कंधों पर सिर लिए घूमते हैं

इस रचना में पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग किया गया है, पर्यायवाची शब्दों में भी अर्थ भेद होता है, इसी अर्थ भेद के कारण मुहावरे बनते हैं, ऐसा मैं समझती हूं, इसी दृष्टि से इस रचना का सृजन हुआ है

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सुनते हैं

अक्ल घास चरने गई है

मति मारी गई है

और समझ भ्रष्ट हो गई है

विवेक-अविवेक का अन्तर

भूल गये हैं

और मनीषा, प्रज्ञा, मेधा 

हमारे ऋषि-मुनियों की

धरोहर हुआ करती थीं

जिन्हें हम सम्हाल नहीं पाये

अपनी धरोहर को।

 बुद्धि-विवेक कहीं राह में छूट गये

और हम

यूं ही

कंधों पर सिर लिए घूमते हैं।