छोटा हूं पर समझ बड़ी है

छोटा हूं पर समझ बड़ी है।

मुझको छोटा न जानो।

बड़के भैया, छुटके भैया,

बहना मेरी और बाबा

सब अच्छे-अच्छे कपड़े पहनें।

सज-धजकर रोज़ जाते,

मैं और अम्मां घर रह जाते।

जब मैं कहता अम्मां से

मुझको भी अच्छे कपड़े दिलवा दे,

मुझको भी बाहर जाना है।

तब-तब मां से पड़ती डांट

तू अभी छोटा छौना है।

यह छौना क्या होता है,

न बतलाती मां।

न नहलाती, न कपड़े पहनाती,

बस कहती, ठहर-ठहर।

भैया जाते बड़की साईकिल पर

बहना जाती छोटी साईकिल पर।

बाबा के पास कार बड़ी।

मैं भी मांगू ,

मां मुझको घोड़ा ला दे रे।

मां के पीछे-पीछे घूम रहा,

चुनरी पकड़कर झूम रहा।

मां मुझको कपड़े पहना दे,

मां मुझको घोड़ा ला दे।

मां ने मुझको गैया पर बिठलाया।

यह तेरा घोड़ा है, बतलाया।

मां बड़ी सीधी है,

न जाने गैया और घोड़ा क्या होता है।

पर मैंने मां को न समझाया,

न मैंने सच बतलाया,

कि मां यह तो गैया है, मैया है।

संध्या बाबा आयेंगे।

उनको बतलाउंगा,

मां गैया को घोड़ा कहती है,

मां को इतना भी नहीं पता।

 

 

 

जीवन की पुस्तकें

कुछ बुढ़ा-सी गई हैं पुस्तकें।

भीतर-बाहर

बिखरी-बिखरी-सी लगती हैं,

बेतरतीब।

.

किन्तु जैसे

बूढ़ी हड्डियों में

बड़ा दम होता है,

एक वट-वृक्ष की तरह

छत्रछाया रहती है

पूरे परिवार के सुख-दुख पर।

उनकी एक आवाज़ से

हिलती हैं घर की दीवारें,

थरथरा जाते हैं

बुरी नज़र वाले।

देखने में तो लगते हैं

क्षीण काया,

जर्जर होते भवन-से।

किन्तु उनके रहते

द्वार कभी सूना नहीं लगता।

हर दीवार के पीछे होती है

जीवन की पूरी कहानी,

अध्ययन-मनन

और गहन अनुभवों की छाया।

.

जीवन की इन पुस्तकों को

चिनते, सम्हालते, सजाते

और समझते,

जीवन बीत जाता है।

दिखने में बुढ़उ सी लगती हैं,

किन्तु दम-खम इनमें भी होता है।

 

जीवन की कहानियां बुलबुलों-सी नहीं होतीं

 कहते हैं

जीवन पानी का बुलबुला है।

किन्तु कभी लगा नहीं मुझे,

कि जीवन

कोई छोटी कहानी है,

बुलबुले-सी।

सागर की गहराई से भी

उठते हैं बुलबुले।

और खौलते पानी में भी

बनते हैं बुलबुले।

जीवन में गहराई

और जलन का अनुभव

अद्भुत है,

या तो डूबते हैं,

या जल-भुनकर रह जाते हैं।

जीवन की कहानियां

बुलबुलों-सी नहीं होतीं

बड़े गहरे होते हैं उनके निशान।

वैसे ही जैसे

किसी के पद-चिन्हों पर,

सारी दुनिया

चलना चाहती है।

और किसी के पद-चिन्ह

पानी के बुलबुले से

हवाओं में उड़ जाते हैं,

अनदेखे, अनजाने,

अनपहचाने।

 

ज़िन्दगी जीने के लिए क्या ज़रूरी है

कितना अच्छा लगता है,

और कितना सम्मानजनक,

जब कोई कहता है,

चलो आज शाम

मिलते हैं कहीं बाहर।

-

बाहर !

बाहर कोई पब,

शराबखाना, ठेका

या कोई मंहगा होटल,

ये आपकी और उनकी

जेब पर निर्भर करता है,

और निर्भर करता है,

सरकार से मिली सुविधाओं पर।

.

एक सौ गज़ पर

न अस्पताल मिलेंगे,

न विद्यालय, न शौचालय,

न विश्रामालय।

किन्तु मेरे शहर में

खुले मिलेंगे ठेके, आहाते, पब, होटल,

और हुक्का बार।

सरकार समझती है,

आम आदमी की पहली ज़रूरत,

शराब है न कि राशन।

इसीलिए,

राशन से पहले खुले थे ठेके।

और शायद ठेके की लाईन में

लगने से

कोरोना नहीं होता था,

कोरोना होता था,

ठेला चलाने से,

सब्ज़ी-भाजी बेचने से,

छोटे-छोटे श्रम-साधन करके

पेट भरने वालों से।

इसीलिए सुरक्षा के तौर पर

पहले ठेके पर जाईये,

बाद में घर की सोचिए।

-

ज़िन्दगी जीने के लिए क्या ज़रूरी है

कौन लेगा यह निर्णय।

 

 

हाथों से मिले नेह-स्पर्श

 पत्थरों में भाव गढ़ते हैं,

जीवन में संवाद मरते हैं।

हाथों से मिले नेह-स्पर्श,

बस यही आस रखते है।

 

आंसू और हंसी के बीच

यूं तो राहें समतल लगती हैं, अवरोध नहीं दिखते।

चलते-चलते कंकड़ चुभते हैं, घाव कहीं रिसते।

कभी तो बारिश की बूंदें भी चुभ जाया करती हैं,

आंसू और हंसी के बीच ही इन्द्रधनुष देखे खिलते।

 

दिन-रात

दिन-रात जीवन के आवागमन का भाव बताता है।

दिन-रात जीवन के दुख-सुख का हाल बताता है।

सूरज-चंदा-तारे सब इस चक्र में बौखलाए देखे,

दिन-रात जीवन के तम-प्रकाश की चाल बताता है।

 

पुष्प निःस्वार्थ भाव से

पुष्प निःस्वार्थ भाव से नित बागों को महकाते।

पंछी को देखो नित नये राग हमें मधुर सुनाते।

चंदा-सूरज दिग्-दिगन्त रोशन करते हरपल,

हम ही क्यों छल-कपट में उलझे सबको बहकाते।

 

लीक पीटना छोड़ दें

 

युग बदलते हैं भाव कहां बदलते हैं

राम-रावण तो हर युग में पनपते हैं

कथाओं को घोट-घोट कर पी रहे हम]

लीक पीटना छोड़ दें तब जीवन संवरते हैं

निरन्तर बढ़ रही हैं दूरियां

कुछ शहरों की हैं दूरियां, कुछ काम-काज की दूरियां

मेल-मिलाप कैसे बने, निरन्तर बढ़ रही हैं दूरियां

परिवार निरन्तर छिटक रहे, दूर-पार सब जा रहे,

तकनीक आज मिटा रही हम सबके बीच की दूरियां

 

बचाकर रखी है भीतर तरलता

कितना भी काट लो, कुछ है, जो जड़ें  जमाये रखता है

न भीतर से टूटने देता है, मन में इक आस बनाये रखता है

बचाकर रखी है भीतर तरलता, नयी पौध तो पनपेगी ही,

धरा से जुड़े हैं तो कदम संभलेंगे, यह विश्वास जगाये रखता है

 

जलने-बुझने के बीच

न इस तरह जलाओ कि सिलसिला बन जाये।

न इस तरह बुझाओ कि राख ही नज़र जाये।

जलने-बुझने के बीच बहुत कुछ घट जाता है,

न इस तरह तम हटाओ कि आंख ही धुंधला जाये।

 

हे घन ! कब बरसोगे

अब तो चले आओ प्रियतम कब से आस लगाये बैठे हैं

चांद-तारे-सूरज सब चुभते हैं, आंख टिकाये बैठे हैं

इस विचलित मन को कब राहत दोगे बतला दो,

हे घन ! कब बरसोगे, गर्मी से आहत हुए बैठे हैं

 

ज़िन्दगी कोई गणित नहीं

ज़िन्दगी

जब कभी कोई

प्रश्नचिन्ह लगाती है,

उत्तर शायद पूर्वनिर्धारित होते हैं।

यह बात

हम समझ ही नहीं पाते।

किसी न किसी गणित में उलझे

अपने-आपको महारथी समझते हैं।

 

हम क्यों आलोचक बनते जायें

खबरों की हम खबर बनाएं,

उलट-पलटकर बात सुझाएं,

काम किसी का, बात किसी की,

हम यूं ही आलोचक बनते जाएं।

एकान्त के स्वर

मन के भाव रेखाओं में ढलते हैं।

कलश को नेह-नीर से भरते हैं।

रंगों में जीवन की गति रहती है,

एकान्त के स्वर गीत मधुर रचते हैं।

कलश तेरी माया अद्भुत है

 

कलश तेरी माया अद्भुत है, अद्भुत है तेरी कहानी।

माटी से निर्मित, हमें बताता जीवन की पूरी कहानी।

जल भरकर प्यास बुझाता, पूजा-विधि तेरे बिना अधूरी,

पर, अंतकाल में कलश फूटता, बस यही मेरी कहानी।

आई दुल्हन

 

पायल पहले रूनझुन करती आई दुल्हन।

कंगन बजते, हार खनकते, आई दुल्हन।

श्रृंगार किये, सबके मन में रस बरसाती]

घर में खुशियों के रंग बिखेरे आई दुल्हन।

किसान क्यों है परेशान

कहते हैं मिट्टी से सोना उगाता है किसान।

पर उसकी मेहनत की कौन करता पहचान।

कैसे कोई समझे उसकी मांगों की सच्चाई,

खुले आकाश तले बैठा आज क्यों परेशान।

मदमाता शरमाता अम्बर

रंगों की पोटली लेकर देखो आया मदमाता अम्बर

भोर के साथ रंगों की पोटली बिखरी, शरमाता अम्बर

रवि को देख श्वेताभा के अवगुंठन में छिपता, भागता

सांझ ढले चांद-तारों संग अठखेलियां कर भरमाता अम्बर

 

दर्दे दिल के निशान

 

काश! मेरा मन रेत का कोई बसेरा होता।

सागर तट पर बिखरे कणों का घनेरा होता।

दर्दे दिल के निशान मिटा देतीं लहरें, हवाएं,

सागर तल से उगता हर नया सवेरा होता।

भावनाएं पत्थर हो गईं

सड़कों पर आदमी भूख से मरता रहा।

मंदिरों में स्वर्ण, रजत, हीरा चढ़ता रहा।

भावनाएं पत्थर हो गईं, कौन समझा यहां

बेबस इंसान भगवान की मूतियां गढ़ता रहा।

मन हर्षित होता है

दूब पर चमकती ओस की बूंदें, मन हर्षित कर जाती हैं।

सिर झुकाई घास, देखो सदा पैरों तले रौंद दी जाती है।

कहते हैं डूबते को तृण का सहारा ही बहुत होता है,

पूजा-अर्चना में दूर्वा से ही आचमन विधि की जाती है।

 

व्यवसाय बनी है शिक्षा

शिक्षक का नअब मान रहा।

छात्र का न अब प्रतिदान रहा।

व्यवसाय बनी है शिक्षा अब,

व्यापार बना, यह काम रहा

समानता का भाव

बस एक इंसानियत का भाव जगाना होगा।

समानता का भाव सबके मन में लाना होगा।

मानवता को बांटकर देश प्रगति नहीं करते,

हर तरह का भेद-भाव अब मिटाना होगा।

कभी हमारी रचना पर आया कीजिए

समीक्षा कीजिए, जांच कीजिए, पड़ताल कीजिए।

इसी बहाने कभी-कभार रचना पर आया कीजिए।

बहुत आशाएं तो हम करते नहीं समीक्षकों से,

बहुत खूब, बहुत सुन्दर ही लिख जाया कीजिए।

समय समय की बात

वस्त्र सुन्दर, मूल्यवान, यूं अलमारी में चन्द पड़े हैं,

क्या पहने, अब बात नहीं होती घर में बन्द खड़े हैं,

तह लगाते, तह पलटते, देखें कहीं दीमक न खाए

स्वर्णाभूषण यूं लगते मानों देखो सारे जंग गड़े हैं।

बाधाएं राहों से कैसे हटतीं

 

विनम्रता से सदा दुनिया नहीं चलती

समझौतों से सदा बात यहां नहीं बनती

हम रोते हैं, जग हंसता है ताने कसता है,

आंख दिखा, तभी राहों से बाधाएं हैं हटतीं।

चिड़िया फूल रंग और मन

 

चिड़िया की कुहुक-कुहुक, फूलों की महक-महक

राग बजे मधुर-मधुर, मन गया बहक-बहक

सरगम की तान छिड़ी, साज़ बजे, राग बने

सतरंगी आभा छाई , ताल बजे ठुमुक-ठुमुक

प्रकृति का मन न समझें हम

कभी ऋतुएं मनोहारी लगती थीं, अब डरता है मन।

ग्रीष्म ऋतु में सूखे ताल-तलैया, जलते हैं कानन।

बदरा घिरते, बरसेगा रिमझिम, धरा की प्यास बुझेगी,

पर अब तो हर बार, विभीषिका लेकर आता है सावन