ज़िन्दगी प्रश्न या उत्तर
जिन्हें हम
ज़िन्दगी के सवाल समझकर
उलझे बैठे रहते हैं
वास्तव में
वे सवाल नहीं होते
निर्णय होते हैं
प्रथम और अन्तिम।
ज़िन्दगी
आपसे
न सवाल पूछती है
न किसी
उत्तर की
अपेक्षा लेकर चलती है।
बस हमें समझाती है
सुलझाती है
और अक्सर
उलझाती भी है।
और हम नासमझ
अपने को
कुछ ज़्यादा ही
बुद्धिमान समझ बैठे हैं
कि ज़िन्दगी से ही
नाराज़ बैठे हैं।
खेल दिखाती है ज़िन्दगी
क्या-क्या खेल दिखाती है ज़िन्दगी।
कभी हरी-भरी,
कभी तेवर दिखाती है ज़िन्दगी।
कभी दौड़ती-भागती,
कभी ठहरी-ठहरी-सी लगती है ज़िन्दगी।
कभी संवरी-संवरी,
कभी बिखरी-बिखरी-सी लगती है जिन्दगी।
स्मृतियों के सागर में उलझाकर,
भटकाती भी है ज़िन्दगी।
हँसा-हँसाकर खूब रुलाती है ज़िन्दगी।
पथरीली राहों पर चलना सिखाती है ज़िन्दगी।
एक गलत मोड़, एक अन्त का संकेत
दे जाती है ज़िन्दगी।
आकाश और धरा एक साथ
दिखा जाती है ज़िन्दगी।
कभी-कभी ठोकर मारकर
गिरा भी देती है ज़िन्दगी।
समय कटता नहीं,
अब घड़ी से नहीं चलती है ज़िन्दगी।
अपनों से नेह मिले
तो सरस-सरस-सी लगती है ज़िन्दगी।
डगमगाये नहीं कदम कभी
डगमगाये नहीं कदम कभी!!!
.
कैसे, किस गुरूर में
कह जाते हैं हम।
.
जीवन के टेढ़े-मेढ़े रास्ते
मन पर मौसम की मार
सफ़लता-असफ़लता की
सीढ़ियों पर चढ़ते-उतरते
अनचाही अव्यवस्थाएँ
गलत मोड़ काटते
अनजाने, अनचाहे गतिरोध
बन्द गलियों पर रुकते
लौट सकने के लिए
राहें नहीं मिलतीं।
भटकन कभी नहीं रुकती।
ज़िन्दगी निकल जाती है
नये रास्तों की तलाश में।
.
कैसे कह दूँ
डगमगाये नहीं कदम कभी!!!
दिल का दिन
हमें
रचनाकारों से
ज्ञात हुआ
दिल का भी दिन होता है।
असमंजस में हैं हम
अपना दिल देखें
या सामने वाले का टटोलें।
एक छोटे-से दिल को
रक्त के आवागमन से
समय नहीं मिलता
और हम, उस पर
पता नहीं
क्या-क्या थोप देते हैं।
हर बात हम दिल के नाम
बोल देते हैं।
अपना दिल तो आज तक
समझ नहीं आया
औरों के दिलों का
पूरा हिसाब रखते हैं।
दिल टूटता है
दिल बिखरता है
दिल रोता है
दिल मसोसता है
दिल प्रेम-प्यार के
किस्से झेलता है।
विरह की आग में
तड़पता है
जलता है दिल
भावों में भटकता है दिल
सपने भी देखता है
ईष्र्या-द्वेष से भरा यह दिल
न जाने
किन गलियों में भटकता है।
तूफ़ान उठता है दिल में
ज्वार-भाटा
उछालें मारता है।
वैसे कभी-कभी
हँसता-गाता
गुनगुनाता, खिलखिलाता
मस्ती भी करता है।
कैसा है यह दिल
नहीं सम्हलता है।
और इतने बोझ के बाद
जब रक्त वाहिनियों में
रक्त जमता है
तब दिमाग खनकता है।
यार !
जिसे ले जाना है
ले जाओ मेरा दिल
हम
बिना दिल ही
चैन की नींद सो लेंगे।
जीवन संवर जायेगा
जब हृदय की वादियों में
ग्रीष्म ऋतु हो
या हो पतझड़,
या उलझे बैठे हों
सूखे, सूनेपन की झाड़ियों में,
तब
प्रकृति के
अपरिमित सौन्दर्य से
आंखें दो-चार करना,
फिर देखना
बसन्त की मादक हवाएँ
सावन की झड़ी
भावों की लड़ी
मन भीग-भीग जायेगा
अनायास
बेमौसम फूल खिलेंगे
बहारें छायेंगी
जीवन संवर जायेगा।
शुभकामना संदेश
एक समय था
जब हम
हाथों से कार्ड बनाया करते थे
रंगों और मन की
रंगीनियों से सजाया करते थे।
अच्छी-अच्छी शब्दावली चुनकर
मन के भाव बनाया करते थे।
लिफ़ाफ़ों पर
सुन्दर लिखावट से
पता लिखवाया करते थे।
और प्रतीक्षा भी रहती थी
ऐसे ही कार्ड की
मिलेंगे किसी के मन के भावों से
सजे शुभकामना संदेश।
फिर धन्यवाद का पत्र लिखवाया करते थे।
.
समय बदला
बना-बनाया कार्ड आया
मन के रंग
बनाये-बनाये शब्दों के संग
बाज़ार में मिलने लगे
और हम अपने भावों को
छपे कार्ड पर ही समझने लगे।
.
और अब
भाव नहीं
शब्द रह गये
बने-बनाये चित्र
और नाम रह गये।
न कलम है, न कार्ड है
न पत्र है, न तार है
न टिकट है न भार है
न व्यय है
न समय की मार है
पल भर का काम है
सैंकड़ों का आभार है
ज़रा-सी अंगुली चलाईये
एक नहीं,
बीसियों
शुभकामना संदेश पाईये
औपचारिकताएँ निभाईये
काॅपी-पेस्ट कीजिए
एक से संदेश भेजिए
और एक से संदेश पाईये
एक पंथ दो काज
आजकल ज़िन्दगी
न जाने क्यों
मुहावरों के आस-पास
घूमने लगी है
न तो एक पंथ मिलता है
न ही दो काज हो पाते हैं।
विचारों में भटकाव है
जीवन में टकराव है
राहें चौराहे बन रही हैं
काज कितने हैं
कहाँ सूची बना पाते हैं
कब चयन कर पाते हैं
चौराहों पर खड़े ताकते हैं
काज की सूची
लम्बी होती जाती है
राहें बिखरने लगती हैं।
जो राह हम चुनते हैं
रातों-रात वहां
नई इमारतें खड़ी हो जाती हैं
दोराहे
और न जाने कितने चौराहे
खिंच जाते हैं
और हम जीवन-भर
ऊपर और नीचे
घूमते रह जाते हैं।
बहुत आनन्द आता है मुझे
बहुत आनन्द आता है मुझे
जब लोग कहते हैं
सब ऊपर वाले की मर्ज़ी।
बहुत आनन्द आता है मुझे
जब लोग कहते हैं
कर्म कर, फल की चिन्ता मत कर।
बहुत आनन्द आता है मुझे
जब लोग कहते हैं
यह तो मेरे परिश्रम का फल है।
बहुत आनन्द आता है मुझे
जब लोग कर्मों का हिसाब करते हैं
और कहते हैं कि मुझे
कर्मानुसार मान नहीं मिला।
कहते हैं यह सृष्टि ईश्वर ने बनाई।
कर्मों का लेखा-जोखा
अच्छा-बुरा सब लिखकर भेजा है।
.
आपको नहीं लगता
हम अपनी ही बात में बात
बात में बात कर-करके
और अपनी ही बात
काट-काटकर
अकारण ही
परेशान होते रहते हैं।
-
लेकिन मुझे
बहुत आनन्द आता है।
मेरी वीणा के तारों में ऐसी झंकार
काल की रेखाओं में
सुप्त होकर रह गये थे
मेरे मन के भाव।
दूरियों ने
मन रिक्त कर दिया था
सिक्त कर दिया था
आहत भावनाओं ने।
बसन्त की गुलाबी हवाएँ
उन्मादित नहीं करतीं थीं
न सावन की घटाएँ
पुकारती थीं
न सुनाती थीं प्रेम कथाएँ।
कोई भाव
नहीं आता था मन में
मधुर-मधुर रिमझिम से।
अपने एकान्त में
नहीं सुनना चाहती थी मैं
कोई भी पुकार।
.
किन्तु अनायास
मन में कुछ राग बजे
आँखों में झिलमिल भाव खिले
हुई अंगुलियों में सरसराहट
हृदय प्रकम्पित हुआ,
सुर-साज सजे।
तो क्या
वह लौट आया मेरे जीवन में
जिसे भूल चुकी थी मैं
और कौन देता
मेरी वीणा के तारों में
ऐसी झंकार।
कोई तो आयेगा
भावनाओं का वेग
किसी त्वरित नदी की तरह
अविरल गति से
सीमाओं को तोड़ता
तीर से टकराता
कंकड़-पत्थर से जूझता
इक आस में
कोई तो आयेगा
थाम लेगा गति
सहज-सहज।
.
जीवन बीता जाता है
इसी प्रतीक्षा में
और कितनी प्रतीक्षा
और कितना धैर्य !!!!
इन्द्रधनुष-सी ज़िन्दगी
प्रतिदिन निरखती हूँ
आकाश को
भावों से सराबोर
कभी मुस्कुराता
कभी खिल-खिल हँसता
कभी रूठता-मनाता
सूरज, चंदा, तारों संग खेलता
कभी मुट्ठी में बाँधता कभी छोड़ता।
बादलों को अपने ऊपर ओढ़ता
फिर बादलों की ओट से
झाँक-झाँक देखता।
.
आकाश में बिखरे रंगों से
कभी मुलाकात की है आपने?
मेरे मन में अक्सर उतर आते हैं।
गिन नहीं पाती, परख नहीं पाती
बस हाथों में लिए
निरखती रह जाती हूँ।
आकाश से धरा तक बरसते
चाँद-तारों संग गीत गाते
बादलों में उलझते
दिन-रात, सांझ-सवेरे
नवीन आकारों में ढलते
पल-पल, हर पल रूप बदलते
वर्षा की रिमझिम बूँदों से झांकते।
पत्तों पर लहराती
ओस की बूँदों के भीतर
छुपन-छुपाई खेलते।
.
और फिर
सूरज की किरणों से झांकती
रिमझिम बारिश के बीच से
रंगों के बनते हैं भंवर
जिनमें डूबता-उतरता है मन
आकाश में लहराते हैं
लहरिए सात रँग।
.
इन रँगों को अपनी आँखों से
मन के भीतर तक ले जाती हूँ
और इस तरह
इन्द्रधनुष-सी रंगीन
हो जाती है ज़िन्दगी।
कैसी कैसी है ज़िन्दगी
कभी-कभी ठहरी-सी लगती है, भागती-दौड़ती ज़िन्दगी ।
कभी-कभी हवाएँ महकी-सी लगती हैं, सुहानी ज़िन्दगी।
गरजते हैं बादल, कड़कती हैं बिजलियाँ, मन यूँ ही डरता है,
कभी-कभी पतझड़-सी लगती है, मायूस डराती ज़िन्दगी।
वनचर इंसानों के भीतर
कहते हैं
प्रकृति स्वयंमेव ही
संतुलन करती है।
रक्षक-भक्षक स्वयं ही
सर्जित करती है।
कभी इंसान
वनचर था,
हिंसक जीवों के संग।
फिर वन छूट गये
वनचरों के लिए।
किन्तु समय बदला
इंसान ने छूटे वनों में
फिर बढ़ना शुरु कर दिया
और अपने भीतर भी
बसा लिए वनचर ।
और वनचर शहरों में दिखने लगे।
कुछ स्वयं आ पहुंचे
और कुछ को हम ले आये
सुरक्षा, मनोरजंन के लिए।
.
अब प्रतीक्षा करते हैं
इंसान फिर वनों में बसता है
या वनचर इंसानों के भीतर।
कहते हैं
प्रकृति स्वयंमेव ही
संतुलन करती है।
रक्षक-भक्षक स्वयं ही
सर्जित करती है।
कभी इंसान
वनचर था,
हिंसक जीवों के संग।
फिर वन छूट गये
वनचरों के लिए।
किन्तु समय बदला
इंसान ने छूटे वनों में
फिर बढ़ना शुरु कर दिया
और अपने भीतर भी
बसा लिए वनचर ।
और वनचर शहरों में दिखने लगे।
कुछ स्वयं आ पहुंचे
और कुछ को हम ले आये
सुरक्षा, मनोरजंन के लिए।
.
अब प्रतीक्षा करते हैं
इंसान फिर वनों में बसता है
या वनचर इंसानों के भीतर।
अपनी ज़िन्दगी
प्यास अपनी खुद बुझाना सीखो
ज़िन्दगी में बेवजह मुस्कुराना सीखो
कब तक औरों के लिए जीते रहोगे
अपनी ज़िन्दगी खुद संवारना सीखो
सीधी राहों की तलाश में जीवन
अपने दायरे आप खींच
न तकलीफ़ों से आंखें मींच
.
हाथों की लकीरें
अजब-सी
आड़ी-तिरछी होती हैं,
जीवन की राहें भी
शायद इसीलिए
इतनी घुमावदार होती हैं।
किन्तु इन
घुमावदार राहों
पर खिंची
आड़ी-तिरछी लकीरें
गोल दायरों में घुमाती रहती हैं
जीवन भर
और हम
इन राहों के आड़े-तिरछेपन,
और गोल दायरों के बीच
अपने लिए
सीधी राहों की तलाश में
घूमते रहते हैं जीवन भर।
जीने की चाहत
जीवन में
एक समय आता है
जब भीड़ चुभने लगती है।
बस
अपने लिए
अपनी राहों पर
अपने साथ
चलने की चाहत होती है।
बात
रोशनी-अंधेरे की नहीं
बस
अपने-आप से बात होती है।
जीवन की लम्बी राहों पर
कुछ छूट गया
कुछ छोड़ दिया
किसी से नहीं कोई आस होती है।
न किसी मंज़िल की चाहत है
न किसी से नाराज़गी-खुशी
बस अपने अनुसार
जीने की चाहत होती है।
हम हार नहीं माना करते
तूफ़ानों से टकराते हैं
पर हम हार नहीं माना करते।
प्रकृति अक्सर अपना
विकराल रूप दिखलाती है
पर हम कहाँ सम्हलकर चलते।
इंसान और प्रकृति के युद्ध
कभी रुके नहीं
हार मान कर
हम पीछे नहीं हटते।
प्रकृति बहुत सीख देती है
पर हम परिवर्तन को
छोड़ नहीं सकते,
जीवन जीना है तो
बदलाव से
हम पीछे नहीं हट सकते।
सुनामी आये, यास आये
या आये ताउते
नये-नये नामों के तूफ़ानों से
अब हम नहीं डरते।
प्रकृति
जितना ही
रौद्र रूप धारण करती है
मानवता उससे लड़ने को
उतने ही
नित नये साधन जुटाती है।
तब प्रकृति भी मुस्काती है।
जग का यही विधान है प्यारे
जग का यही विधान है प्यारे
यहां सोच-समझ कर चल।
रोते को बोले
हंस ले, हंस ले प्यारे,
हंसते पर करे कटाक्ष
देखो, हरदम दांत निपोरे।
चुप्पा लगता घुन्ना, चालाक,
जो मन से खुलकर बोले
बड़बोला, बेअदब कहलाए
जग का यही विधान है प्यारे।
सच्चे को झूठा बतलाए
झूठा जग में झण्डा लहराए।
चलती को गाड़ी कहें
जब तक गाड़ी चलती रहे
झुक-झुक करें सलाम।
सरपट सीधी राहों पर
सरल-सहज जीवन चलता है
उंची उड़ान की चाहत में
मन में न सपना पलता है।
मुझको क्या लेना
मोटर-गाड़ी से
मुझको क्या लेना
ऊँची कोठी-बाड़ी से
छोटी-छोटी बातों में
मन रमता है।
चढ़ते सूरज को करें सलाम।
पग-पग पर अंधेरे थे
वे किसने देखे
बस उजियारा ही दिखता है
जग का यही विधान है प्यारे
यहां सोच-समझ कर चल।
एैसे भी झूले झुलाती है ज़िन्दगी
वाह! ज़िन्दगी !
.
कहाँ पता था
एैसे भी झूले झुलाती है ज़िन्दगी।
आकाश-पाताल
सब एक कर दिखाती है ज़िन्दगी।
क्यों
कभी-कभी इतना डराती है ज़िन्दगी।
शेर-चीते तो सपनों में भी आयें
तब भी नींद उड़ जाती है।
न जाने
किसके लिए कह गये हैं
हमारे बुज़ुर्ग
कि न दोस्ती भली न दुश्मनी।
ये दोस्ती निभा रहे हैं
या दुश्मनी,
ये तो पता नहीं,
किन्तु मेरे
धरा और आकाश
दोनों छीनकर
आनन्द ले रहे हैं,
और मुझे कह रहे हैं
जा, जी ले अपनी ज़िन्दगी।
आस लिए जीती हूँ
सपनों में जीती हूँ
सपनों में मरती हूँ
सपनों में उड़ती हूँ
ऐसे ही जीती हूँ।
धरा पर सपने बोती हूँ
गगन में छूती हूँ ।
मन में चाँद-तारे बुनती हूँ।
बादलों-से उड़ जाते हैं,
हवाएँ बहकाती हैं
सहम जाता है मन
पंछी-सा,
पंख कतरे जाते हैं
फिर भी उड़ती हूँ।
लौट धरा पर आती हूँ,
पर गगन की
आस लिए जीती हूँ।
जीवन क्या होता है
जीवन में अमृत चाहिए
तो पहले विष पीना पड़ता है।
जीवन में सुख पाना है
तो दुख की सीढ़ी पर भी
चढ़ना पड़ता है।
धूप खिलेगी
तो कल
घटाएँ भी घिर आयेंगी
रिमझिम-रिमझिम बरसातों में
बिजली भी चमकेगी
कब आयेगी आँधी,
कब तूफ़ान से उजड़ेगा सब
नहीं पता।
जीवन में चंदा-सूरज हैं
तो ग्रहण भी तो लगता है
पूनम की रातें होती हैं
अमावस का
अंधियारा भी छाता है।
किसने जाना, किसने समझा
जीवन क्या होता है।
न जाने अब क्या हो
बस शैल्टर में बैठे दो
सोच रहे हैं न जाने क्या हो।
‘गर बस न आई तो क्या हो।
दोनों सोचे दूजा बोले
तो कुछ तो साहस हो।
बारिश शुरु होने को है
‘गर हो गई तो
भीग जायेंगे
कहीं बुखार हो गया तो।
कोरोना का डर लागे है
पास होकर पूछें तो।
घर भी मेरा दूर है
क्या इससे बात करुँ
साथ चलेगा ‘गर जो
बस न आई अगर
कैसे जाउंगी मैं घर को।
यह अनजान आदमी
अगर बोल ले बोल दो।
तो कुछ साहस होगा जो
सांझ ढल रही,
लाॅक डाउन का समय हो गया
अंधेरा घिर रहा
न जाने अब क्या हो।
खून का असली रंग
हमारे यहाँ
रगों में बहते खून की
बहुत बात होती है।
किसी का खून खानदानी,
किसी का उजला,
किसी का काला
किसी का अपना
और किसी का पराया।
तब आसानी से
कह देते हैं
अपना तो खून ही
ख़राब निकला।
और
ऐसा नीच खून
तो हमारा खून
हो ही नहीं सकता।
-
लेकिन
काश! हम समझ पाते
कि रगों में बहते खून का
कोई रंग नहीं होता
खून का रंग तब होता है
जब वह किसी के काम आये।
फिर अपना हो या पराया,
खानदानी हो या काला,
खून का असली रंग
तभी पहचान में आता है।
लाल, नीला या काला
होने से कभी
कोई फ़र्क नहीं पड़ता।
जीवन के कितने पल
वियोग-संयोग भाग्य के लेखे
अपने-पराये कब किसने देखे
दुःख-सुख तो आने-जाने हैं
जीवन के कितने पल किसने देखे।
उलझे बैठे हैं अनजान राहों में
जीवन ऊँची-नीची डगर है।
मन में भावनाओं का समर है।
उलझे बैठे हैं अनजान राहों में
मानों अंधेरों में ही अग्रसर हैं।
ज़िन्दगी के सवाल
ज़िन्दगी के सवाल
कभी भी
पहले और आखिरी नहीं होते।
बस सवाल होते हैं
जो एक-के-बाद एक
लौट-लौटकर
आते ही रहते हैं।
कभी उलझते हैं
कभी सुलझते हैं
और कभी-कभी
पूरा जीवन बीत जाता है
सवालों को समझने में ही।
वैसे ही जैसे
कभी-कभी हम
अपनी उलझनों को
सुलझाने के लिए
या अपनी उलझनों से
बचने के लिए
डायरी के पन्ने
काले करने लगते हैं
पहला पृष्ठ खाली छोड़ देते हैं
जो अन्त तक
पहुँचते-पहुँचते
अक्सर फ़ट जाता है।
तब समझ आता है
कि हम तो जीवन-भर
निरर्थक प्रश्नों में
उलझे रहे
न जीवन का आनन्द लिया
और न खुशियों का स्वागत किया।
और इस तरह
आखिरी पृष्ठ भी
बेकार चला जाता है।
अब कांटों की बारी है
फूलों की बहुत खेती कर ली
अब कांटों की बारी है।
पत्ता–पत्ता बिखर गया
कांटों की सुन्दर मोहक क्यारी है।
न जाने कितने बीज बोये थे
रंग-बिरंगे फूलों के।
सपनों में देखा करती थी
महके महके गुलशन के रंगों के।
मिट्टी महकी, बरसात हुई
तब भी, धरा न जाने कैसे सूख गई।
नहीं जानती, क्योंकर
फूलों के बीजों से कांटे निकले
परख –परख कर जीवन बीता
कैसे जानूं कहां-कहां मुझसे भूल हुई।
दोष नहीं किसी को दे सकती
अब इन्हें सहेजकर बैठी हूं।
वैसे भी जबसे कांटों को अपनाया
सहज भाव से जीवन में
फूलों का अनुभव दे गये
रस भर गये जीवन में।
मेंहदी के रंगों की तरह
जीवन के रंग भी अद्भुत हैं।
हरी मेंहदी
लाल रंग छोड़ जाती है।
ढलते-ढलते गुलाबी होकर
मिट जाती है
लेकिन अक्सर
हाथों के किसी कोने में
कुछ निशान छोड़ जाती है
जो देर तक बने रहते हैं
स्मृतियों के घेरे में
यादों के, रिश्तों के,
सम्बन्धों के,
अपने-परायों के
प्रेम-प्यार के
जो उम्र के साथ
ढलते हैं, बदलते हैं
और अन्त में
कितने तो मिट जाते हैं
मेंहदी के रंगों की तरह।
जैसे हम नहीं जानते
जीवन में
कब हरीतिमा होगी,
कब पतझड़-सा पीलापन
और कब छायेगी फूलों की लाली।
जीवन कितने पल
किसने जाना जीवन कितने पल।
अनमोल है जीवन का हर पल।
यहां दुख-सुख तो आने जाने हैं
आनन्द उठा जीवन में पल-पल।
अजब-सी भटकन है
फ़िरकी की तरह
घूमती है ज़िन्दगी।
कभी इधर, कभी उधर।
दुनियादारी में उलझी
कभी सुलझी, कभी न सुलझी।
अपनी-सी न लगती
जैसे उधारी किसी की।
अजब-सी भटकन है
कामनाओं का पर्वत है
उम्र पूछती है नाम।
अक्सर मन करता है
चादर ले
सिर ढक और लम्बी तान।
किन्तु
उन सलवटों का क्या करुं
जिन्हें वर्षों से छुपाती आ रही हूँ,
उन धागों का क्या करुँ
जिन्हें दुनिया-भर में तानती आ रही हूँ।
.
यार ! छोड़ अब ये ढकोसले।
बस, अपनी छान।
चादर ले
सिर ढक और लम्बी तान।