर सारे मंत्र, सूक्तियां, चालीसे, श्लोक कंठस्थ होते हैं। आगे बढ़ते हुए माता का जयकारा लगाते जाते हैं। किन्तु एक समय और एक सीमा के बाद सब भूल जाते हैं। ऐसे अवसरों पर सब जल्दी में रहते हैं। कोई भी कतार में, व्यवस्था में बना रहना नहीं चाहता। कतार तोड़कर, पैसे देकर, गलत रास्तों से हम लोग आगे बढ़ने का प्रयास करते हैं। जहां दो हज़ार का स्थान है वहां हम बीस हज़ार या दो लाख एकत्र हो जाते हैं फिर कहते हैं हादसा हो गया। सरकार की गलती है, पुलिस नहीं थी, व्यवस्था नहीं थी। सड़कंे ठीक नहीं थीं। अब सरकार को चाहिए कि नैना देवी जैसे पहाड़ी रास्तों पर राजपथ का निर्माण करवाये। किन्तु इस चर्चा से अधिक महत्वपूर्ण यह है कि जो 150 लोग मारे गये और दो सौ घायल हुए उन्हें किसने मारा और किसके कारण ये लोग घायल हुए? निश्चय ही, वे स्वयँ अथवा वहां उपस्थित बीस हज़ार लोग ही इन सबकी मौत के अपराधी हैं। उपरान्त हादसे के सब लोग एक-दूसरे को रौंदकर घर की ओर जान बचाकर भाग चले। किसी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा कि उन्होंने किसके सिर अथवा पीठ पर पैर रखकर अपनी जान बचाई है। सम्भव है अपने ही माता-पिता, भाई-बहन अथवा किसी अन्य परिचित को रौंदकर ही वे अपने घर सुरक्षित पहुंचे हों। जो गिर गये उन्हें किसी ने नहीं उठाया क्योंकि यह तो सरकार का, पुलिस का, स्वयंसेवकों का कार्य है आम आदमी का नहीं, हमारा-आपका नहीं। हम-आप जो वहां बीस हज़ार की भीड़ के रूप में उपस्थित थे। किसी की जान बचाने का, घायल को उठाने का, मरे को मरघट पंहुचाने का हमारा दायित्व नहीं है। हम भीड़ बनकर किसी की जान तो ले सकते हैं, किन्तु किसी की जान नहीं बचा सकते। आग लगा सकते हैं, गाड़ियां जला सकते हैं, हत्या कर सकते हैं, दुष्कर्म, लूट-पाट कर सकते हैं किन्तु उन व्यवस्थाओं एवं प्रबन्धनों में हाथ नहीं बंटा सकते जहां होम करते हाथ जलते हों। जहाँ कोई उपलब्धि नहीं हैं वहां कुछ क्यों किया जाये।
भंडारों में लाखों रुपये व्यय करके, देसी घी की रोटियां खिला सकते हैं, करोड़ों रुपयों की मूर्तियाँ,छत्र, सिंहासन दान कर सकते हैं, सड़क किनारे मार्ग अवरुद्ध करते हुए छबील लगा सकते हैं, भोजन बांट सकते हैं किन्तु ऐसे भीड़ वाले स्थानों पर होने वाली आकस्मिक दुर्घटनाओं से निपटने के लिए आपदा-प्रबन्धन में अपना योगदान देने में हम कतरा जाते हैं। धर्म के नाम पर दान मांगने वाले प्रायः आपका द्वार खटखटाते होंगे, मंदिरों के निर्माण के लिए, भगवती जागरण, जगराता, भंडारा, राम-लीला के लिए रसीदें काट कर पैसा मांगने में युवा से लेकर वृद्धों तक को कभी कोई संकोच नहीं होता, किन्तु किसी अस्पताल के निर्माण के लिए, शिक्षा-संस्थानों हेतु, भीड़-भीड़ वाले स्थानों पर आपातकालीन सेवाओं की व्यवस्था हेतु एक आम आदमी का तो क्या किसी बड़ी से बड़ी धार्मिक संस्था को भी कभी अपना महत्त योगदान प्रदान करते कभी नहीं देखा गया। किसी भी मन्दिर की सीढ़ियां चढ़ते जाईये और उस सीढ़ी पर किसी की स्मृति में बनवाने वाले का तथा जिसके नाम पर सीढ़ी बनवाई गई है, का नाम पढ़ते जाईये। ऐसे ही कितने नाम आपको द्वारों, पंखों, मार्गों आदि पर उकेरित भी मिल जायेंगे। किन्तु मैंने आज तक किसी अस्पताल अथवा विद्यालय में इस तरह के दानी का नाम नहीं देखा।
हम भीड़ बनकर तमाशा बना कते हैं, तमाशा देख सकते हैं, तमाशे में किसी को झुलसता देखकर आंखें मूंद लेते हैं क्योंकि यह तो सरकार का काम है।
Share Me
जीवन के अनमोल पल
यादों की गठरियों में कुछ अनमोल रत्न हुआ करते हैं
कभी कभी कुछ रिसते-से जख्म भी हुआ करते हैं
इन सबके बीच झूलता है मन,क्या करे कोई
जीवन के पल जैसे भी हों,सब अनमोल हुआ करते है।
Share Me
काश ! ऐसा हो जाये
सोचती हूं,
पर पहले ही बता दूं
कि जो मैं सोचती हूं
वह आपकी दृष्टि में
ठीक नहीं होगा,
किन्तु अपनी सोच को
रोक तो नहीं सकती,
और मेरी सोच पर
आप रोक लगा नहीं सकते,
और आपको बिना बताये
मैं रह भी नहीं सकती।
कितना अच्छा हो
कि संविधान में
नियम बन जाये
कि एक वेशभूषा
एक रंग और एक ही ढंग
जैसे विद्यालयों में बच्चों की
यूनिफ़ार्म।
फिर हाथ सामने जोड़ें
माथा टेकें
अथवा आकाश को पुकारें
कहीं कुछ अलग-सा
महसूस नहीं होगा,
चाहे तुम मुझे धूप से बचाओ
या मैं तुम्हें
वर्षा में भीगने के लिए खींच लूं
कोई गलत अर्थ नहीं निकालेगा,
कोई थोथी भावुकता नहीं परोसेगा
और शायद न ही कोई
आरोप जड़ेगा।
चलो,
आज बाज़ार चलकर
एक-सा पहनावा बनवा लें।
चलोगे क्या ??????
Share Me
कड़वा-कड़वा देते रहना
नीम करेले का रस पी ले
हंस-बोलकर जीवन जी ले
कड़वा-कड़वा देते रहना
खट्टे की खुद चटनी पी ले