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सुना है कुछ लोग
उड़ती चिड़िया के
पर गिन लिया करते हैं।
कौन हैं वे लोग
जो उड़ती चिड़िया के
पर गिन लिया करते हैं।
क्या वे
कोई और काम भी करते हैं,
अथवा बस,
उड़ती चिड़िया के
पर ही गिनते रहते हैं।
कौन उड़ा रहा है चिड़िया ?
कितनी चिड़िया उड़ रही हैं ?
जिनके पर गिने जा रहे हैं ?
पहले पकड़ते हैं,
पिंजरे में
पालन-पोषण करते हैं।
लाड़-प्यार जताते हैं।
कुछ पर काट देते हैं,
कि चिड़िया उड़ न जाये।
फिर एक दिन उकता जाते हैं,
और छोड़ देते हैं उसे
आधी-अधूरी उड़ानों के लिए।
फिर अपना अनुभव बखानते हैं,
हम तो उड़ती चिड़िया के
पर गिन लेते हैं।
सच में ही
बहुत गुणी हैं ये लोग।
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प्रभास है जीवन
हास है, परिहास है, विश्वास है जीवन।
हर दिन एक नया प्रयास है जीवन।
सूरज भी चंदा के पीछे छिप जाता है,
आप मुस्कुरा दें तो तो प्रभास है जीवन।
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स्वर्गिक सौन्दर्य रूप
रूईं के फ़ाहे गिरते थे हम हाथों से सहलाते थे।
वो हाड़ कंपाती सर्दी में बर्फ़ की कुल्फ़ी खाते थे।
रंग-बिरंगी दुनिया श्वेत चादर में छिप जाती थी,
स्वर्गिक सौन्दर्य-रूप, मन आनन्दित कर जाते थे।
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एक सुन्दर सी कृति बनाई मैंने
उपवन में कुछ पत्ते संग टहनी, कुछ फूल झरे थे।
मैं चुन लाई, देखो कितने सुन्दर हैं ये, गिरे पड़े थे।
न डाली पर जायेंगे न गुलदान में अब ये सजेंगे।
एक सुन्दर सी कृति बनाई मैंने, सब देख रहे थे।
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अब कोई हमसफ़र नहीं होता
प्रार्थनाओं का अब कोई असर नहीं होता।
कामनाओं का अब कोई
सफ़र नहीं होता।
सबकी अपनी-अपनी मंज़िलें हैं ,
और अपने हैं रास्ते।
सरे राह चलते
अब कोई हमसफ़र नहीं होता।
देखते-परखते निकल जाती है
ज़िन्दगी सारी,
साथ-साथ रहकर भी ,
अब कोई बसर नहीं होता।
भरोसे की तो हम
अब बात ही नहीं करते,
अपने और परायों में
अब कुछ अलग महसूस नहीं होता।
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बांसुरी छोड़ो आंखें खोलो
बांसुरी छोड़ो, आंखें खोलो,
ज़रा मेरी सुनो।
कितने ही युगों में
नये से नये अवतार लेकर
तुमने
दुष्टों का संहार किया,
विश्व का कल्याण किया।
और अब इस युग में
राधा-संग
आंख मूंदकर निश्चिंत बैठे हो,
मानों सतयुग हो, द्वापर युग हो
या हो राम-राज्य।
-
अथवा मैं यह मान लूं,
कि तुम
साहस छोड़ बैठे हो,
आंख खोलने का।
क्योंकि तुम्हारे प्रत्येक युग के दुष्ट
रूप बदलकर,
इस युग में संगठित होकर,
तुमसे पहले ही अवतरित हो चुके हैं,
नाम-ग्राम-पहचान सब बदल चुके हैं,
निडर।
क्योंकि वे जानते हैं,
तुम्हारे आयुध पुराने हो चुके हैं,
तुम्हारी सारी नीतियां,
बीते युगों की बात हो चुकी हैं,
और कोई अर्जुन, भीम नहीं हैं यहां।
अत: ज़रा संम्हलकर उठना।
वे राह देख रहे हैं तुम्हारी
दो-दो हाथ करने के लिए।
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विश्वास का धागा
भाई-बहन का प्यार है राखी
रिश्तों की मधुर सौगात है राखी
विश्वास का एक धागा होता है
अनुपम रिश्तों का आधार है राखी
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दोनों अपने-अपने पथ चलें
तुम अपनी राह चलो,
मैं अपनी राह चलूंगी।
.
दोनों अपने-अपने पथ चलें
दोनों अपने-अपने कर्म करें।
होनी-अनहोनी जीवन है,
कल क्या होगा, कौन कहे।
चिन्ता मैं करती हूं,
चिन्ता तुम करते हो।
पीछे मुड़कर न देखो,
अपनी राह बढ़ो।
मैं भी चलती हूं
अपने जीवन-पथ पर,
एक नवजीवन की आस में।
तुम भी जाओ
कर्तव्य निभाने अपने कर्म-पथ पर।
डर कर क्या जीना,
मर कर क्या जीना।
आशाओं में जीते हैं।
आशाओं में रहते हैं।
कल आयेगा ऐसा
साथ चलेगें]
हाथों में हाथ थाम साथ बढ़ेगें।
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इस जग की आपा-धापी में
उलट-पलट कर चित्र को देखो तो, डूबे हैं दोनों ही जल में
मेरी छोड़ो मैं तो डूबी, तुम उतरो ज़रा जग के प्रांगण में
इस जग की आपा-धापी में मेरे संग जीकर दिखला दो तो
गैया,मैया,दूध,दहीं,चरवाहे,माखन,भूलोगे सब पल भर में
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उल्लू बोला मिठू से
उल्लू बोला मिठू से
चल आज नाम बदल लें
तू उल्लू बन जा
और मैं बनता हूँ तोता,
फिर देखें जग में
क्या-क्या होता।
जो दिन में होता
गोरा-गोरा,
रात में होता काला।
मैं रातों में जागूँ
दिन में सोता
मैं निद्र्वंद्व जीव
न मुझको देखे कोई
न पकड़ सके कोई।
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आजा नाम बदल लें।
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फिर तुझको भी
न कोई पिंजरे में डालेगा,
और आप झूठ बोल-बोलकर
तुझको न बोलेगा कोई
हरि का नाम बोल।
-
चल आज नाम बदल लें
चल आज धाम बदल लें
कभी तू रातों को सोना
कभी मैं दिन में जागूँ
फिर छानेंगे दुनिया का
सच-झूठ का कोना-कोना।
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मर रहा है आम आदमी : कहीं अपनों हाथों
हम एक-दूसरे को नहीं जानते
नहीं जानते
किस देश, धर्म के हैं सामने वाले
शायद हम अपनी
या उनकी
धरती को भी नहीं पहचानते।
जंगल, पहाड़, नदियां सब एक-सी,
एक देश से
दूसरे देश में आती-जाती हैं।
पंछी बिना पूछे, बिना जाने
देश-दुनिया बदल लेते हैं।
किसने हमारा क्या लूट लिया
क्या बिगाड़ दिया,
नहीं जानते हम।
जानते हैं तो बस इतना
कि कभी दो देश बसे थे
कुछ जातियां बंटी थीं
कुछ धर्म जन्मे थे
किसी को सत्ता चाहिये थी
किसी को अधिकार।
और वे सब तमाशबीन बनकर
उंचे सिंहासनों पर बैठे हैं
शायद एक साथ,
जहां उन्हें कोई छू भी नहीं सकता।
वे अपने घरों में
बारूद की खेती करते हैं
और उसकी फ़सल
हमारे हाथों में थमा देते हैं।
हमारे घर, खेत, शहर
जंगल बन रहे हैं।
जाने-अनजाने
हम भी उन्हीं फ़सलों की बुआई
अपने घर-आंगन में करने लगे हैं
अपनी मौत का सामान जमा करने लगे हैं
मर रहा है आम आदमी
कहीं अपनों से
और कहीं अपने ही हाथों
कहीं भी, किसी भी रूप में।